मुझे अक्सर सीधे सादे लोग मिलते हैं जो पूछते हैं
इस्लाम में इतनी भेद भाव और हिंसक बातें लिखी हैं तो कोई इस का बचाव कैसे कर लेता है?
भारत में स्वतंत्रता से पहले ही हिन्दू, सनातन, आर्य अथवा वैदिक धर्म को नष्ट करने और इस्लाम तथा इसाई सम्प्रदाय को उदारवादी विचारधारा स्थापित करने के लिए प्रयत्न आरम्भ हो गए थे. भारत का दुर्भाग्य कि सत्ता में कुछ ऐसे लोग आ गए जो इस विषपूर्ण मानसिकता से ग्रसित थे. परिणामतः शिक्षा नीति निर्धारण मार्क्सवादियों और नूरुल हसन जैसे कपटियों के हाथों में आ गयी. आज, ६४ वर्षों में,
Many people are surprised that if such verses are present in this book, why no one objected to it?
यदि कोई सत्यवादी मुसलमान इस पर प्रश्न करता है तो सम्प्रदाय के ठेकेदार उसे सम्प्रदाय का शत्रु घोषित करके डरा देते हैं. इसका उदाहरण तसलीमा नसरीन जैसी वीर महिला के रूप में हमारे सामने है जिसे एक तथाकथित सेक्युलर राष्ट्र ने स्थान नहीं दिया.
एक साधारण हिन्दू सोच लेता है कि किसी सम्प्रदाय की पुस्तक में हिंसक संदेश हो ही नहीं सकते. फिर भी यदि कोई साहस जुटा भी लेता है तो उसे हन्दू कट्टरपंथी घोषित कर दिया जाता है और इतना हो हल्ला मचाया जाता है कि मूल विषय से भटक कर चर्चा किसी अर्थ हीन दिशा में मोड़ दी जाती है.
जो लोग इस्लाम से अपनी रोज़ी रोटी अर्जित करते हैं और वोट बैंक की इच्छा में साधारण हिन्दुओं और मुसलामानों को मूर्ख बनाते हैं, वो इस धूर्तता में पारंगत हो चुके हैं. उन्होंने कुछ ऐसी चालाकियां विकसित कर ली हैं कि हम आप मूर्ख बन जाते हैं. वो कुछ ऐसे अर्ध सत्यों का उल्लेख करते हैं जिस से कि आयतों का अर्थ हिंसक लगने के स्थान पर उदारवादी लगने लगता है. आइये धूर्तों की दुनिया में:
पहली चालाकी
कल्पना कीजिये कि एक मौलाना अथवा मार्क्सवादी टी.वी. पर मुस्कुराते हुए कहता है
इस्लाम तो शान्ति का संदेश देता है और कुरान में तो लिखा ही है कि 'तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन और मेरे लिए मेरा दीन'. इस्लाम बलपूर्वक किसी को मुसलमान बनाने में विश्वास नहीं करता.यहाँ ये जिस आयत की बात कर रहा है वो कुरान के अध्याय १०९ में से है, जिस में केवल छः आयतें हैं. ये इस प्रकार हैं:
قُلْ يَا أَيُّهَا الْكَافِرُونَ ﴿١﴾ لَا أَعْبُدُ مَا تَعْبُدُونَ ﴿٢﴾ وَلَا أَنتُمْ عَابِدُونَ مَا أَعْبُدُ ﴿٣﴾ وَلَا أَنَا عَابِدٌ مَّا عَبَدتُّمْ ﴿٤﴾ وَلَا أَنتُمْ عَابِدُونَ مَا أَعْبُدُ ﴿٥﴾ لَكُمْ دِينُكُمْ وَلِيَ دِينِ ﴿٦﴾
[१०९:१] नीरज अत्री
(ऐ नबी) इन काफिरों और मुशरिकों से तुम कह दो,"ऐ काफ़िरो,
[१०९:२] नीरज अत्री
मैं उसे नहीं पूजता जिसे की तुम पूजा करते हो (ऐ नबी) इन काफिरों और मुशरिकों से तुम कह दो,"ऐ काफ़िरो,
[१०९:२] नीरज अत्री
[१०९:३] नीरज अत्री
न तुम उसे पूजते हो जिस पर मेरा ईमान है
[१०९:४] नीरज अत्री
न तुम उसे पूजते हो जिस पर मेरा ईमान है
[१०९:४] नीरज अत्री
मैं उसे नहीं मानूंगा जिस की तुम पूजा करते हो
[१०९:५] नीरज अत्री
न तुम उसे पूजोगे जिसे मैं पूजता हूँ
न तुम उसे पूजोगे जिसे मैं पूजता हूँ
[१०९:६] नीरज अत्री
तुम्हारा दीन तुम्हारे लिए और मेरा दीन मेरे लिए
[109:1] Sarwar
(Muhammad), tell the disbelievers,
[109:2] Sarwar
"I do not worship what you worship,
[109:3] Sarwar
nor do you worship what I worship
[109:4] Sarwar
I have not been worshipping what you worshipped,
[109:5] Sarwar
nor will you worship what I shall worship.
[109:6] Sarwar
You follow your religion and I follow mine.
If you read the six verses as they are, the hint of intolerance is there but no fight or Jihad is suggested. The trick that is played upon is that if you speak only the last verse, then it looks like Islam tolerates all the other religions.
What makes these half truths even more ironic is the fact that most of the respected Ulema state that these versed stand abrogated by the verses which pronounce Jihad upon Kaafirs.
Note: Maulana Ahmed Raza Khan had issued a fatwa in which he categorically stated that the verses of tolerating other religions and Kaafirs are abrogated after the verses of Jihad have been revealed.
Trick 2.
A similar trick is played by using verse 256 of 2nd chapter of Quran. Here also the first five words are used in front of the T.V. cameras or for the benefit of news papers.
Chapter 2, Verse 256
لَا إِكْرَاهَ فِي الدِّينِ ۖ قَد تَّبَيَّنَ الرُّشْدُ مِنَ الْغَيِّ ۚ فَمَن يَكْفُرْ بِالطَّاغُوتِ وَيُؤْمِن بِاللَّـهِ فَقَدِ اسْتَمْسَكَ بِالْعُرْوَةِ الْوُثْقَىٰ لَا انفِصَامَ لَهَا ۗ وَاللَّـهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ
[२:२५६] नीरज अत्री
दीन के संबंध में कोई बाध्यता नहीं है. यकीनन जो सच्चा मार्ग है वो बुरे मार्ग से भिन्न है, ये स्पष्ट हो गया है. जिसने भी अन्य को छोड़ कर अल्लाह पर ईमान लाया, उसने एक ऐसा सहारा थाम लिया जो कभी नहीं छूटेगा. अल्लाह सब सुनाता और जानता है.
[2:256] फ़ारूक़ ख़ान एवं नदवी
दीन में किसी तरह की जबरदस्ती नहीं क्योंकि हिदायत गुमराही से (अलग) ज़ाहिर हो चुकी तो जिस शख्स ने झूठे खुदाओं बुतों से इंकार किया और खुदा ही पर ईमान लाया तो उसने वो मज़बूत रस्सी पकड़ी है जो टूट ही नहीं सकती और ख़ुदा सब कुछ सुनता और जानता है
[2:256] Sarwar
There is no compulsion in religion. Certainly, right has become clearly distinct from wrong. Whoever rejects the devil and believes in God has firmly taken hold of a strong handle that never breaks. God is All-hearing and knowing.
If this verse is read completely, the hatred and jealosy for God(s) of all other religions and especially idols becomes clear.
A third trick up the sleeves is to select a few words of 32nd verse of chapter 5. Look at the bold words.
This is also, according to most Ulema, an abrogated verse.
Trick 3.
इस चाल का प्रयोग दारुल उलूम देवबंद की वेबसैट से ले कर शाहरुख़ खान तक ने किया है. स्मरण कीजिये कारन जौहर की फिल्म 'माई नेम इस खान'. इस में एक गोरा अफगानिस्तान में जा कर मरता है. उसकी मौत के कुछ पल बाद एक दृश्य में शाहरुख़ की ध्वनि में इसी आयत का उल्लेख आता है जिस के अनुसार अल्लाह ने कहा है कि यदि कोई एक को मारता है तो उसने सभी की हत्या कर दी. शब्द आगे पीछे हो सकते हैं किन्तु उन का अर्थ यही था. आइये इस आयत की सत्यता को देखें. इस में उन शब्दों को गहरा कर के दर्शाया है जिनका उपयोग पूरी आयत के स्थान पर किया जाता है.
Chapter 5, Verse 32
مِنْ أَجْلِ ذَٰلِكَ كَتَبْنَا عَلَىٰ بَنِي إِسْرَائِيلَ أَنَّهُ مَن قَتَلَ نَفْسًا بِغَيْرِ نَفْسٍ أَوْ فَسَادٍ فِي الْأَرْضِ فَكَأَنَّمَا قَتَلَ النَّاسَ جَمِيعًا وَمَنْ أَحْيَاهَا فَكَأَنَّمَا أَحْيَا النَّاسَ جَمِيعًا ۚ وَلَقَدْ جَاءَتْهُمْ رُسُلُنَا بِالْبَيِّنَاتِ ثُمَّ إِنَّ كَثِيرًا مِّنْهُم بَعْدَ ذَٰلِكَ فِي الْأَرْضِ لَمُسْرِفُونَ
[5:32] फ़ारूक़ ख़ान एवं अहमद
इसी कारण हमने इसराईल का सन्तान के लिए लिख दिया था कि जिसने किसी व्यक्ति को किसी के ख़ून का बदला लेने या धरती में फ़साद फैलाने के अतिरिक्त किसी और कारण से मार डाला तो मानो उसने सारे ही इनसानों की हत्या कर डाली। और जिसने उसे जीवन प्रदान किया, उसने मानो सारे इनसानों को जीवन दान किया। उसने पास हमारे रसूल स्पष्टि प्रमाण ला चुके हैं, फिर भी उनमें बहुत-से लोग धरती में ज़्यादतियाँ करनेवाले ही हैं
[5:32] Hilali & Khan
Because of that We ordained for the Children of Israel that if anyone killed a person not in retaliation of murder, or (and) to spread mischief in the land - it would be as if he killed all mankind, and if anyone saved a life, it would be as if he saved the life of all mankind. And indeed, there came to them Our Messengers with clear proofs, evidences, and signs, even then after that many of them continued to exceed the limits (e.g. by doing oppression unjustly and exceeding beyond the limits set by Allah by committing the major sins) in the land!.
[५:३२] नीरज अत्री
इसलिए हमने इस्राइल की पीढ़ियों के लिए ये आदेश दिया कि यदि किसी ने हत्या का प्रतिशोध लेने अथवा विश्व में फसाद फैलाने वाले के अतिरिक्त किसी एक व्यक्ति की हत्या की तो वो ऐसा होगा मानो सम्पूर्ण मानव जाति की हत्या कर दी, और यदि किसी ने एक जीवन बचाया, तो मानो उस ने सम्पूर्ण मानव जाति को बचाया. उन के पास हमारे पैगम्बर स्पष्ट प्रमाणों तथा चिन्हों के साथ आये किन्तु फिर भी बहुत से लोग अपनी सीमा का उल्लंघन ( अल्लाह द्वारा निर्धारित सीमा का अतिक्रमण कर के अत्याचार तथा पाप द्वारा) करते रहे.
यहाँ चालाकी को दो भागों में देखना चाहिए. सर्वप्रथम तो ये आयत यहूदियों को आदेश देती है और इसलिए मुसलामानों पर लागू नहीं होती. और दूसरे, यदि इस आयत को पूरा पढ़ें तो इस में शान्ति का जो आदेश यहूदियों को दिया है, उसमें हिंसात्मक प्रतिशोध का समर्थन दिखलाई पड़ता है.
अभी तनिक ध्यान दीजिये कि यहाँ शब्द फसाद का प्रयोग किया गया है और कहा गया है कि यदि कोई फसाद करे तो उस की हत्या की जा सकती है. यदि फसाद का अर्थ जानना हो तो ठीक इस से अगली आयत में स्पष्ट हो जाता है और हिंसा मुखर हो जाती है. आइये देखें अगली आयत.
यहाँ चालाकी को दो भागों में देखना चाहिए. सर्वप्रथम तो ये आयत यहूदियों को आदेश देती है और इसलिए मुसलामानों पर लागू नहीं होती. और दूसरे, यदि इस आयत को पूरा पढ़ें तो इस में शान्ति का जो आदेश यहूदियों को दिया है, उसमें हिंसात्मक प्रतिशोध का समर्थन दिखलाई पड़ता है.
अभी तनिक ध्यान दीजिये कि यहाँ शब्द फसाद का प्रयोग किया गया है और कहा गया है कि यदि कोई फसाद करे तो उस की हत्या की जा सकती है. यदि फसाद का अर्थ जानना हो तो ठीक इस से अगली आयत में स्पष्ट हो जाता है और हिंसा मुखर हो जाती है. आइये देखें अगली आयत.
Here the trick is two fold. One, as the verse itself says, it is a command for children of Israel, that is for Jews and not for Muslims.
Secondly, there is a catch to not killing. Look at the words ‘to spread mischief in the land’.
What does it mean?
It becomes clear if you read the very next verse.
5:33
إِنَّمَا جَزَاءُ الَّذِينَ يُحَارِبُونَ اللَّـهَ وَرَسُولَهُ وَيَسْعَوْنَ فِي الْأَرْضِ فَسَادًا أَن يُقَتَّلُوا أَوْ يُصَلَّبُوا أَوْ تُقَطَّعَ أَيْدِيهِمْ وَأَرْجُلُهُم مِّنْ خِلَافٍ أَوْ يُنفَوْا مِنَ الْأَرْضِ ۚ ذَٰلِكَ لَهُمْ خِزْيٌ فِي الدُّنْيَا ۖ وَلَهُمْ فِي الْآخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيمٌ
[5:33] फ़ारूक़ ख़ान एवं नदवी
जो लोग ख़ुदा और उसके रसूल से लड़ते भिड़ते हैं (और एहकाम को नहीं मानते) और फ़साद फैलाने की ग़रज़ से मुल्को (मुल्को) दौड़ते फिरते हैं उनकी सज़ा बस यही है कि (चुन चुनकर) या तो मार डाले जाएं या उन्हें सूली दे दी जाए या उनके हाथ पॉव हेर फेर कर एक तरफ़ का हाथ दूसरी तरफ़ का पॉव काट डाले जाएं या उन्हें (अपने वतन की) सरज़मीन से शहर बदर कर दिया जाए यह रूसवाई तो उनकी दुनिया में हुई और फिर आख़ेरत में तो उनके लिए बहुत बड़ा अज़ाब ही है
अर्थात जो अल्लाह को नहीं मानते उन्हें मार डाला जाए, सूली पर लटका दिया जाए अथवा हाथ पाँव काट दिए जाएँ. यदि शाहरुख़ इसे भी बोलते तो सत्य सामने आ जाता.
[5:33] Hilali & Khan
The recompense of those who wage war against Allah and His Messenger and do mischief in the land is only that they shall be killed or crucified or their hands and their feet be cut off on the opposite sides, or be exiled from the land. That is their disgrace in this world, and a great torment is theirs in the Hereafter.
[५:३३] नीरज अत्री
जो अल्लाह अथवा उस के पैगम्बर से युद्ध करते हैं तथा फसाद करते हैं, उनके लिए दंड है कि उनकी हत्या कर दी जाए अथवा सूली पर लटका दिया जाए अथवा उलट दिशा से हाथ पाँव काट दिए जाएँ अन्यथा उसे निष्कासित कर दिया जाए. ये उनके लिए इस जीवन की यातना है और इस से बड़ी यातना उन्हें मरने के उपरान्त मिलेगी.
So, those who wage war against Allah and messenger and do mischief can be killed. So much so, for the religion of peace.
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