हिंदुयों की उदार प्रवृति का लाभ उठाते हुए ये तथाकथित संत नगरों में जा बसते थे. वहाँ सूचना एकत्रित कर के इस्लामी आक्रान्ताओं को सुगम मार्गों सहित अन्य जानकारियाँ प्रदान करने का कार्य करते थे. आक्रान्ताओं की विजय के पश्चात मंदिर और मूर्तियाँ तोडना और उठा कर लायी गयी हिन्दू राजकुमारियों अथवा लड़कियों से दुष्कर्म भी करते थे.
इस अंक में केवल मुसलमान इतिहासकारों की पुस्तकों के अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ ताकि झूठ पर से पर्दा उठाया जा सके.
सियार उल औलिया
मोइनुद्दीन चिश्ती
इस सूफी की जीवनी है 'सियार उल औलिया', जिसे 'मीर खुर्द' (सईद मोहम्मद बिन मुबारक बिन मोहम्मद अल्वी किरमानी) ने लिखा है. वो निजामुद्दीन औलिया का अनुयाई था. उसने दिल्ली में औलिया और उस के मुख्य अनुयाइयों की जीवनी लिखी थी. यहाँ दिए गए अंश सियार उल औलिया के अनुवाद में से लिए गए हैं. (Cited in P.M. Currie, The Shrine and Cult of Mu‘in al-Dîn Chishtî of Ajmer, OUP, 1989, p. 30.)
शेख मोइनुद्दीन चिश्ती के सन्दर्भ में लिखा है:
दूसरा आश्चर्य (करिश्मा) यह है कि उस के आने से पहले पूरा हिन्दुस्तान कुफ्र और मूर्तिपूजा में डूबा हुआ था. हिंद का प्रत्येक अभिमानी व्यक्ति स्वयं को इश्वर समझता था और अपने आप को इश्व्वर का सांझेदार मानता था. भारत के सभी निवासी पत्थरों, मूर्तियों, पशुयों, गाय और गोबर के प्रति शीष झुकाते थे. इस नास्तिकता (बेईमानी) के अन्धकार ने उन के ह्रदय बंद और कठोर कर दिए थे.
सम्पूर्ण भारतवर्ष दीन (इस्लाम) के आदेश और न्याय से अनभिज्ञ थे. सभी अल्लाह और उस के रुसूल से अनजान थे. किसी ने काबा नहीं देखा था और अल्लाह की महानता से अनजान थे.
मोइनुद्दीन के आने से, जो कि ईमान वालों का सूर्य है, सम्प्रदाय का सहायक है, इस राष्ट्र की नास्तिकता का अन्धकार इस्लाम के प्रकाश से चमक उठा.
"उसकी तलवार की शक्ति से, कुफ्र की इस भूमि पर अब मूर्तियों और मंदिरों के स्थान पर मस्जिदें, मेहराब और मीनारें बन गयी हैं. जिस भूमि में मूर्ती पूजा करने वालों के शब्द सुनाई पड़ते थे, अब वहाँ 'अल्लाहु अकबर' सुनाई देता है".
"जिन्हें मुसलमान बना दिया गया है, उनके वंशज और उनके भी जो तलवार की नोक पर अन्यों को इस्लाम में लायेंगे, क़यामत के दिन तक यहाँ रहेंगे. क़यामत के दिन तक वो शेख अल इस्लाम, मोइनुद्दीन हसन के ऋणी रहेंगे और ये लोग शक्तिशाली अल्लाह के निकट आ जायेंगे. ये सब मोइनुद्दीन की वफादारी का परिणाम है".
सियार उल अरिफिन
शेख जलालुद्दीन तबरीज़ी (सन ११४३ - १२३३)
सुहार्वार्दिय्या सिलसिले का एक सूफी 'हामिद बिन फजलुल्लाह' था, जिसे दरवेश जमाली कम्बोह देहलवी के नाम से भी जाना जाता है. इस ने सियार उल अरिफिन नामक संकलन लिखा है. इस में उस के अपने सिलसिले और चिश्ती सिलसिले के लोगों के संबंध में वर्णन है. इस में वो शेख जलालुद्दीन के संबंध में लिखता है:-
वो सुहार्वार्दी सिलसिले के स्थापक शेख शहाबुद्दीन सुहार्वार्दी का दूसरा सबसे योग्य अनुयाई था. मुल्तान, बदौन और दिल्ली में रहने के पश्चात् वो बंगाल में लखनौती में, जिसे गौर भी कहते हैं, रहने लगा.
"शेख जलालुद्दीन के बंगाल में कई अनुयाई थे. वो पहले लखनौती में रहता था जहां उस ने एक खानकाह बनायी और लंगर लगाने लगा. उस ने कुछ उद्द्यान (बागीचे) भी ले लिए. वहाँ से वो उत्तरी बंगाल में पन्दुआ के निकट देवतला (देव महल) में जा बसा. वहाँ एक काफिर (हिन्दू अथवा बोद्ध) ने एक विशाल मंदिर और एक कूप बना रखा था. शेख ने उसे गिरा दिया और एक ताक़िया (खानगाह) बना दी, और बहुत से काफिरों को मुसलमान बना दिया. इस के पश्चात देवताला को तब्रिज़बाद के नाम से जाना जाने लगा और अनेक ईमान वाले लोग यहाँ आने लगे".
शेख अबू बकर तुसी हैदरी (तेरहवीं शताब्दी)
हैदरी संप्रदाय हैदर नामक तुर्की के नाम से चला है और शेख अबू बकर इसी संप्रदाय का अनुयाई था. उस के संबंध में लिखा है:
शेख अबू बकर तुसी हैदरी, जो तेरहवीं शताब्दी के मध्य में दिल्ली में आ बसा था, हैदरी घराने का एक प्रमुख अनुयाई था. उसने दिल्ली में यमुना नदी के किनारे एक मंदिर गिराया और उस पर खानगाह बना दी जहां वो समां बैठकें किया करता था. शेख निज़ामुद्दीन औलिया और हांसी का शेख जमालुद्दीन उसे मिलने दिल्ली आया करते थे. जमालुद्दीन ने शेख अबू बकर को उसकी उपलब्धियों के लिए बाज़ - इ - सफ़ेद की उपाधि दी.
सियार अल अक्ताब
ये पुस्तक अल्लाह दिया चिश्ती नामक चिश्तिया सिलसिले के लेखक की है और इस में मुख्यतः चिश्तिया और सबरिया सिलसिले के सूफियों से सम्बंधित जानकारी है.
इस में मोइनुद्दीन चिश्ती के संबंध में लिखा है:शेख मोइनुद्दीन चिश्ती सन १२३६ - अजमेर (राजस्थान)
हालाँकि इस समय झील के आस पास कई मंदिर थे जिन में मूर्तियाँ रखी थीं, जब ख्वाजा (मोइनुद्दीन) ने उन्हें देखा तो कहा,"यदि अल्लाह और मोहम्मद ने चाहा तो शीघ्र ही मैं इन मूर्तियों और मंदिरों को धुल में मिला दूंगा“.
"ऐसा कहा जाता है कि उस समय वहाँ एक ऐसा मंदिर था जिस के प्रति विशेष श्रद्धा थी और इस में राजा और सभी काफिर आते थे. इस की देख भाल के लिए भूमि भी प्रदान की गयी थी. जब ख्वाजा ने वहाँ जा कर रहना आरम्भ किया तो उस के सेवक प्रति दिन एक गाय वहाँ लाते थे और उसे काट कर खा जाते थे.
जब काफिरों ने अल्लाह के इस विशिष्ट साथी को देखा तो वे अपने आप को असहाय और निर्बल समझने लगे तो वो अपने मूर्ती मंदिर में गए. वहाँ एक देव था, जिस के समक्ष उन्होंने सहायता की मांग की.
"ये देव उन का मुखिया था. जब उस ने ख्वाजा की भव्यता को देखा तो वो सर से पाँव तक कापने लगा. वो जितना भी राम राम बोलने का प्रयत्न करता, उस के मुख से 'रहीम रहीम' ही निकल रहा था. खवाजा ने अपने हाथ से पानी का एक प्याला एक सेवक के हाथों देव को भेजा. उसे पीते ही, उसके ह्रदय से कुफ्र का अन्धकार दूर हो गया और वो ख्वाजा के स्वर्ग (जन्नत) जाने वाले चरणों में गिर पड़ा और इस्लाम अपना (कबूल) लिया.
ख्वाजा ने कहा कि मैं तुम्हारा नाम शादी देव रखता हूँ. शादी देव ने कहा कि वो इसी नगर में अपना निवास स्थान बनाए ताकि यहाँ के निवासी उस के पवित्र आगमन का लाभ उठाये. ख्वाजा ने उस की बात स्वीकार कर ली और अपने विशेष सेवक मोहम्मद याद्गीर से नगर में एक उचित स्थान खोजने को कहा ताकि फकीरों के लिए एक उचित स्थान बनाया जा सके. मोहम्मद याद्गीर नगर में गया और वो स्थान चुना जहां आज ख्वाजा की मज़ार है. उस समय ये स्थान शादी देव् का था.
मोइनुद्दीन ने एक दूसरी बीवी रखी, जिस का कारण इस प्रकार है -
"एक दिन उस के सपने में मोहम्मद प्रकट हुआ और उस ने कहा कि तुम मेरे सम्प्रदाय के अनुयाई तब तक नहीं हो सकते जब तक तुम मेरा पूरी तरह अनुसरण नहीं करते". उन्ही दिनों पाटली दुर्ग के शासक मलिक खिताब ने काफिरों पर आक्रमण किया और राजा की पुत्री को उठा कर ले आया. ये कन्या उस ने मोइनुद्दीन को भेंट (तोहफा) के रूप में दी जिस ने उसे अपना कर उस का नाम 'बीबी उमाय्या' रख दिया".
उल्लेखनीय है कि मोहम्मद ने दो युवतियों सफिय्या और जुवैरिय्या के पतियों का वध कर/करवा के उन से निकाह कर लिया था और एक युवती रेहाना को अपना गुलाम बना लिया था. इसी परंपरा का अनुसरण करते हुए इस्लामी आक्रान्ताओं ने हिन्दू स्त्रियों को अपने हरम में सम्मिलित कर लिया था.
पी एम् क्युरी के अनुसार “विश्वसनीय साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि मोनुद्दीन चिश्ती की दरगाह का जो बुलंद दरवाज़ा है, उस में हिन्दू मंदिरों के तराशे हुए पत्थरों का प्रयोग किया गया है. उस की मज़ार एक भूतपूर्व मंदिर के भाग के ऊपर बनी है. अनीस अल अर्वाह के अनुसार जो संदल खाना है वो शादी देव के मंदिर के ऊपर बना हुआ है.बहार - ऐ- आज़म
अगले चार सूफियों के कारनामे सन १८२३ के हैं. इस समय आज़म जाह बहादुर कर्णाटक के सिंहासन पर नवाब वालाजाह के उत्तराधिकारी के रूप में बैठा था. ये घटनाएं बहार - ऐ- आज़म नामक कृति में अंकित हैं जब नवाब अपने लाव लश्कर के साथ सफ़र पर निकला था. इसमें लेखक 'गुलाम अब्दुल कादिर नज़ीर' जो उसके महल का मुंशी था बताता है कि उस के काफिले के मुसलमान जब चिदंबरम में हिन्दू मंदिरों में जाने लगे तो नवाब आग बबूला हो गया था. उस ने वहाँ के अँगरेज़ अधिकारियों को सख्त निर्देश दिया कि किसी भी मुसलमान को मंदिर में न जाने दिया जाए. आगे वो बताता है कि किस प्रकार वो हिंदुयों की लड़कियों को नचाते हुए, संगीत सुनते हुए आगे बढे. इस में कई सूफियों के नाम हैं जिन्होंने उत्तरी और दक्षिण आर्कोट, तिरुचिरापल्ली तथा तंजावुर में मस्जिदें बनवाई. जो इस में नहीं लिखा वो ये है कि इस समय तक वो केवल नाम का ही नवाब रह गया था क्योंकि १८०१ में ही उन का प्रदेश अंग्रेजों ने अपने अधीन कर लिया था और ये नवाब अंग्रेज़ों के टुकड़ों पर पल रहा था. मस्जिदें कैसे बनी थीं उन का अनुमान लगाया जा सकता है.
सूफी नत्थर वाली
कहते हैं कि पुराने दिनों में त्रिचिला में एक तीन सर वाला राक्षस, जो कि रावण का भाई था, इस क्षेत्र पर अधिकार करने आ पहुंचा. कोई मनुष्य उसका सामना नहीं कर सकता था और सब और उस का दबदबा था. किन्तु मोहम्मद के कथन के अनुसार, "इस्लाम को कोई नहीं रोक सकता", यहाँ हज़रत नत्थर वाली के प्रयत्नों से दीन ने जड़ें पकड़ ली. राक्षस मारा गया. उस की मूर्ती जिसे काफिर 'बुत लिंग' कह कर पूजते थे काट कर सर धड़ से विलग कर दिया गया. धड़ का भाग भूमि में समा दिया गया और उस स्थान पर वाली की मज़ार है जो आज तक प्रकाशमान है.
सूफी शाह भेका
जब शाह भेका त्रिचिनोपोली में था, तो काफिर, जो उसे नापसंद करते थे, उसे सताने लगे. एक दिन जब वो अत्यंत क्रोधित था, वो हिंदुयों के मंदिर के बाहर एक बैल, जिसे हिन्दू स्वामी कह कर पूजते थे, पर चढ़ गया और अल्लाह की शक्ति से वहाँ से हटा दिया. हिन्दू वहाँ से चले गए और उस ने वो सारी भूमि शाह को भेंट कर दी.
सूफी कायिम शाह
कायिम शाह हिंदुस्तान आया. वो बारह मंदिरों के विनाश का कारण बना. वो एक लम्बी आयु तक जीवित रहा.ये एक दुर्लभ अंश है जहां हमें एक सटीक गणना मिलती है, अन्यथा अधिकतर स्थानों पर अस्पष्ट संकेत मिलते हैं जैसे कि 'कई मंदिर तोड़े'.
सूफी नूर मोहम्मद कादिरीवेल्लोर (तमिल नाडू)
हज़रत नूर मोहम्मद कादिरी अपने समय में एक विशेष व्यक्ति माना जाता था. वो बहुत से मंदिरों के विनाश का कारण बना. इन में से कई तो सदा के लिए नष्ट हो गए. उसने अपने दफनाने का स्थान एक मंदिर में चुना था. हालाँकि उसे मरे ५०० वर्ष बीत गए हैं किन्तु लोग आज भी उस की प्रशंसा करते हैं.
तारीख - ऐ - कश्मीर
सूफी मीर शमसुद्दीन इराकी (कश्मीर)
बाबा उचाह गनई अपने लिए एक मार्गदर्शक (पीर ऐ कमाल) की इच्छा से मक्का और मदीना की परिक्रमा करने के लिए गया था. उस ने अल्लाह से सहायता के लिए नमाज़ की तो उसे एक अनजान स्वर सुनाई दिया कि पीर ऐ कमाल 'हज़रत शेख' तो कश्मीर में ही है. बाबा कश्मीर आ गया और अचानक उस की दृष्टि एक पूजा स्थल पर पड़ी जो कि हिंदुयों का मंदिर था. उस के होंठों पर एक मुस्कान आ गयी. उस के अनुयाइओन ने मुस्कान ka कारण पूछा तो उस ने कहा कि इन मंदिरों और मूर्तियों का विनाश शेख शमसुद्दीन इराकी के हाथों से होगा और ये मंदिर पूर्ण रूप से वीरान हो जायेंगे. सभी काफिर इस्लाम के पथ पर आ जायेंगे. कुछ ही समय पश्चात शमसुद्दीन कश्मीर पहुँच गया और उसने मंदिरों को तोड़ना आरम्भ कर दिया. शमसुद्दीन कुब्रविय्या सिलसिले का सूफी था और १५०५ में सुलतान फ़तेह शाह के शासन काल में नूर बख्श सिलसिले का सदस्य बन कर कश्मीर आया था.
यदि संत कहे जाने वाले सूफियों का इतना क्रूरतापूर्ण व्यवहार है तो सिपाहियों और सुल्तानों का तो क्या कहना.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें