अल हज़रत इमाम एहले सुन्नत, मुजद्दिद ऐ दीन ओ मिल्लत, मौलाना शाह अहमद रज़ा खान फ़ाज़िल ऐ बरेलवी
ये केवल एक ही व्यक्ति की प्रशंसा में बनाया गया नाम है, जिस का नाम था अहमद रज़ा खान. इस व्यक्ति का जन्म, सन १८५६ में अखंड भारत के बरेली नगर में हुआ था. क्योंकि ये एक मौलवियों के घर में जन्मा था, इसने १४ वर्ष से कम की आयु में इस्लामी पुस्तकों का अध्ययन कर के उन में कुशलता अर्जित कर ली थी. इस के दिए हुए फतवों को बारह खण्डों में प्रकाशन किया गया है जिन का शीर्षक है फतवा ऐ रिज़विय्या. प्रत्येक खंड में १००० के लगभग पन्ने हैं. इन फतवों को पढने के उपरान्त इस्लाम के प्रसिद्द मक्का पुस्तकालय के प्रबंधक शेख इस्माइल खलील ने हर्षित हो कर कहा था:
अल्लाह कसम अगर अबू हनीफा इन फतवों को पढ़ लें तो उन का दिल ख़ुशी से भर जाए और इन के लेखक को वो अपना विद्यार्थी स्वीकार कर लें.
अनजान पाठकों को बता दूं कि अबू हनीफा नामक व्यक्ति ने इस्लाम के संस्थापक मोहम्मद के जीवन शैली, उसके कथनों और कुरान के आधार पर एक कानून व्यवस्था की रूपरेखा बनायी थी जिसे हनाफी व्यवस्था कहा जाता है और भारत में रहने वाले मुसलमान इसी का पालन करते हैं. इसके अतिरिक्त तीन और इस्लामी कानून व्यवस्थाएं हैं हनबाली, मलाकी और शफी.
इन १२,००० पन्नों के फतवों में से कुछ का अध्ययन करते हैं. उन दिनों भारत को स्वतंत्र कराने का आन्दोलन चरम पर था और गाँधी के खिलाफत आन्दोलन के संबंध में मुसलमान दुविधा में थे कि हिन्दुओं का साथ दें अथवा नहीं. इस जानकारी के लिए वो मौलाना रज़ा खान से प्रश्न पूछते थे और मौलाना इस्लाम के अनुसार उनके लिए फतवा दिया करते थे.
हिन्दुओं के साथ एकता के संबंध में इन का उत्तर है कि सभी उलेमा मानते हैं कि गोबर एक घृणित (नाजिस) वस्तु है, ये हिन्दू तो उस से भी हज़ार दर्जे बुरे हैं. इन मूर्ती पूजा वालों (मुशरिकों) की नजासत (नीचता) के संबंध में तो कुरान में स्पष्ट हुक्म है. बाहर की गंदगी तो एक लोटा पानी से साफ़ हो सकती है लेकिन इन हिन्दुओं के अन्दर की नीचता तो समुन्दर के पानी से भी नहीं धुल सकती. वो तो सिर्फ इस्लाम कबूल करने से ही धुल सकती है.
पूरे स्वतंत्रता संग्राम के समय उलेमा दो खेमों में बंटे थे. एक जो बहुमत में थे वो मौलाना अहमद रज़ा खान की मानसिकता के थे; जिन के अनुसार हिन्दुओं से कोई भी एकता इस्लाम के विरुद्ध थी और दूसरे जो अल्पमत में थे उन में प्रमुख थे मौलाना किफायतुल्ला. प्रत्यक्ष में किफायतुल्ला, एक राष्ट्रवादी मौलाना थे, इनके विचार उदार प्रतीत होते हैं किन्तु वास्तविकता के लिए यहाँ पढ़ें. किफायतुल्ला, हिन्दुओं का साथ इसलिए देने की बात करते थे ताकि इस्लाम को बचाया जा सके. काफिरों से ऐसी स्वार्थ भरी एकता के भी अहमद रज़ा खान विरोधी थे. देखिये क्या कहते हैं:
कुफ्र के कई दर्जे हैं. इनमें इसाइअत एक घटिया दर्जे का कुफ्र है, उस से भी बदतर हैं ज़ोराष्ट्रियन, उन से भी बदतर हैं हिन्दू, उन से बदतर हैं वहाबी और बदतर आज़ बदतर से बदतर (इन सब से बदतर) हैं देवबंदी. देवबंदी तो असली काफिरों से भी बदतर हैं क्योंकि वो मुसलमान बन कर मुसलामानों को धोखा दे रहे हैं, इसलिए ये तो मुनाफ़िक़ हैं और ये जहन्नुमी ही नहीं हैं, ये तो जहन्नुम के कुत्ते हैं.
मौलाना किफायतुल्ला जब मुसलामानों को लोकमान्य तिलक और गाँधी के साथ मिल कर चलने का फतवा देते तो एक मुसलमान ने मौलाना अहमद रज़ा खान से पूछा कि जो मौलाना एकता के लिए मंदिरों में जा रहे हैं और तिलक लगवा रहे हैं और कुरान, बाइबल तथा गीता को एक साथ रख रहे हैं, उन के लिए क्या हुक्म है?
अहमद रज़ा खान का फतवा है कि ये सब करना कुरान और हदीस की बेईज्ज़ती करना है और मूर्ती पूजा को इज्ज़त देना है. यदि ये कुफ्र (इस्लाम में सब से घृणित अपराध) नहीं है तो दुनिया में कुछ भी कुफ्र नहीं हो सकता.
मौलाना के मत के अनुसार हिन्दुओं अर्थात काफिरों की सहायता लेने को कुफ्र के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता. इसे विस्तार से एक उदाहरण दे कर भी समझाया है. पैगम्बर मोहम्मद ने एक बार एक अनजान स्थान पर रास्ता जानने के लिए एक काफिर की सहायता ली थी. क्या इसे किसी काफिर को अपना नेता मान लेने से तुलना की जा सकती है? यदि कोई शेख या इमाम एक रिक्शा में बैठ कर जाए जिसे काफिर चला रहा है तो क्या उस काफिर को इमाम मान कर उसके पीछे नमाज़ अदा की जा सकती है. और फिर पैगम्बर ने जब काफिर से रास्ता पूछा था वो ऐसा समय था जब काफिरों से जिहाद की आयत प्रकट नहीं हुई थी. ये वो समय था जब 'तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन और मेरे लिए मेरा दीन' वाली आयत वैध थी. लेकिन उस के बाद काफिरों से सख्ती से पेश आने को कहा गया था और अंततः अल्लाह से आयत आ गयी थी: ऐ नबी! काफिरों और मुनाफिकों से जिहाद करो.
अगर एक आम मुसलमान रिक्शा वाले उदाहरण से नतीजा निकालता है तो वो महामूर्ख हैं लेकिन अगर एक पढ़ा लिखा इमाम इस से नतीजा निकालता है तो ये उस की धूर्तता है. पैगम्बर ने कभी भी किसी काफिर से संबंध नहीं रखे थे क्योंकि कुरान में लिखा है कि जो उन से संबंध रखेगा, वो भी काफिर ही होगा. अल्लाह का पैगम्बर के लिए हुक्म था; ऐ पैगम्बर! काफिरों और मुनाफिकों से जिहाद करो और उनसे सख्ती से पेश आओ.
सुरा नूर में कहा गया है कि काफिर तो चाहते ही हैं कि तुम उन से नरमी से पेश आओ ताकि वो भी तुम से नरमी से पेश आयें. तब तो पैगम्बर मक्का में था और फिर भी उन से नरमी नहीं बरती, बाद में तो इस का प्रश्न ही नहीं था.
ऐसे लोगों को तौबा करनी चाहिए जो पैगम्बर पर झूठी बातें थोपते हैं. बड़े अफ़सोस की बात है कि जब किसी की गलती बताई जाए तो वो ऐसा कहे कि पैगम्बर ने भी ऐसा ही किया था.
मुशरिकों का साथ देना, मुशरिक को अपना नेता मानना; उसे महात्मा कहना और ये कहना कि वो हमारे शहर की मिटटी को पवित्र करने आया है - क्या ये सब इस्लाम के अनुसार सही है?
फतवा -
मुशरिकों के साथ एकता तो दूर की बात है, ये तो बिलकुल हराम है. कुरान में लिखा है: जो काफिरों से दोस्ती करेगा वो काफिर ही है और जो अल्लाह और क़यामत के दिन पर ईमान लाये हैं वो अल्लाह और उसके पैगम्बर के दुश्मनों से दोस्ती नहीं रखते भले ही वो उनके बेटे या शुभचिंतक ही हों. इसलिए काफिरों के साथ एकता कुफ्र है. क्या कुरान से और अल्लाह से बढ़ कर भी कोई सच हो सकता है?
किसी मुशरिक को अपना नेता मानना कुरान की तौहीन है. कुरान में हज़ारों आयतें हैं जो कहती हैं कि मुशरिक भटके हुए हैं और जानवरों की तरह हैं. उनसे भी बड़ा मूर्ख वो है जो उन्हें अपना नेता मानता है.
किसी मुशरिक को महात्मा कहना अल्लाह और उस के पैगम्बर से दुश्मनी जैसा है.
प्रश्न - बरेली में खिलाफत समिति की एक बैठक होने वाली है जिस में मौलाना शौकत अली, मौलन मोहम्मद अली और महात्मा गाँधी आने वाले हैं. ये एक जुलूस निकालेंगे जिस में हिन्दू ,मुसलमान, इसाई, वहाबी और शिया भाग लेने वाले हैं. कुरान और हदीस के मुताबिक, क्या ईमान वालों को इस में हिस्सा लिएना चाहिए? क्या बैठक में हिस्सा लेना और उसके लिए चंदा देना जायज़ है?
फतवा -
इस बैठक में हिस्सा लेना हराम है और इस हराम तमाशे को देखना भी हराम है. कोई भी मौलवी या मौलाना जो मुसलमान और काफिर के फर्क को मिटाता है और संगम और प्रयाग को पवित्र स्थान कहता है मौलवी और मौलाना नहीं है. ऐसे आदमी को मौलाना कहना भी हराम है. ये जो तथाकथित मुसलमान जुलूस और बैठक कर रहे हैं वो गाँधी के समर्थक हैं. शहर में जो इश्तिहार लगे हैं वो गाँधी की उपलब्धियां बता रहे हैं. ऐसा कर के वो गाँधी के शान बढ़ा रहे हैं - ये कुफ्र है. जो दिल से इस में हिस्सा लेगा वो अन्दर और बाहर से काफिर है. जो मजबूरी में ऐसा कर रहा है तो उस के लिए ये मजबूरी शरिया के अनुसार नहीं है क्योंकि शरिया के अनुसार ऐसा तब किया जाना चाहिए जब अपनी जान को खतरा हो. ऐसे आदमी को इस्लाम दुबारा कबूलना पड़ेगा और निकाह भी दुबारा करना पड़ेगा.
प्रश्न - क्या महात्मा गाँधी की जय बोला जा सकता है?
फतवा -
किसी काफिर को इज्ज़त देना कुफ्र है. उसकी जय बोलना, उनके मरने पर हड़ताल करना और जेल जाना, अन्य मुसलामानों को भी ऐस्सा करने को कहना कुफ्र है. इज्ज़त सिर्फ अल्लाह, पैगम्बर और मुसलामानों को दी जा सकती है. पैगम्बर के अनुसार किसी और सम्प्रदाय के लोगों को इज्ज़त देना इस्लाम को नष्ट करने जैसा है.
उन्हें इज्ज़त देना तो दूर, पैगम्बर का आदेश है कि उनसे हाथ भी न मिलाया जाए. अगर कोई काफिर आप के पास आता है तो उसे इतनी भी इज्ज़त नहीं देनी कि उसे उस के दूसरे नाम (जातिसूचक अर्थात सरनेम) से पुकारा जाए. उसके आने पर मरहबा भी नहीं कहना चाहिए. यहाँ तक कि उन्हें आयिए भी नहीं कहना चाहिए. जब इतने छोटे छोटे इज्ज़त देने वाले काम भी नहीं करने तो जय बोलना तो दूर की बात है.
इतने महान विचारक और देश भक्त का यदि सम्मान न किया जाए तो ये तो नेहरुवादियों के लिए लज्जा जनक होगा. इसलिए ३१/१२/१९९५ को बचे हुए भारत की सरकार ने इसके सम्मान में एक डाक टिकट समर्पित किया है. इस्लाम की ही भांति मार्क्सवाद और नेहरूवाद का अर्थ है हिन्दू सभ्यता को नष्ट करना. हिन्दू हैं कि आपस की लूट खसोट में लगे हैं.
प्रत्येक वर्ष इसकी कब्र पर भारतवासी एकत्रित होते हैं. यहाँ सभी सेक्युलर नेता जाते हैं और सेक्युलर हिन्दू मत पा कर ही जीतते हैं. यही हाल उन सेक्युलर हिन्दुओं का है जो सूफीगिरी का सच नहीं जानते और अपने आप को गर्व से सेक्युलर कहते हुए अमीर खुसरो जैसे राक्षस को उदारवादी होने का प्रमाण पत्र दे देते हैं. कदाचित उन्हें होश तब आये गा जब आठ दास काश्मीर और मांगे जायेंगे या एक और पकिस्तान माँगा जाएगा. इस बार हम कुछ बचा पायेंगे या नमाज़ अदा करने के लिए बाध्य हो जायेंगे, कौन जाने.
भारत में सेक्युलर कहलाना सब से आसान कार्य है, बस हिन्दू विरोधी भाषण दो, हिन्दुओं को गालियाँ दो, बन गए आप सेक्युलर.
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