शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

मनुस्मृति वर्णित विवाह

महर्षि मनु द्वारा वर्णित विवाह पद्दतियां इस प्रकार हैं 
चतुर्णामपि वर्णानां प्रेत्य चेह हिताहितान |
अश्ताविमान्स मासेन सत्रीविवाहान्निबोधत ||
चारों वर्णों के लिए हित तथा अहित करने वाले इन आठ प्रकार के स्त्रियों से होने वाले विवाहों को संक्षेप से जानो, सुनो

ब्राह्मो दैवस्तथैवार्ष: प्राजापत्यस्ताथासुर
गान्धर्वो राक्षसचैव पैशाचश्चाष्टमोअधम: 

ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच - ये आठ प्रकार के विवाह होते हैं

ब्राह्म अथवा स्वयंवर विवाह

आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयं
आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्म: प्रकीर्तित:
कन्या के योग्य सुशील, विद्वान पुरुष का सत्कार करके कन्या को वस्त्रादि से अलंकृत करके उत्तम पुरुष को बुला अर्थात जिसको कन्या ने प्रसन्न भी किया हो उसको कन्या देना - वह 'ब्राह्म' विवाह कहलाता है

दैव विवाह

यज्ञे तु  वितते सम्यगृत्विजे कर्म कुर्वते 
अलं कृत्य सुतादानं दैवं धर्मं प्रचक्षते 

विस्तृत यज्ञ में बड़े बड़े विद्वानों का वरण कर उसमे कर्म करने वाले विद्वान् को वस्त्र आभूषण आदि से कन्या को सुशोभित करके देना 'दैव विवाह' कहा जाता है

विशेष टिपण्णी - ऋत्विक  शब्द का अर्थ प्रसंग के अनुकूल किया जाता है और यहाँ प्रसंग के अनुसार विवाह के लिए आए सभी विद्वानों से है न कि  केवल ब्राह्मणों के लिए

आर्ष विवाह

एकं गोमिथुनं द्वे वा वरादादाय धर्मत:
कन्या प्रदानं विधिवदार्षो धर्म: स उच्यते

जो वर से धर्मानुसार एक गाय बैल का जोड़ा अथवा दो जोड़े लेकर विधि अनुसार कन्या का दान करना है वह आर्ष विवाह कहा जाता है

प्राजापत्य विवाह

सहोभौ चरतां धर्ममिति वाचानुभाष्य च
कन्याप्रदानमभ्यचर्य प्राजापत्यो विधि: स्मृत:

कन्या और वर को, यज्ञशाला में विधि करके सब के सामने 'तुम दोनों मिलके गृहाश्रम के कर्मों को यथावत करो', ऐसा कहकर दोनों की प्रसन्नता पूर्वक पाणिग्रहण होना - वह प्राजापत्य विवाह कहाता है

आसुर विवाह 

ज्ञातिभ्यो द्रविणं दत्त्वा कन्यायै चैव शक्तितः।
कन्याप्रदानं स्वाच्छन्द्यासुरो धर्म उच्यते ।।

वर की जाति वालों और कन्या को यथाशक्ति धन दे कर अपनी इच्छा से अर्थात वर अथवा कन्या की प्रसन्नता और इच्छा की उपेक्षा कर ,के होम आदि विधि कर कन्या देना 'आसुर विवाह' कहलाता है ।

गान्धर्व विवाह 
इच्छयाअन्योन्यसन्योग: कन्यायाश्च यरस्य च।

गान्धर्व: स तू विज्ञेयी मैथुन्य: कामसंभव: ।।
वर और कन्या की इच्छा से दोनों का संयोग होना और अपने मन में यह मान लेना कि हम दोनों स्त्री पुरुष हैं, ऐसा काम से उत्पन्न विवाह 'गान्धर्व विवाह कहलाता है।

राक्षस विवाह 
हत्वा छित्त्वा च भित्त्वा च क्रोशन्तीं रुदतीं गृहात।

प्रसह्य कन्याहरणं राक्षसो विधिरुच्यते।।
हनन छेदन अर्थात कन्या के रोकने वालों का विदारण कर के, रोती, कांपती और भयभीत कन्या का घर से बलात अपहरण करके विवाह करना राक्षस विवाह कहा जाता है।

पिशाच विवाह 
सुप्तां मत्तां प्रमत्तां वा रहो यत्रोपगच्छति ।
स पापिष्ठो विवाहानां पैशाचश्चाष्टमोअधम: ।।
जो सोती, पागल हुई अथवा नशे में उन्मत्त हुई कन्या को एकांत पाकर दूषित कर देना है, यह सब विवाहों में नीच से नीच विवाह 'पिशाच विवाह' कहा जाता है।

प्रथम चार विवाह उत्तम हैं 

ब्राह्मादिषु विवाहेषु च्तुष् र्वेवानुपूर्वशः।
ब्रह्मवर्चस्विनः पुत्रा जायन्ते शिष्टसंमता ॥
ब्रह्म, दैव, आर्ष तथा प्राजापत्य ; इन चार विवाहों में पाणिग्रहण किए हुए स्त्री पुरुषों से जो सन्तान उत्पन्न होती है वह वेदादि विद्या से तेजस्वी, आप्त पुरुषों के संगति से अत्युत्त्म होती है।

रूपसत्तवोवुणोपेता धनवन्तो यशस्विनः।
पर्याप्तभोगा धर्मिष्ठा जीवन्ति च शतं समाः॥
वे सन्तानें सुन्दर रूप, बल - पराक्रम, शुद्ध बुद्धि आदि उत्तम गुणों से युक्त, बहुधन युक्त, कीर्तिमान और पूर्ण भोग के भोक्ता धर्मात्मा हो कर सौ वर्ष तक जीते हैं।

अन्य चार विवाह अधम अथवा निंदनीय हैं 
इतरेषु तु शिष्टेषु नृशंसानृतवादिनः।
जायन्ते दुर्विवाहेषु ब्रह्मधर्मद्विषः सुताः॥
उपरोक्त चार विवाहों से इतर जो अन्य चार - आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच विवाह हैं, इन चार दुष्ट विवाहों से उत्पन्न हुए सन्तान निन्दित कर्मकर्ता, मिथ्यावादी, वेद धर्म के द्वेषी अत्यन्त नीच स्वभाववाले होते हैं ।

सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

बानू नादिर से धोखा

जून, सन ६२५
अरब के रेगिस्तानी क्षेत्र में इस्लाम नामक सम्प्रदाय पनप रहा था. इस्लाम का जन्मदाता मोहम्मद, मक्का से पलायन के पश्चात, अभी मदीना में रहता था और मक्का नगर में स्थित काबा मंदिर में अभी भी विभिन्न देवी देवताओं की मूर्तियों की अराधना की जाती थी. 
इन्हीं दिनों मोहम्मद ने अपने ४० साथियों को एक कबीले को इस्लाम अपनाने के लिए भेजा. इस काबिले के मुखिया ने इस्लाम ठुकराते हुए, सभी मुसलामानों की हत्या कर दी. आमीर बिन उमैया नामक एक मुसलमान जो अपने ऊंठों को चराने गया था, इस हमले से बच गया. वो जब मोहम्मद के पास लौट रहा था तो उसकी बानू आमिर  नामक कबीले के दो व्यक्तियों से भेंट हुई. तीनों ने छाया में कुछ समय विश्राम किया. जब दोनों व्यक्ति सो रहे थे तो आमीर बिन उमैया ने उन्हें काट दिया. उसने अपनी ओर से तो मुसलामानों की हत्या का प्रतिशोध लिया था किन्तु इससे मोहम्मद के लिए एक नया संकट उठ खड़ा हुआ. उन दोनों की मोहम्मद से मैत्री संधि थी इसलिए संधि का उल्लंघन करने की क्षतिपूर्ति के लिए मोहम्मद को दंड राशि देनी पड़ी.



मोहम्मद ने निर्णय किया कि निकटवर्ती यहूदी बस्ती बानू नदीर से भी दंड राशि का एक भाग लिया जाए क्योंकि उनकी भी बानू आमिर से मैत्रीसंधि थी. ये विचार कर वो अपने साथियों सहित, बानू नदीर के प्रमुख नागरिकों से मिला और उनके समक्ष अपना निर्णय रखा. यहूदियों ने आदर सहित मोहम्मद को सुना और उससे सहमती व्यक्त करते हुए सहायता का आश्वासन दिया. कुछ समय की प्रतीक्षा के उपरान्त मोहम्मद अचानक उठा और अपने साथियों को, जिनमें उमर, अली और अबू बकर भी सम्मिलित थे, को उसके लौटने की प्रतीक्षा के लिए कह कर वहाँ से चल पड़ा. जब एक लम्बी प्रतीक्षा के पश्चात भी मोहम्मद नहीं लौटा तो उसके साथी परेशान से हो कर उठे और मदीना की ओर चल पड़े. उन्होंने पाया कि मोहम्मद सीधा मदीना में बनी मस्जिद में लौटा था. उनके पूछने पर मोहम्मद ने बताया कि यहूदी मोहम्मद के ऊपर छत से भारी पत्थर फेंक कर उसे मारने की योजना बना रहे थे, इसलिए वो वहां से चला आया था. इस योजना की सूचना उसे अल्लाह से मिली थी.
कारण कुछ भी रहा हो, मोहम्मद ने निर्णय किया कि बानू नदीर को मदीना के निकट नहीं रहने दिया जाएगा. उसका ये सन्देश लेकर मोहम्मद बिन मसलमा (कवि काब का हत्यारा) यहूदी बस्ती में पहुंचा:
अल्लाह के नबी का ये आदेश है, तुम सब दस दिन के भीतर, इस धरती को छोड़ कर चले जाओगे. उसके पश्चात जो भी यहाँ हुआ, उसे मार दिया जाएगा.
इस घोषणा से आश्चर्यचकित हुए यहूदियों ने मोहम्मद से कहा,'ऐ मोहम्मद! हम तो ये कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि तुम अथवा ऑस कबीले का कोई भी व्यक्ति, जो कि हमारे मित्र हैं, इस प्रकार का सन्देश लाने के लिए दूत बनेगा'. मोहम्मद ने रूखा सा उत्तर दिया,'अब दिल बदल गए हैं'.
अब्दुल्लाह बिन उबे ने बानू नदीर को अपने एवं अपने मित्र कबीलों के सहयोग का आश्वासन दिया. इस आश्वासन से संतुष्ट, बानू नदीर ने मोहम्मद को सन्देश भेजा कि: 'हम अपनी मात्रभूमि छोड़ कर नहीं जायेंगे; तुम चाहे आक्रमण कर दो'. ये उत्तर सुनते ही मोहम्मद प्रसन्नता से चिल्ला उठा:
अल्लाहु अकबर! यहूदी लड़ना चाहते हैं ! अल्लाहु अकबर!
उसके साथियों ने भी तकबीर को दोहराया जिससे कि पूरी मस्जिद में ये शब्द गूंजने लगे. मुसलामानों ने अपना दल बल एकत्रित किया और 'विद्रोही' कबीले को सबक सिखाने के लिए चल पड़े. अली ने दल का नेतृत्त्व किया. बानू नदीर के निवासियों ने पत्थरों एवं बाणों की सहायता से आक्रान्ताओं को दूरी पर रोके रखा. अब्दुल्लाह बिन उबे, उनके लिए सहायता एकत्रित नहीं कर पाया और न ही किसी अन्य दल ने उनकी सहायता की. एक अन्य निकटवर्ती यहूदी बस्ती 'बानू कुरैज़ा' ने भी सहायता नहीं की (अपने इस निर्णय के लिए कुरैज़ा को, मोहम्मद की निर्दयता का, भारी मूल्य चुकाना पड़ा था). किसी ओर से सहायता न मिलने पर भी बानू नदीर वीरता से डटे रहे. मोहम्मद अपना धैर्य खो रहा था, इसलिए उसने एक ऐसा कृत्य किया जो अरब समाज में (इस्लाम से पहले) नीति विरुद्ध माना जाता था. उसने बनू नदीर के खजूर के वृक्षों को काट दिया और जो अधिक फल देने वाले थे, उनकी जड़ों को जला दिया. 
जैसा कि अपेक्षित था, यहूदी अपनी जीविका को नष्ट होते देख कर दुखी हो गए और मोहम्मद से कहने लगे:'ओ मोहम्मद! तुम तो कहा करते थे कि कभी अन्याय मत करो और जो करे उसकी निंदा करो. अब हमारे वृक्षों को क्यों नष्ट करते हो'.
निरीह यहूदियों के घेराव को दो तीन सप्ताह हो चुके थे. कहीं से सहायता न पाकर उन्होंने आत्मसमर्पण का निर्णय किया. मोहम्मद ने इसे स्वीकार कर लिया. मोहम्मद ने नियम रखा कि यहूदी अपने अस्त्र शस्त्र नहीं ले जायेंगे. मरता क्या न करता, यहूदी अपने सामान को ऊंठों पर लाद कर सीरिया की ओर जाने वाली सड़क पर वहाँ से चल पड़े. इस्लाम का विस्तार करने के लिए मोहम्मद ने कहा कि जो मुसलमान बन जाएगा, उसे अपनी संपत्ति छोड़नी नहीं पड़ेगी. उनमें से दो यहूदी, इस लोभ में मुसलमान बन गए. अन्य सभी अपने मुखियाओं के साथ सीरिया की ओर चल पड़े, जिन में से कुछ हुआए और किनाना के नेतृत्त्व में खैबर की ओर चले गए (जहां कुछ वर्ष उपरान्त, उन पर, मोहम्मद और मुसलामानों के आतंक की पुनरावृति होगी).
इस घटना से जो लूट का माल मुसलामानों के हाथ लगा, उसमें ३४० खड़ग (तलवारें) एवं बहुत से कवच सम्मिलित थे. परन्तु इन सबसे अधिक महत्वपूर्ण थी वो उपजाऊ भूमि जो मुसलामानों के हाथ लग गई थी. इसके लिए तुरंत, अल्लाह की ओर से, कुरान का एक नया अध्याय मोहम्मद में उतरा. ये है कुरआन का अध्याय ५९. इसका शीर्षक है 'अल हश्र'. इस अध्याय के अनुसार न केवल खजूर के वृक्षों का विनाश करना 'अल्लाह की इच्छा' थी अपितु मोहम्मद ने इस माल को अपनी इच्छानुसार बांटना था क्योंकि इसके लिए लड़ना नहीं पड़ा था. इस प्रकार की लूट को 'अन्फाल' नहीं कहा जाता, इसे 'फाए' कहा जाता है. अध्याय ५९, आयत ५-८:
तुमने जो खजूर के  वृक्ष काटे या उन्हें उनकी जड़ों पर खड़ा छोड़ दिया तो यह अल्लाह की मर्ज़ी थी, ताकि  (मुसलामानों को दिक्कत न हो) और इसलिए कि अल्लाह न मानने वालों को रुलाये  - (तो) जो माल अल्लाह ने अपने नबी को उन लोगों से लड़े बिना दिला दिया उसमें तुम्हारा हक़ नहीं क्योंकि तुमने उसके लिए कुछ दौड़ धूप तो की ही नहीं, न तो घोड़े दौड़ाये और न ही ऊंट, मगर अल्लाह अपने रुसूलों को जिस पर चाहता है कब्ज़ा फरमाता है और अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर है. - अल्लाह ने जो माल उस बस्ती से काबिज़ किया है, वो अल्लाह और उसके महान रसूल के लिए लिया है, और उसके सगेवालों, अनाथों और गरीबों के लिए है, ताकि ये (माल), तुम में जो मालदार हैं, उन्हीं के पास न रह जाए  - नबी जिस तरह इसे बांटे, उसे अपना लो और उसी से तसल्ली करो.और अल्लाह का डर रखो। निश्चय ही अल्लाह की यातना बहुत कठोर है।
इस लूट का एक भाग मोहम्मद और उसके परिवार के लिए रखा गया. शेष में से अधिकतर मुहाजिरों (जो मोहम्मद के साथ मक्का से पलायन कर के आये थे) को दिया गया.
इस जीत से मोहम्मद ने एक और यहूदी बस्ती को खदेड़ दिया था. यहूदी, मोहम्मद से असंतुष्ट मदीना वासियों से मिल कर मोहम्मद के लिए एक समस्या बन सकते थे.


शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

मोहम्मद द्वारा राजनैतिक हत्याएं

काब बिन अशरफ 

सन ६२४

इस वर्ष मोहम्मद और मुसलामानों ने कोई विशेष लड़ाई नहीं की थी किन्तु जुलाई के महीने में मोहम्मद ने एक और बर्बरतापूर्ण और नीच कृत्य किया था, जिस प्रकार के कृत्यों से मोहम्मद की जीवन गाथा भरी पड़ी है.
 'काब बिन अशरफ' जो एक कवि था, मदीना के निकट ही निवास करता था. बद्र की लड़ाई के उपरान्त जब मोहम्मद ने जायेद और अब्दुल्लाह  को अपने जीतने की सूचना देने के लिए मदीना भेजा था तो वो सूचना पाने वालों में 'काब' और उसकी माता भी थे. अपनी माता की भाँती, काब भी यहूदी मत का अनुयाई था. इस्लाम के प्रारम्भिक दिनों में मोहम्मद यहूदियों को लुभाने के लिए जेरुसलेम की और मुंह कर के नमाज़ करता था. इन दिनों काब भी मोहम्मद के गिरोह के साथ हुआ करता था. किन्तु जब मोहम्मद ने क़िबला (नमाज़ की दिशा) को जेरुसलेम के स्थान पर काबा मंदिर की और कर दिया तो काब उन से पृथक हो गया था. काबा के मुख्य मूर्तिपूजकों की हत्या की सूचना सुन कर 'काब' को इस पर विश्वास नहीं हुआ. उसने आश्चर्य व्यक्त किया,"क्या ये जो कह रहे हैं वो सत्य है? क्या मोहम्मद ने उन सभी की हत्या कर दी है, जिनके नाम ये ले रहे हैं? यदि ये सत्य है तो जीवित रहने से मर जाना श्रेयस्कर होगा क्योंकि ये तो इस क्षेत्र के मुख्या व्यक्ति थे".
तत्पश्चात काब मक्का चला गया और वहां के निवासियों के साथ इन हत्याओं पर शोक  व्यक्त किया. वहाँ उसने दिवंगत वीरों की श्रद्धांजलि में कुछ कवितायेँ भी रचीं. कुछ इस्लामी इतिहासकारों का कथन है कि काब ने एक मुसलमान महिला के विषय में एक अभद्र कविता रची थी जिससे मोहम्मद उस पर क्रोधित था.



मोहम्मद को चिंता होने लगी कि यदि इस प्रभावशाली व्यक्ति को इस शैली से अपने विचार प्रकट करने से रोका नहीं गया तो उसका नेतृत्त्व प्रभावी नहीं रहेगा. मोहम्मद ने अस्मा नामक कवयित्री की हत्या करवाने के लिए भी किसी व्यक्ति विशेष को निर्देश नहीं दिए थे, उसी शैली में, किसी एक को संबोधित न करते हुए मोहम्मद ने उच्च स्वर में कहा,
या अल्लाह! अल अशरफ के बेटे से, जैसे भी हो, मुझे निजात दिलायो. वो मेरा खुला विरोधी है.
तत्पश्चात उसने अपने मुसलामानों से संबोधित होते हुए पूछा: 
कौन मुझे अल अशरफ के बेटे से मुक्ति दिलाएगा. वो मुझे झल्ला रहा है.
ये सुनते ही मोहम्मद बिन मसलमा ने प्रतिक्रिया दी: मैं ये कार्य करूंगा. ऐ अल्लाह के पैगम्बर! मैं उसकी हत्या कर दूंगा.
मोहम्मद बिन मसलमा ने निश्चय तो कर लिया किन्तु तीन दिन तक उसे हत्या का अवसर नहीं मिला. जब उसे मोहम्मद ने बुलवाया तो उसने मोहम्मद से कहा कि हत्या करने के लिए उसने एक योजना बनाई है. इस योजना के अंतर्गत वो काब के पास जा कर, उसे कपट से मारने के लिए, उससे मित्रतापूर्ण व्यवहार करेगा और ऐसा प्रपंच करेगा कि वो पैगम्बर से अप्रसन्न है. मोहम्मद ने उससे कहा:
जो कहना चाहो कह देना. तुम्हें खुली छूट है.
मोहम्मद ने उसे 'बानू ऑस' कबीले के मुखिया साद बिन मोआध की सहायता लेने के लिए भी कहा. साद बिन मोआध ने अपने कबीले के चार युवक उसकी सहायता के लिए उसके साथ भेज दिए. अपनी धूर्तता को कार्यान्वित करने के लिए उन्होंने काब के मुंह बोले भाई अबू नैला को अपने साथ मिला लिया और उसे काब के पास भेजा.
अबू नैला ने काब का विश्वास जीतने के लिए उससे कहा कि वो मुसलामानों के मदीना में बसने से खिन्न है क्योंकि मोहम्मद के कारण सभी अरबवासी मदीना के शत्रु हो गए हैं. इससे मदीनावासियों का कहीं भी जाना सुरक्षित नहीं है. काब ने उस पर विश्वास कर लिया. अबू नैला को जब ये आभास हो गया कि उसने काब का विश्वास जीत लिया है तो उसने कहा कि वो अपने कुछ साथियों के लिए खाद्य सामग्री ऋण के रूप में लेना चाहता है. जब काब ने सामग्री के लिए किसी प्रत्याभूति (गारंटी) की मांग की तो अबू नैला ने उसे कहा कि वो और उसके मित्र, प्रत्याभूति के रूप में अपने शस्त्र दे देंगे तो काब ने इसे स्वीकार कर लिया. हत्यारों की योजना सफल हो गयी थी क्योंकि अब वो काब के निकट, बिना उसे आशंकित किये, शस्त्र ला सकते थे. लेन देन के लिए साँयकाल तय कर के अबू वहां से मोहम्मद के यहाँ पहुंचा.
साँयकाल सभी हत्यारे मोहम्मद के निवास पर एकत्रित हुए और वहाँ से हत्या के लिए चले. ये एक चांदनी रात थी और मोहम्मद उनके साथ मदीना की सीमा तक आया. यहाँ स्थित मुसलामानों के कब्रिस्तान से जब वो निकले तो मोहम्मद ने उन्हें शुभ कामना देते हुए कहा: 
जाओ!अल्लाह तुम्हारी मदद करेगा!
काब का घर मदीना नगर से लगभग चार कोस दूर एक यहूदी बस्ती के निकट था. जब वो अबू के निवास पर पहुंचे तो वो विश्राम करने लगा था. अबू नैला ने जब उसे पुकारा तो काब की नवविवाहिता पत्नी ने रोकते हुए बाहर न जाने का आग्रह किया. काब ने अपना वस्त्र अपनी पत्नी के हाथ से खींचते हुए, विनोद भरे स्वर में कहा,"ये तो मेरा भाई अबू नैला है, यदि किसी योद्धा को कोई पुकारे वो तो तब भी जाता है". बाहर आ कर, आगंतुकों के हाथों में शस्त्र देख कर उसे अनिष्ट की आशंका नहीं हुई क्योंकि वो तो झांसे में आ चुका था. हत्यारे उससे इधर उधर की बातें करते हुए थोड़ा दूर ले गए. राह में अबू नैला उसके बालों में हाथ फेरते हुए बोला कि उसके बालों की सुगंध आकर्षक है. काब ने उत्तर में कहा कि ये तो उसकी पत्नी की सुगंध है. कपटी अबू ने पुनः हाथ फेरा तो उसके बालों को पकड़ लिया और उसे भूमि पर पटक कर चिल्लाया ! 
मारो इसे! अल्लाह के दुश्मन को मार दो! 
सभी हत्यारों ने अपने खड़ग से काब पर प्रहार किया. काब, मोहम्मद बिन मसलमा के निकट था इसलिए उसकी लम्बी खड़ग कारगर नहीं हो रही थी. उसने अपना छुरा निकाला और उसे पेट से गुप्तांगों तक काट दिया. उसकी हृदयविदारक चीख सुन कर सभी निकटवर्ती यहूदी उस और भागे किन्तु तब तक हत्यारे मृत कवि का सर काट कर ले गए थे.
भागते हुए जब वो कब्रिस्तान तक पहुंचे तो उन्होंने विख्यात इस्लामी तकबीर बोली :
अल्लाहु अकबर! 
इसे सुनते ही मोहम्मद समझ गया कि षड्यंत्र सफल हो गया है. वो उन्हें मस्जिद के द्वार पर ही मिल गया और उन्हें बोला: 
खुशामदीद! तुम्हारे रुख से फतह की रौशनी झलक रही है.
हत्यारों ने उत्तर में कहा: 'ये तो आप की फतह है' और काब का सर मोहम्मद के पैरों में दाल दिया. मोहम्मद ने, एक हत्यारा जो हमले में अपने ही साथियों की खड़ग से घायल हो गया था, सांत्वना देते हुए कहा कि यह फतह तो 'अल्लाह का करम' है.


ये घटना लगभग १४०० वर्ष पुरानी है किन्तु उस समय भी मोहम्मद के इस सम्प्रदाय में कितनी क्रूरता और कट्टरता थी ये अनुमान लगाया जा सकता है. 
सन १९४६ में भारत के बंगाल राज्य में मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों नोआखाली एवं टिप्पेराह में जब दंगे हुए थे तो मुसलामानों ने हिन्दुओं के नेता राजेन्द्र लाल रॉय का सर काट कर अपने नेता गुलाम सरोवर (जो कि मुस्लिम लीग का भूतपूर्व विधायक था) को एक चांदी की तश्तरी में सजा कर भेंट किया था. और उनकी दो युवा पुत्रियों को लूट के माल के रूप में गुलाम सरोवर के दो गुंडों को भेंट किया गया था.


स्त्रोत : इब्न इस्हाक़ कृत 'सीरत रसूल अल्लाह', विलियम मुइर कृत 'लाइफ ऑफ मोहम्मद' एवं अल तबरी कृत 'मोहम्मद की जीवनी'

गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

बानू कुनैका पर मोहम्मद का अत्याचार

बद्र की लड़ाई के उपरान्त, मोहम्मद मदीना में अधिक प्रभावशाली हो गया था. मोहम्मद ने इस लड़ाई को राजनैतिक विजय के स्थान पर एक साम्प्रदायिक विजय के रूप में प्रस्तुत करना आरम्भ कर दिया था. उसने इस 'फतह' को 'अल्लाह के फैसले' के रूप में स्थापित कर दिया था. जिसका अर्थ था की ये 'फतह' इस्लाम की फतह है और काफिरों को अल्लाह ने परास्त कर दिया था. इसका अर्थ था की आज नहीं तो कल मदीना के काफिरों पर भी अल्लाह का फैसला हो सकता था 'क्योंकि अल्लाह तो मोम्मिनों के साथ है'. इन छिपी हुई धमकियों को मदीनावासी, जो मोहम्मद से प्रभावित नहीं थे, भली भाँती समझ गए थे. इन सब का मुखिया 'अब्दुल्लाह बिन उबे' था जिसका मदीना में इतना प्रभाव था कि  जब मोहम्मद मक्का से पलायन कर के मदीनावासियों की शरण में आया था तो उसे अब्दुल्लाह बिन उबे से आदरपूर्वक व्यवहार करने के लिए कहा गया था. इस परामर्श पर मोहम्मद ने भली प्रकार अमल किया था. किन्तु अब स्थिति मोहम्मद के पक्ष में होती जा रही थी क्योंकि मोहम्मद के अनुयायी एक नए उत्साह से भरे थे जबकि उसके अनुयायी असमंजस की स्थिति में थे. अब्दुल्लाह ने उससे कोई वैर भाव नहीं रखा.



यहूदी 

ऐसा नहीं था कि केवल कुछ व्यक्ति ही मोहम्मद से प्रभावित नहीं थे. अभी भी बहुत से ऐसे कबीले थे जो मोहम्मद अथवा मुसलामानों से प्रभावित नहीं थे. मोहम्मद ने आरम्भ से ही अपने सम्प्रदाय को यहूदियों के मत एवं शैली के अनुरूप रखा था. उसे आशा थी कि इस से वो मोहम्मद के अनुयायी बन जायेंगे. इसी नीति के अंतर्गत, मोहम्मद यहूदी कबीलों को आदर देता आया था. मक्कावासियों की भाँती, जो अपनी परम्परागत शैली के अनुरूप काबा मंदिर में मूर्ती पूजा करते थे, यहूदी, जो मूर्ती पूजा नहीं करते थे, भी मोहम्मद के नए सम्प्रदाय के प्रति उदासीन थे. अब मोहम्मद को यहूदी कबीले अपनी राह का काँटा लगने लगे थे. मोहम्मद की उनको कुचलने की शक्ति एवं सोच से अनभिज्ञ, यहूदी दबे शब्दों में उसका उपहास किया करते थे. इन कटाक्षों का उपयोग, असंतुष्ट मदीनावासी भी करते थे. उन्हें क्या पता था कि मुसलामानों की कट्टरता न केवल उन्हें मोहम्मद के लिए एक आदर्श गुप्तचर बना देती थी बल्कि वो किसी भी सीमा तक क्रूर हो सकते थे. बद्र में सफल होने के पश्चात मोहम्मद के उत्साह ने उसे क्रूर एवं निर्लज्जतापूर्वक कृत्य करने में सक्षम बना दिया था.

अस्मा की हत्या

मदीना में, इस क्रूरता का प्रथम लक्ष्य बनी थी 'अस्मा बिन्त मरवान' नामक एक महिला. उस काल में कविता लिखना एवं बोलना, अपने भावों को व्यक्त करने के गिने चुने माध्यमों में से एक था और ये महिला एक कावय्त्री थी. उसके परिवार ने अपनी परम्परागत शैली एवं धर्म को नहीं त्यागा था इसलिए इस्लाम में उसकी अरुचि थी. उसने बद्र की लड़ाई के उपरान्त के ऐसे व्यक्ति पर कविता लिखी जो अपने ही प्रियजनों का विद्रोही था और युद्ध में उनके मुखिया का हत्यारा था. अन्यों ने ऐसे व्यक्ति पर विश्वास करके उसे अपना लिया था. शीघ्र ही ये कविता सभी में प्रसारित हो गयी. बद्र की लड़ाई को अभी कुछ ही दिन हुए थे. जब ये कविता मुसलामानों के कानों तक पहुंची तो वो भड़क उठे. उनमें से एक 'ओमीर' नामक नेत्रहीन मुसलमान ने, जो अस्मा के ही कबीले का निवासी था (कुछ सूत्रों के अनुसार, उसका पूर्व पति था), ने ये घोषणा की कि वो उस काव्यत्री का वध कर देगा. 
एक रात, जब अस्मा और उसके बच्चे सो रहे थे, वो चुपके से अस्मा के घर में घुस गया और टटोल टटोल कर अस्मा के दूध पीते बच्चे को उससे छीन कर अपनी खड़ग, पूरे वेग से, अस्मा के वक्षस्थल में उतार दी. प्रहार इतना शक्तिशाली था कि खड़ग उसे चीर कर खाट में जा धंसी थी. 
अगले दिन जब नमाज़ के लिए वो मस्जिद में पहुंचा तो मोहम्मद ने, उससे इस विषय में पूछा 
मोहम्मद - 'ओमीर; क्या तुमने मरवान की बेटी को मार दिया है?'. 
ओमीर - ' हाँ! पर मुझे ये बताओ कि ये कोई चिंता का विषय तो नहीं है?'
मोहम्मद - चिंता की कोई बात नहीं है. उसके लिए तो दो बकरियां भी आपस में नहीं भिड़ेंगी.
इसके उपरान्त, मोहम्मद ने मस्जिद में एकत्रित मुसलामानों को संबोधित करते हुए कहा
मोहम्मद - अगर तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखना चाहते हो जिसने अल्लाह और उसके नबी की मदद की है तो ओमीर को देखो.
उमर -  क्या! अंधे ओमीर को!
मोहम्मद - नहीं! इसे अँधा मत कहो; बल्कि ये तो ओमीर बशीर है. (बशीर अर्थात जो देख सकता है).

ओमीर हत्यारा जब ऊपरी मदीना में स्थित अपने निवास की ओर लौट रहा था तो अस्मा के बेटे अपनी माता के शव को दफना रहे थे. उसे देख कर उन्होंने हत्यारे पर आरोप लगाया कि उसीने उनकी माता का वध किया है. अस्मा ने पूरी निर्लज्जता से इसे न केवल स्वीकार कर लिया अपितु उन बालकों को धमकी देता हुआ बोला कि जिस प्रकार की बातें वो करती थी, यदि किसी ने ऐसा किया तो वो उसके परिवार की भी हत्या कर देगा. इस उग्र धमकी का परिणाम ये हुआ कि मोहम्मद के बढ़ते प्रभाव और उसके चेलों की हिंसक प्रवृति के चलते, अस्मा के परिवार ने ही नहीं, कुछ ही दिनों में सम्पूर्ण कबीला मुसलमान बन गया. इतिहासकारों के अनुसार, रक्त पात से बचने का एक ही उपाय बच जाता था, इस्लाम को अपनाना.

अबू अफाक

इस महिला के पश्चात, जिस कवि की निर्मम हत्या नए सम्प्रदाय इस्लाम के लिए की गयी, वो एक सौ वर्ष से भी अधिक आयु का वृद्ध यहूदी था. अपनी सृजनात्मक कविताओं के द्वारा, अबू अफाक नामक वृद्ध कवि ने कुछ ऐसी कवितायें लिखीं जो मुसलामानों को उचित नहीं लगीं. मोहम्मद ने अपने साथियों से कहा,'कौन मुझे इस कीड़े से मुक्त करवाएगा?' एक नए बने मुसलमान ने, जो अबू अफाक के ही कबीले का था, एक रात, अपने घर के बाहर सोये हुए वृद्ध को अपनी खड़ग से मार डाला. उसकी अंतिम चीख सुन कर निकटवर्ती लोग, जब तक वहां पहुँचते, हत्यारा वहां से भाग चुका था.  

यहूदियों में आतंक

जैसा कि अपेक्षित था, महिला और वृद्ध की निर्मम हत्याओं ने यहूदियों एवं सभी उन नागरिकों के मन में, जो मुसलामानों के प्रति अविश्वास अथवा अरुचि रखते थे, एक आतंक व्याप्त हो गया. 

बानू कुनैका को मोहम्मद की धमकी

मदीना के साथ ही एक यहूदी कबीला था, बानू कुनैका. बानू कुनैका का मुख्य व्यवसाय सोने की शिल्पकारी का था और मदीना से इस कबीले की मैत्री संधि थी. बद्र की हत्याओं के कुछ दिन पश्चात, मोहम्मद बानू कुनैका नामक यहूदी कबीले में गया और वहां के प्रमुख नागरिकों से एक बैठक में कहने लगा:
अल्लाह कसम! तुम सब जानते हो कि मैं अल्लाह का नबी हूँ इसलिए मुसलमान बन जाओ अन्यथा तुम्हारा भी वही हश्र होगा जो कुरैशियों का हुआ है.
यहूदियों ने मुसलमान बनना अस्वीकार कर दिया और मोहम्मद से कहा कि वो अपने पूर्वजों का मत नहीं त्यागेंगे, भले जो कर लो. 
तुरंत 'अल्लाह, की एक नयी आयत मोहम्मद में उतरी. 
अध्याय ३, आयत १३:
तुम्हें पहले ही इशारा मिल चूका है, जब दो गिरोह लड़ने के लिए भिड़े तो उनमें से एक अल्लाह की राह में लड़ रहा था और दूसरा काफिर था. ईमानदारों ने देखा कि काफिर उनसे दोगुणा हैं. अल्लाह उसे ही फतह देता है, जिसे वो चाहता है. समझदारों के लिए ये एक इशारा है.
इस प्रकार, एक भीषण परिणाम की धमकी दे कर मोहम्मद चला गया.
इसके कुछ ही समय उपरान्त मोहम्मद को हिंसा का अवसर मिल गया. एक मुसलमान महिला जब एक शिल्पकार के यहाँ किसी आभूषण लेने के लिए बैठी थी तो एक मूर्ख पडोसी ने उसके घाघरे को, उसकी चोली से सिल दिया. जब वो उठी तो घाघरा भी उठ गया. इस असुविधाजनक स्थिति में वो चिल्लाई तो उसे सुन कर एक मुसलमान वहां पहुंचा. उसे जब पता लगा तो उसने ऐसा करने वाले यहूदी को काट दिया. उस यहूदी के भाइयों ने मुसलमान को मार गिराया. उस मुसलमान के साथियों ने मदीना में जा कर, जो मुसलमान बने थे, उन्हें सहायता के लिए कहा. मैत्री संधि के चलते, मोहम्मद चाहता तो शांतिपूर्ण ढंग से, केवल दोषियों को दण्डित कर अथवा करवा सकता था किन्तु उसने मुसलामानों को एकत्रित किया और कुनैका की ओर चल पड़ा. वो श्वेत ध्वज जो उसने लगभग एक महीना पूर्व बद्र में लहराया था, हम्ज़ा को थमाते हुए आक्रमण करने पहुँच गया. कबीले का निर्माण किसी हमले से रक्षा के लिए ही किया गया था, इसलिए कबीले वाले भीतर सुरक्षित थे.

विश्वासघात की प्रशंसा

मुसलामानों ने कबीले को घेर लिया ताकि उन्हें कोई सहायता न मिल सके. कबीलेवासी आशा कर रहे थे कि अब्दुल्लाह बिन उबे एवं खजराज कबीला, जिन से उनके मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे, उनकी सहायता करेंगे. उनमें से कोई भी इतना साहस न कर पाया और लगभग १५ दिन तक उनका कबीला अकेला पड़ गया. मुसलमान उन्हें चारों ओर से घेरे रहे. अपने को असहाय स्थिति में पाकर, कुनैका कबीले ने आत्म समर्पण कर दिया. एक एक कर, जब वे बाहर निकले तो उनके हाथ पीछे बाँध कर उन्हें काटने के लिए एक ओर खड़ा कर दिया गया. 'अब्दुल्लाह बिन उबे' अपने पुराने साथियों को इस स्थिति में नहीं देख पाया और उसने मोहम्मद से उन्हें छोड़ने का आग्रह किया. मोहम्मद, जो कि कवच पहने हुए था, ने मुंह फेर लिया तो अब्दुल्लाह ने उसकी भुजा थाम कर अपनी बात दोहराई. मोहम्मद ने चिल्ला कर कहा,' मुझे छोड़!'; किन्तु अब्दुल्लाह ने मोहम्मद को नहीं छोड़ा तो मोहम्मद के हाव भाव से क्रोध झलकने लगा. उसने झल्ला कर कहा:'ऐ नीच! मुझे छोड़!' अब्दुल्लाह ने कहा,' नहीं! मैं तुम्हें तब तक नहीं छोडूंगा जब तक तुम मेरे मित्रों को नहीं छोड़ोगे. मोहम्मद, क्या तुम उन सब को एक ही दिन में काट दोगे जिन्होंने मुझे हदैक और बोआथ की लड़ाइयों में सभी शत्रुओं से सुरक्षा दी. उन लड़ाइयों में ३०० सशत्र कवचधारी और ४०० शास्त्रहीनों नें मेरी रक्षा की थी. मेरा मत है कि समय के साथ अनिष्ट किसी पर भी हो सकता है.'
मोहम्मद अभी इतना शक्तिशाली नहीं हुआ था कि अब्दुल्लाह के कहे को ठुकरा देता. अंततः उसने अपने साथियों से कहा 'इन्हें जाने दो! अल्लाह इन पर अपना कहर बरसायेगा, और इस (अब्दुल्लाह) पर भी!'. मोहम्मद ने उन्हें मारा तो नहीं किन्तु उन्हें अपना कबीला छोड़ कर जाने का आदेश दे दिया और उनकी चल अचल संपत्ति पर मुसलामानों ने अधिकार कर लिया. इस लूट के माल (अन्फाल) में, यहूदियों के स्वर्ण शिल्पकारी के उपकरण, उनके कवच एवं शास्त्र सम्मिलित थे. इनमें से २०%, मोहम्मद के लिए था. इसके अतिरिक्त मोहम्मद ने अपने लिए तीन धनुष, तीन खड़ग और दो कवच अपने कब्ज़े में ले लिए थे.
कुनिकावासी अपनी जान बचा कर एक निकटवर्ती यहूदी काबिले 'वादी अल कोरा' पहुंचे और वहां के यहूदियों की सहायता से उन्हें सीरिया की सीमा तक जाने के लिए सवारी का प्रबंध करने में सहायता मिली.
मोहम्मद की, इब्न इस्हाक़ कृत सर्वप्रथम जीवनी में इस घटना के वर्णन से स्पष्ट होता है कि जिस समय अब्दुल्लाह अपने पुराने सहयोगियों का जीवन बचाने के लिए मोहम्मद से विवाद कर रहा था, उस समय 'बानू ऑस' काबिले का 'उबैदा बिन अल समित', जो स्वयं को कुनैकावासियों का मित्र बताता था, ने कुनैकावासियों की मैत्री त्याग कर मोहम्मद से मैत्री कर ली थी. वो मोहम्मद के निकट आया और बोला,"ऐ अल्लाह के पैगम्बर!मैं अल्लाह को, उसके पैगम्बर को और मुसलामानों को अपना मित्र मानता हूँ और काफिरों से अपनी संधि का त्याग करता हूँ".
इस समय अब्दुल्लाह के संबंध में कुरान की नई पंक्तियाँ प्रकट हुई. अध्याय ५, आयत ५१:
ऐ मुसलामानों! यहूदियों और ईसाईयों को अपना औलिया (मित्र, संरक्षक, सहायक इत्यादि) मत बनाओ. वो तो केवल एक दुसरे के परस्पर औलिया हैं. और यदि तुम में से किसी ने उन्हें अपना मित्र बनाया तो वो भी उनके जैसा ही माना जाएगा. अल्लाह जालिमों (अन्य भगवान् की पूजा करने वालों और अन्याय करने वालों) का साथ नहीं देता.
जिस समय अब्दुल्लाह बिन उबे ने कहा कि 'अनिष्ट किसी पर भी हो सकता है' तो कुरान की आयत प्रकट हुई. अध्याय ५, आयत ५२-५३:
और तुम उन्हें देखो जिनके दिलों में (दोगलेपन की) बीमारी है, वो अपने मित्रों को बचाने के लिए कहते हैं: " हमें भय है कि अनिष्ट किसी पर भी हो सकता है." जब अल्लाह अपनी इच्छा से हमें फतह देगा उस समय वो अपने राज़ छिपाने के कारण शर्मिंदा होंगे...... और जो ईमानदार (मुसलमान) हैं, वो कहेंगे:"क्या ये वही हैं जो अल्लाह की कसम खा कर कहते थे कि हम मुसलामानों के साथ हैं?" उन्होंने जो किया व्यर्थ जाएगा और वो पराजित होंगे.
उबैदा, जिसने अपने पुराने मित्रों का इस गंभीर समय में विश्वासघात करते हुए, मोहम्मद से मित्रता कर ली थी, की प्रशंसा करते हुए कुरान में नई आयत आई.अध्याय ५, आयत ५६:
और जिस शख्स ने अल्लाह और उसके रसूल  और मुसलामानों को अपना औलिया बनाया तो (अल्लाह के गिरोह में आ गया और) इसमें शक नहीं कि अल्लाह का गिरोह (ग़ालिब) रहता है.
जब मोहम्मद, उबैदा के विश्वासघात की प्रशंसा कर रहा था, उस समय अब्दुल्लाह बिन उबे ने उबैदा की भर्त्सना करते हुए उसे कहा,'क्या तुम इन लोगों का साथ छोड़ दोगे जिन्होंने न जाने कितने युद्धों में तुम्हारा साथ दिया है और हमारी सहायता करते हुए अपना रक्त बहाया है?'. उबैदा ने कहा: 'इस्लाम ऐसी किसी संधि को नहीं मानता' और अपना पल्ला झाड़ लिया.
 इस घटनाक्रम से यहूदियों को मोहम्मद की मंशा समझ में आ गयी थी. वो जानते थे कि यदि मोहम्मद चाहता तो इस घटना को तुरंत समाप्त किया जा सकता था. दोनों और से एक एक व्यक्ति मारा गया था जिस से किसी एक पक्ष को अधिक हानि नहीं हुई थी. एक महिला से किये एक अभद्र व्यवहार से उठे विवाद को इतना विशाल रूप दे दिया गया था कि दोनों समुदायों में शत्रुता हो गयी थी.

सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

बद्र की लड़ाई - २

 बद्र की लड़ाई -१ से आगे

भीषण लड़ाई

मुसलमान झरने की सुरक्षा कर रहे थे. कई कुरैशियों ने, जो प्यास से त्रस्त थे, ने  प्रण किया कि वो जल ग्रहण करने के उपरान्त जल स्त्रोत को नष्ट कर देंगे अथवा प्रयत्न में वीरगति को प्राप्त होंगे. उनमें से केवल 'अल अस्वाद' ही झरने तक पहुँच सका, अन्य सभी पहले ही मार दिए गए. 'अल अस्वाद' अभी जल तक पहुँच ही पाया था कि हम्ज़ा की खड़ग ने उसकी एक टांग को लगभग काट ही दिया. 'अल अस्वाद' ने अपनी शक्ति समेत कर जल पिया और दूसरी टांग से स्त्रोत को नष्ट कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी की ही थी कि हम्ज़ा ने खड़ग से उसकी हत्या कर दी.

तीन कुरैशियों की चुनौती

इस्लाम से पूर्व, अरब सभ्यता में वीरों को ललकार कर युद्ध किया जाता था. इसी परंपरा के अनुरूप, मक्कावासी शीबा, उत्बा और उत्बा के बेटे 'अल वालिद' ने, कोई भी तीन योद्धाओं को लड़ने की चुनौती दी. तीन मदीनावासी आगे बढे तो मोहम्मद, जो जीत का श्रेय मुसलामानों के सर रखना चाहता था, ने उन्हें लौटने का संकेत दिया और अपने साथियों से कहा: 'ऐ हाशिम की संतानों! आगे बढ़ो और लड़ो.' ये सुन कर मोहम्मद का चाचा हम्ज़ा, और मोहम्मद के चाचा के बेटे उबैदा और अली आगे बढ़े.


उत्बा ने अपने बेटे को लड़ने का आदेश दिया तो अली उस से लड़ने के लिए आगे बाधा. एक संक्षिप्त सी लड़ाई में 'अल वालिद' अली की खड़ग से मर गया. अपने बेटे की मौत का प्रतिशोध लेने जब उत्बा आगे बढ़ा तो उससे युद्ध के लिए हम्ज़ा आगे आया. हम्ज़ा ने उत्बा को मार दिया. इसके पश्चात, दो वृद्ध योद्धा,शीबा और उबैदा आमने सामने हुए. ये लड़ाई लम्बी चली किन्तु अंततः, उबैदा ने शीबा की जांघ को घायल कर दिया जिससे की वो भूमि पर गिर पड़ा. फिर हम्ज़ा और अली ने भी उस पर अपनी खड़ग से प्रहार कर दिए. इन घावों के चलते, शीबा, कुछ दिनों तक ही जीवित रहा पाया था.

दोनों दलों में घमासान

अपने तीन योद्धाओं की विजय से मुसलमान उत्साहित हो कर आगे बढ़े. कुरैशियों में निराशा की लहर थी और वो अनमने से लड़ने लगे. अब दोनों गुटों में साधारण लड़ाई आरम्भ हो गयी. मोहम्मद ने इस लड़ाई में क्या भागीदारी की, ये स्पष्ट नहीं है. कुछ मुसलमान लेखकों के अनुसार वो अपनी खड़ग लिए अपने दल के साथ था. जब कि कुछ अन्य परम्परागत स्रोतों के अनुसार, वो अपने साथियों को ये कहते हुए उत्साहित कर रहा था कि उनके साथ अल्लाह की शक्ति है. वो निरंतर ये कह कर प्रोत्साहन दे रहा था कि जो इस लड़ाई में मारे जायेंगे वो 'जन्नत' में जायेंगे. एक 'हदीस' के अनुसार, एक सोलह वर्षीय तरुण 'ओमीर' खजूरें खा रहा था. मोहम्मद की ये बातें सुन कर  उसने अपने हाथ में पकड़ी हुई खजूरों को फेंकते हुए कहा - 'क्या ये खजूरें मुझे 'जन्नत' में जाने से रोक रही हैं. मैं इन्हें अपने मुंह से नहीं लगाऊंगा जब तक कि मैं अपने अल्लाह को नहीं मिलता!'. ये कह कर वो भी लड़ने लगा और शीघ्र ही मारा गया.

कुरैशियों में हताशा

इस दिन तीव्र वायु प्रवाहित हो रही थी. जब एक तीव्र झोंका आया तो मोहम्मद बोला 'ये जिब्रील है जो हज़ार फरिश्तों के साथ दुश्मन  पर आक्रमण कर रहा है'. अगले झोंके पर उसने कहा कि अब माइकल  हज़ार फरिश्तों  के साथ मुसलामानों की मदद कर रहा है. एक और झोंके पर उसने कहा कि यह  सेरफिल  है जो हज़ार फरिश्तों  के साथ आया है.
(ये सभी नाम ईसाईयों की बाईबल की कहानियों में अंकित फरिश्तों के हैं)
मोहम्मद ने नीचे झुक कर कुछ धुल और कंकड़ उठाये और उन्हें शत्रुओं पर फेंकते हुए बोला 'वे अस्त व्यस्त हो जाएँ!' तीन सौ उत्साहित मुसलामानों ने उनका मनोबल तोड़ दिया. कुरैशियों की अधिक संख्या और उनके पैरों तले की दलदली भूमि ने उन्हें पीछे हटने पर विवश कर दिया. ये देख मुसलमान और उत्साहित हो गए और उन्होंने शत्रुओं को मारना तथा बंधक बनाना आरम्भ कर दिया. कुरैशी अपना सब कुछ छोड़ भाग खड़े हुए. उनचास मारे गए और इतने ही बंधक बना लिए गए. मुसलमानों की और केवल १४ ही मरे जिनमें से आठ मदीना वासी थे और छः मुहाजिर थे.

अबू जहल की हत्या

मक्का के कई प्रमुख व्यक्ति और मोहम्मद के विरोधी मारे गए थे. मोआध के एक वार से अबू जहल की टांग के दो भाग हो गए और वो गिर पड़ा. ये देख अबू जहल के बेटे इक्रिमा ने मोआध के कंधे पर वार किया, जिस से उसकी एक भुजा लगभग कट गयी और कंधे के साथ झूलने लगी. इस से मोआध को समस्या होने लगी तो उसने अपना पाँव अपनी भुजा पर रख कर उसे उखाड़ दिया. अबू जहल  अभी जीवित था जब अब्दुल्लाह ने उसे देख लिया. उसने अबू जहल का सर धड़ से काट दिया और कटे हुए सर को मोहम्मद के समक्ष प्रस्तुत किया. ये देख कर मोहम्मद ने कहा:
अल्लाह के दुश्मन का सर!
या इलाहा इल अल्लाह! (अल्लाह के अतिरिक्त कोई और भगवान् नहीं है)
इस पर अब्दुल्लाह ने कटे हुए सर को मोहम्मद के पैरों में रखते हुए कहा 'ला इलाहा इल अल्लाह!'
मोहम्मद ने चिल्लाते हुए कहा:
ये तोहफा मेरे लिए समस्त अरब के सर्वश्रेष्ठ ऊंट से भी बढ़कर है.
अबुल बख्तारी

जिन दिनों मोहम्मद, अबू तालिब के निवास पर रह रहा था, उन दिनों अबुल बख्तारी ने मोहम्मद की सहायता की थी. इसलिए मोहम्मद ने ये कहा था कि उसे हानि न पहुंचाई जाए. अबुल बख्तारी के ऊंट पर उसके पीछे एक अन्य मक्कावासी बैठा था. जब मुसलमान उनके निकट पहुंचे तो उन्होंने अबुल से कहा कि वो उसे कोई हानि नहीं करेंगे किन्तु उसके पीछे बैठे कुरैशी को नहीं छोड़ेंगे. अबुल ने कहा कि मैं अपने साथी को नहीं सौंप सकता. ऐसा करने पर मक्का की महिलायें मेरा उपहास करेंगी कि मैं अपनी जान के लिए अपने साथियों को छोड़ आया. उन दोनों को मार दिया गया.

बंधकों की निर्मम हत्या

उम्मैय्या इब्न खालफ और उसका बेटे ने जब देखा कि वो बच नहीं पायेंगे तो उन्होंने अब्दुर रहमान से कहा कि वो उन्हें बंधक बना ले. अब्दुर रहमान ने पुराने संबंधों को ध्यान में रखते हुए, लूट का सामान छोड़ दिया जिसे वो लेजा रहा था, और उन दोनों को बंधक बना लिया. जब वो उन्हें लेकर जा रहा था तो मोहम्मद के हब्शी साथी बिलाल ने उन्हें देख लिया. बिलाल उमैय्या से घृणा करता था क्योंकि जब वो मक्का में दास होता था तो उमैय्या उसके सम्प्रदाय को लेकर बातें बनाया करता था. बिलाल उन्हें देखते हुए चिल्लाया; ये तो काफिरों का मुखिया है, इसे मार दो. यदि ये जीवित रहा तो ये मेरे लिए हार होगी!' इतना सुनना था कि अन्य मुसलामानों ने उन्हें सभी और से घेर लिया और टूट पड़े. दोनों बंधकों के टुकड़े टुकड़े कर दिए गए. इस सम्प्रदाय में बर्बरता आरम्भ से ही थी.
मोहम्मद नौफाल नामक मक्कावासी की मौत के लिए अल्लाह से दुआ मांगने लगा. अली ने उसे दुआ मांगते हुए सुना और बंधकों में नौफाल को ढूंढ निकाला और उसकी हत्या कर दी. मोहम्मद को जब ये सूचना मिली तो उसने उसने हर्षित हो कर तकबीर बोली
अल्लाह हूँ अकबर
माबाद नामक मक्कावासी जब बंदी बना चल रहा था तो उमर ने उसका उपहास करते हुए कहा: अब तो तुम हार गए हो. बंधक ने उत्तर में उन देवियों की सौगंध खाते हुए कहा, जिन्हें स्थानीय मक्का वासी काबा मंदिर में पूजते थे, "अल-लात एवं अल-उज्जा की सौगंध हम हारे नहीं हैं". ये सुनते ही उमर क्रोध में आ गया और बोला 'क्या ये तरीका है बंधक काफिरों का मुसलामानों से बात करने का?' और अपनी खड़ग के एक ही प्रहार से उसका सर काट दिया. 

मृतकों का अपमान

मक्कावासियों के चले जाने के पश्चात, मुसलमान उनका सामान, जो पीछे छूट गया था, लूटने लगे. उनके शवों को एक गड्ढा खोद कर उनमें फेंक दिया गया. मोहम्मद और अबू बकर पास खड़े उन्हें देख रहे थे. मोहम्मद उन्हें देखते हुए, ऊंचे स्वर में उनके नाम लेने लगा:
'उत्बा! शीबा! उमैय्या! अबू जहल! अब तुम्हें पता लगा कि तुम्हारा भगवान् तुम्हें क्या दे सकता है? जो मेरे अल्लाह ने मुझ से कहा था वो तो सच हो गया है!तुम्हारा सर्वनाश हो! तुम ने मुझे, अपने पैगम्बर, को नकारा है! तुम ने मुझे नकारा और अन्यों ने मुझे शरण दी; तुमने मुझ से झगड़ा किया, अन्यों ने मेरा साथ दिया. 
ये सुनकर किसी ने उसे कहा;
ऐ पैगम्बर! क्या तुम मुर्दों से बात कर रहे हो?
मोहम्मद ने उत्तर दिया:
हाँ बेशक!मैं मुर्दों से बात कर रहा हूँ. अब उन्हें पता लग गया होगा कि उनका भगवान् उनके किसी काम नहीं आया.
जब उत्बा के शव को गड्ढे में फेंका तो उसका बेटा अबू हुदैफा ये देख कर दुखी हो गया. मोहम्मद ने इसे भांप कर उससे कहा 'संभवतः तुम अपने बाप की दुर्दशा से दुखी हो गए हो!' अबू ने कहा 'अल्लाह के पैगम्बर! ऐसा नहीं है. मैं अपने पिता से किये न्याय से असहमत नहीं हूँ; मैं उसकी दयावान प्रकृति को जानता था और मेरी इच्छा थी कि वो मुसलमान बन जाए. ऐसा नहीं है कि मुझे शोक है किन्तु आज उसका शव देख कर मेरी आशा समाप्त हो गयी है.
अन्य हदीस के अनुसार जब उत्बा ने मुसलामानों को लड़ने के लिए ललकारा था तो अबू हुदैफा अपने पिता से लड़ने के लिए उठा था किन्तु मोहम्मद ने उसे रोक दिया था.

लूट का माल अर्थात गनीमत अर्थात अन्फाल 

अगले दिन जब लूट का माल बांटा जाना था तो मुसलामानों में मतभेद उठ खड़ा हुआ. जिन्होंने भागते हुए कुरैशियों को मारा था, उनका मत था कि जिस मुसलमान ने जिस व्यक्ति को मारा था, मृतक के सामान पर उसका पूर्ण रूप से अथवा एक बड़े भाग पर, अधिकार होना चाहिए क्योंकि उन्होंने अपनी जान को दांव पर लगाया था.  दूसरी और जो मोहम्मद की सुरक्षा कर रहे थे अथवा किसी और दायित्व का निर्वाह कर रहे थे, उनका मत था कि सभी को सामान अधिकार होना चाहिए क्योंकि सभी ने अपने दायित्व का निर्वाह किया है. ये झगड़ा इतना उग्र हो गया कि मोहम्मद को, इसे रोकने के लिए, अल्लाह के नए सन्देश का आश्रय लेना पड़ा. अल्लाह का ये पैगाम कुरआन के अध्याय ८ के रूप में अंकित है. इस अध्याय का नाम ही 'अल अन्फाल' है. इसकी पहली आयत है:
ऐ रसूल! वो तुम्हें ग़नीमतों के अधिकार की बाबत पूछते है। उनेहं कहो कि ग़नीमतें अल्लाह और रुसूल की है। इसलिए  अल्लाह से डरो और आपस में मत झगड़ो. यदि ईमानदार हो तो अल्लाह और रुसूल का कहा मानों. 
इस अध्याय में ही उल्लेख है कि प्रत्येक लूट का २०% रुसूल के लिए होना है. 
और जान लो कि जो कुछ ग़नीमत के रूप में माल तुम्हें मिले, उसका पाँचवा हिस्सा अल्लाह, रुसूल, उसके रिश्तेदारों, ज़रूरतमंदों और मुसाफिरों का है। अगर तुम ईमानदार हो तो इसे मानों और उसे भी जो अल्लाह ने अपने रुसूल को उस दिन उतारी जिस दिन सच और झूठ का फैसला हुआ था और दोनों गुटों में लड़ाई हुई थी. अल्लाह कुछ भी कर सकता है.
इसी आयत के अनुसार, जब भारतवर्ष में मुसलामानों ने लगभग १००० वर्ष तक लूट मचाई तो इसमें से २०% मक्का भेजा जाता था, जिसमें हिन्दू महिलायें भी होती थीं. रुसूल के मरने के पश्चात इस २०% पर, जिसे खम्स कहा जाता है, अरब स्थित इस्लामी शासक का अधिकार मन जाता है.

लूट का बंटवारा

सारा माल एकत्रित कर के सभी बद्र से चल पड़े और राह में 'अस सफर' नामक स्थान पर पड़ाव डाल कर लूट का बंटवारा किया गया. मोहम्मद का २०% निकाल कर शेष में से सभी को समान रूप से सामान बांटा गया. प्रत्येक घुड़सवार को, उसके घोड़े के लिए दो अतिरिक्त भाग दिए गए. मोहम्मद को रुसूल होने के नाते, ये अधिकार दिया गया था कि वो बंटवारे से पूर्व, जो भी उसे भाये, उसे ले सकता था. अपने इस अधिकार का प्रयोग करते हुए उसने अबू जहल का ऊंट और उसकी खडग 'ज़ुल्फ़िकार' अपने लिए चुन ली.

मोहम्मद द्वारा बंधक की हत्या

बद्र के आक्रमण के पश्चात् जब मुसलमान अपने घायल ओर मृत साथियों के शवों को ले कर मदीना की ओर जा रहे थे तो राह में ओथील नामक घाटी में रात बिताई. प्रातःकाल जब मोहम्मद बंदियों का निरिक्षण कर रहा था तो उस की दृष्टि नाध्र पर पड़ी, जिसे मिकदाद ने बंदी बनाया था. बंधक ने भय से कांपते हुए अपने पास खड़े व्यक्ति से कहा, "मुझे अपनी मौत दिखाई दे रही है". मिकदाद ने उत्तर दिया "नहीं ये तुम्हारा भ्रम है". उस अभागे बंदी को विश्वास न आया.उस ने मुसाब को उस की रक्षा करने के लिए कहा. मुसाब ने उत्तर दिया कि वह (नाध्र) इस्लाम को इनकार करता था और मुसलामानों को परेशान करता था. नाध्र ने कहा,"यदि कुरैशियों ने तुम्हें बंधक बनाया होता तो वे तुम्हारी हत्या कभी नहीं करते". उत्तर में मुसाबी ने कहा,"यदि ऐसा है भी तो मैं तुम जैसा नहीं हूँ. इस्लाम किसी बंधन को नहीं मानता. इस पर मिकदाद, जिस ने नाध्र को बंधक बनाया था, बोल उठा "वो मेरा बंदी है."  उसे भय था कि यदि नाध्र की हत्या कर दी गयी तो उस के सम्बन्धियों से जो फिरौती का धन प्राप्त हो सकता था, उस से वो वंचित रह जाएगा.
मोहम्मद ने आदेश दिया,
"उस का सर काट दो".अल्लाह, मिकदाद को इस से भी अच्छा अन्फाल प्रदान करना." 
अली जो आगे चल कर मोहम्मद का दामाद बना था, आगे बढ़ा और उस ने नाध्र की गर्दन काट दी.

उक्बा की हत्या

नाध्र की हत्या के दो दिन पश्चात, जब मुसलामानों ने मदीना तक का आधा मार्ग तय कर लिया था, मोहम्मद ने एक और बंधक, जिसका नाम उक्बा था, की हत्या का आदेश दिया. उक्बा ने मोहम्मद से पूछा कि उसे अन्य बंधकों की भाँति जीवित क्यों नहीं रहने दिया जाता. मोहम्मद ने उत्तर दिया:
क्योंकि तुम अल्लाह और उसके रुसूल के दुश्मन हो.
उक्बा ने दुखी मन से कहा "मेरी छोटी सी बिटिया है! उसका ध्यान कौन रखेगा?"
मोहम्मद ने उत्तर दिया
"नरक की आग". 
इतने पर उसे काट कर फेंक दिया गया. मोहम्मद ने इसके पश्चात कहा -
"तू एक नीच पुरुष था जो न अल्लाह को मानता था, न उसके रुसूल को, और न ही उसकी किताब कुरआन को! मैं अल्लाह का शुक्रगुजार हूँ कि उसने तुम्हें मार गिराया है. इस से मेरी आँखों को सुकून मिला है.
कुछ हदीसों में ऐसा वर्णन मिलता है कि मोहम्मद का, और लगभग सभी मुसलामानों की इच्छा सभी बंधकों की हत्या करने की थी. अबू बकर उन्हें जीवित रखने का पक्षधर था जबकि उमर सभी की हत्या के पक्ष में था. इस समय जिब्रील ने मोहम्मद को कहा कि यदि मोहम्मद चाहे तो उनकी हत्या करदे अथवा उन्हें फिरौती ले कर बंधनमुक्त कर दे. मोहम्मद ने अपने साथियों से चर्चा की जिन्होंने कहा कि; हमारे जो साथी मर गए हैं उन्हें तो जन्नत नसीब होगी, हम इन बंधकों को जीवित रख कर उनसे फिरौती लेते हैं.
बंधकों की हत्या के सम्बन्ध में कुरआन के अध्याय ८ में, जो लूट के माल से सम्बद्ध अध्याय है, मोहम्मद ने बंधकों की हत्या को उचित ठहराते हुए एक आयत लिखी है. अध्याय ८, आयत ६७:
नबी के लिए उचित यही है कि यदि उसे बंधकों को रखना है तो उनका खून ज़रूर बहाए. तुम तो इस दुनिया का सामान चाहते हो जबकि अल्लाह तुम्हारे लिए दूसरी दुनिया का सुख चाहता है. अल्लाह बहुत ताकतवर है.
 इसी अध्याय की आयत ७०, इस प्रकार है:
ऐ नबी! जिन कैदियों पर तुम्हारा कब्ज़ा है, उनसे कहो,"अगर अल्लाह ने तुम्हारे दिलों में कोई अच्छाई देखि तो, तुम से जो छीना गया है, उससे अधिक दिया जाएगा और तुम्हें माफ़ कर देगा. अल्लाह माफ़ करने वाला है."
 इस आयत से स्पष्ट होता है कि इस में मोहम्मद की मंशा बंधकों को मुसलमान बनाने की थी. हम पायेंगे कि इसमें वो कई स्थानों पर सफल भी हुआ.
भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बंगलादेश इत्यादि स्थानों पर इसी प्रकार हिन्दुओं को मुसलमान बनाया गया था.

मदीना में जीत का समाचार

मोहम्मद ने 'अल उथील' से ही ज़ायेद और अब्दुल्लाह को जीत का सन्देश सुनाने भेज दिया था. अब्दुल्लाह ये समाचार देने के लिए कोबा एवं ऊपरी मदीना की और चला गया और ज़ायेद मोहम्मद की ऊंठ्नी 'अल कसावा' पर सवार नगर की और बढ़ा. जो मदीनावासी मोहम्मद से द्वेष रखते थे, उन्होंने जब ज़ायेद को अल कसावा पर सवार देखा तो ये सोच कर प्रसन्न हो गए कि संभवतः मोहम्मद मारा गया है, किन्तु समाचार सुनते ही मायूस हो गए. मोहम्मद का साथ देने वाले प्रसन्न हो उठे. छोटे बच्चे गलियों में चिल्लाते हुए घूमने लगे, पापी अबू जहल मारा गया!


मोहम्मद का मदीना पहुंचना

जब जायेद मदीना पहुंचा तो मोहम्मद की बेटी रुकैय्या की, रोग के चलते, मृत्यु हो चुकी थी और उसकी कब्र को समतल किया जा रहा था. अगले दिन मोहम्मद जब मदीना पहुंचा तो इस समाचार से मोहम्मद की प्रसन्नता कम हो गयी. रुकैय्या का पति उथमान जो रुकैय्या के उपचार के लिए, बद्र जाने के स्थान पर, उसके साथ रुक गया था, शोकाकुल था. मोहम्मद ने उसे सांत्वना देने के लिए अपनी बेटी 'उम् कुल्थुम' का निकाह उथमान से कर दिया. वो भी रुकैय्या की ही भांति, अबू लहब के एक बेटे की बीवी थी किन्तु कुछ समय से विलग हो कर रह रही थी. उसकी मृत्यु मोहम्मद से एक दो वर्ष पहले हुई थी. उसकी मृत्यु के पश्चात मोहम्मद कहा करता था कि उसे उथमान इतना प्रिय है कि यदि उसकी एक और बेटी होती तो उसे भी वो उथमान को दे देता.

बंधकों से करुणा

बंधकों में एक सुहैल नामक व्यक्ति था जो मक्का में भोजन करवाया करता था. जब कुरैशी मुसलामानों से अपनी जान बचा कर भाग रहे थे तो सुहैल भी उन्हीं में था और सड़क तक पहुँच गया था. मोहम्मद ने उसे भागते देखा तो उसका पीछा कर के उसकी हत्या करने का आदेश दिया. जब वो उस तक पहुँच गया तो मोहम्मद ने उसकी हत्या न करके उसे बंदी बना लिया. उके हाथ सर के पीछे बाँध कर अपने ऊंट से बाँध दिया. शाम के समय जब बंधकों को मदीना लाया गया तो मोहम्मद की बीवी सौदा एक मदीनावासी (जिन्हें अंसार अर्थात मोहम्मद के साथी कहा जाता है) के यहाँ शोक प्रकट करने गयी हुई थी क्योंकि उसके दो बेटे बद्र में मारे गए थे. वहाँ से लौटने पर उसने देखा की सुहैल बंधक स्थिति में उसके घर के निकट खड़ा था. आश्चर्य चकित सी वो उसे बंधन मुक्त कराने के लिए बढ़ी तो मोहम्मद के कर्कश स्वर ने उसे चौंका दिया. मोहम्मद जो घर के भीतर था, कहा, 'अल्लाह और उसके नबी के वास्ते! तुम ये क्या करने जा रही थी?' सौदा ने प्रत्युत्तर में कहा की वो तो स्वभावतः ही उसे खोलने के लगी थी. मोहम्मद ने बंधकों को मुसलमान बनाने के लिए उनसे नम्रतापूर्वक व्यवहार का मन बना लिया था. जहा से सौदा आ रही थी, वहीं एक 'उम् सलमा' नामक महिला भी शोक कर रही थी जब उसे सन्देश मिला कि कुछ बंधकों को उसके यहाँ रखा जाएगा. वो मोहम्मद के पास गयी जो अपनी दस वर्षीय पत्नी आयशा के साथ व्यस्त था. उसने पूछा - 'ओ नबी! मेरे चचेरे भाई चाहते हैं कि मैं कुछ बंधकों को अपने यहाँ रहने दूं, उनकी देख भाल करूँ; मैं ये तुम्हारी आज्ञा से ही करुँगी.' मोहम्मद ने उसे कहा कि उसे कोई आपत्ति नहीं होगी, वो जैसा चाहे उनके आव भगत कर सकती है.
इसके लगभग दो वर्ष पश्चात जब 'उम् सलमा' का पति मारा गया था तो मोहम्मद ने उसे अपने हरम में सम्मिलित कर लिया था.
इस विनम्र व्यवहार से प्रभावित हो कर कुछ बंधक मुसलमान बन गए. इस्लाम अपनाते ही उन्हें बंधन मुक्त कर दिया जाता था. जो अपने धर्म पर अडिग रहे, उन्हें फिरौती के लिए बंधक ही रखा गया. कुरैशी अपने अपमान के रहते, लम्बे समय तक फिरौती देने नहीं आये. परिणामतः जो बंदी थे, वो भी दुविधा में थे. अंततः जब कुरैशी फिरौती ले कर आये तो मुसलामानों को प्रचुर मात्र में धन मिला. जो कुछ नहीं दे सकते थे, उन्हें इस प्रण से मुक्त किया गया कि वो मदीना वासियों को पढ़ाया करेंगे. ऐसे प्रत्येक मक्कावासी को दायित्व दिया गया कि वो दस दस मदीनावासियों को शिक्षित करेगा. इससे पता लगता है कि मक्का के निवासी सभ्यता में मदीना से कहीं बढ़ कर थे.

बद्र को विशेष घटना की उपाधि

विश्व के इतिहास में सैकड़ों युद्ध हुए हैं जिन की तुलना में बद्र की घटना एक स्थानीय झगड़े के सामान है किन्तु मुसलमान इतिहासकार इसे एक विशिष्ट घटना मानते हैं. जिन तीन सौ मुसलामानों ने इस लड़ाई में भाग लिया था, उनके नाम एक विशेष पुस्तिका में अंकित किये गए हैं और उन्हें उच्च स्तरीय मुसलमान कहा जाता है. इसके पश्चात जब भी मुसलमान कहीं से अन्फाल अर्थात लूट का माल लाते थे, उसमें से इन्हें एक भाग दिया जाता था.

अल्लाह ने इस्लाम के लिए दिलाई सफलता

बद्र की घटना, मोहम्मद को पैगम्बर के रूप में स्थापित करने में एक मुख्या स्थान रखती है. यदि पराजय हो जाती तो मोहम्मद उसे किस प्रकार प्रस्तुत करता, ये तो नहीं पता, किन्तु उसने बड़ी चतुराई के साथ, प्रत्येक छोटी छोटी घटना को भी अल्लाह की मदद के रूप में प्रस्तुत कर दिया. इन बातों को विश्वसनीय बनाने में सर्वाधिक योगदान इस तथ्य का था कि मक्कावासियों की संख्या कहीं अधिक थी. इस विजय ने उसे कई नई आयतें बनाने में सहायता की.
अध्याय ८, आयत १२:
याद करो जब अल्लाह ने तुम्हारे हौसले के लिए अपने फ़रिश्ते भेजे और तुम से कहा, "मैं तुम्हारा साथ दूंगा. तुम ईमान वालों को स्थिर रखो. मैं काफिरों के दिलों में तुम्हारी दहशत डाल दूंगा. तुम उनकी गर्दने काटो और उनका अंग अंग काट दो.
अध्याय ८, आयत १७:
उनका क़त्ल तुमने नहीं किया बल्कि अल्लाह ने उनकी हत्या की है और जब तुमने (उनकी ओर धूल और कंकड़) फेंके थे, तो वो तुमने नहीं बल्कि अल्लाह ने फेंके थे (कि अल्लाह अपनी ताकत दिखाए) जिससे कि ईमानदारों की जांच कर सके. बेशक अल्लाह सब सुनता और जानता है - ये अल्लाह ही है जो काफिरों की चाल को बेकार कर देता है. - (ऐ काफ़िरो) तुम फैसला चाहते थे तो फैसला तुम्हारे सामने आ चुका है. कुफ्र से बाज़ आ जाओ, यही तुम्हारे लिए अच्छा है. अगर तुम नहीं सुधरे तो हम फिर पलट आयेंगे और तुम्हें नहीं छोड़ेंगे, तुम्हारा दल कितना ही बड़ा क्यों न हो, तुम्हारे किसी काम न आएगा क्योंकि अल्लाह मोम्मिनों के साथ है.

शैतान हतोत्साहित 

केवल इतना ही नहीं था कि अल्लाह ईमानदारों (ईमान अर्थात इस्लाम, इमानदार अर्थात मुसलमान) का साथ दे रहा है बल्कि मक्का की सहायता करने वाला शैतान भी हतोत्साहित हो गया था.
अध्याय ८, आयत ५२:
और याद रखो कि शैतान ने उनकी हरकतों को सही ठहराया और उनसे कहा: " आज मैं तुम्हारे साथ हूँ इसलिए तुम्हें कोई नहीं हरा सकता. इसके बाद जब दोनों दल आपस में भिड़े तो शैतान भाग खड़ा हुआ और बोला कि मैं तुम्हारा साथ नहीं दे रहा हूँ क्योंकि मुझे वो दिख रहा है जो तुम्हें दिखाई नहीं देता; मैं तो अल्लाह से डरता हूँ क्योंकि अल्लाह बड़ा सख्त बदला लेता है. 
उल्लेखनीय है कि सनातन धर्म के ग्रंथों में किसी 'शैतान' का उल्लेख नहीं है क्योंकि सनातन/आर्य/वैदिक धर्म के अनुसार मनुष्य अपने कर्मों से ही पाप/पुण्य भोगता है. कुरआन में शैतान, ईसाईयों की बाइबल से लिया गया 'satan'  है.
बद्र की लड़ाई में से कई घटनाएं ऐसी थीं जिन्हें मोहम्मद ने अल्लाह की सहायता के रूप में प्रस्तुत किया. न केवल अपने से बड़े दल पर विजय प्राप्त कर ली गयी थी बल्कि उसके मुख्या प्रतिद्वंद्वी भी मार दिए गए थे अथवा बंधक बना लिए गए थे. अबू लहब, जो लड़ाई में नहीं था, कुछ दिनों पश्चात किसी संक्रामक रोग से मर गया था. इसे भी 'अल्लाह के कहर' के रूप में कहा जाता है.
अब्बासी किंवदंती, जिसमें काफिरों के प्रति दुर्भाव की झलक मिलती है, के अनुसार, उसकी मृत्यु क्षय रोग (कैंसर) के चलते हुई थी; दो दिन तक कोई उसके शव के पास नहीं गया था और उसे स्नान नहीं करवाया गया था बल्कि दूर से ही जल छिड़क दिया गया था. उसके शव को एक खाली कूंएं में डाल कर पत्थरों से ढक दिया गया था. 

मक्का में अपमान एवं क्रोध

"हम में से कोई एक भी आंसू नहीं बहायेगा क्योंकि इस से मोहम्मद और उसके मुसलमानों के प्रति हमारा क्रोध कम हो जाएगा. और यदि हमारे विलाप की सूचना उन्हें मिल गयी तो वो हमारा उपहास करेंगे जो हमारे लिए असहनीय होगा." ये कहते हुए अबू सुफियान ने घोषणा की - " मैं जब तक मोहम्मद से युद्ध नहीं करूंगा, न तो अपने शरीर पर तेल लगाऊंगा और न ही अपनी पत्नी के पास जाऊंगा." अपने इस आत्म सम्मान के कारण, एक दीर्घ काल तक वो अपने सम्बन्धियों को फिरौती देकर छुड़ाने के लिए मदीना नहीं गए और न ही किसी प्रकार का रुदन विलाप किया.
अबू सुफियान का अपना बेटा भी बंधक था, जिसके सम्बन्ध में उसने घोषणा की कि भले ही मोहम्मद उसे एक वर्ष तक बंधक बनाए रखे लेकिन वो फिरौती नहीं देगा.
उसके बेटे को मुसलामानों ने तब छोड़ा जब एक मुसलमान, जो असावधानी से मक्का में पकड़ा गया था, को मक्कावासियों ने छोड़ा.

मक्का में शोक

मक्का में अस्वाद नामक एक नेत्रहीन वृद्ध था जिसके दो बेटे एवं एक पौत्र मुसलामानों के हाथों, बद्र में मारे गए थे. वो अपने शोक को दबाये हुए था कि एक रात उसे एक महिला का रुदन उसे सुनाई पड़ा. उसने अपने एक सेवक को पता लगाने को कहा 'देखो क्या मक्कावासियों ने शोक मनाने का निर्णय कर लिया है; मुझे भी अपने पुत्र का शोक करना है, मैं भीतर ही भीतर घुट रहा हूँ.' सेवक ने आकर बताया कि किसी महिला का ऊंट खो गया है इसलिए वो रो रही है. ये सुन कर वृद्ध ने एक सुन्दर कविता लिखी जिस के अनुसार  -  'क्या वो अपने ऊंट के लिए रो रही है, और इस कारण उसकी आँखों से नींद खो गयी है? नहीं, यदि रोना ही है तो हम बद्र के लिए रोयें, उकील के लिए रोयें, अल हरित के लिए रोयें जो शेरों का शेर था!______
लगभग एक माह तक मक्का वासियों ने अपने शोक को बलपूर्वक दबाये रखा किन्तु जब ये पीड़ा असहनीय हो गयी तो पूरा नगर एक साथ रुदन करने लगा. प्रत्येक घर में मृतकों एवं बंधकों की स्मृति में आंसू बह रहे थे. शोक इतना गहन था कि ये अश्रुधारा एक माह तक चलती रही. केवल एक घर में विलाप नहीं था. ये घर था अबू सुफियान का. जब नगरवासियों ने उसकी पत्नी हिंद से पूछा कि अपने पिता, चाचा एवं भाई की हत्या के लिए वो क्यों नहीं रो रही तो उसने उत्तर दिया,"हिंद का शोक आंसू बहाने से नहीं मिटेगा. यदि ऐसा होता तो मैं अवश्य रोटी. मैं तब तक आंसू नहीं बहाऊंगी जब तक कि तुम लोग मोहम्मद और उसके साथियों के विरुद्ध नहीं लड़ोगे". अपना रोष जताने के लिए उसने प्रतिज्ञा की कि जब तक मक्का की सेना मदीना पर आक्रमण नहीं करेगी, वो न तो अपने केशों में तेल लगाएगी और न ही अबू सुफियान के पास जायेगी.

शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

बद्र की लड़ाई - १

सन ६२४, जनवरी - मार्च

इस समय विश्व में लगभग ५०० मुसलमान थे क्योंकि इस्लाम एक नया सम्प्रदाय था. आज से लगभग १४ शताब्दियों पूर्व आज के साउदी अरब में स्थित एक छोटे से स्थान पर एक लड़ाई लड़ी गयी थी, जिसका परिणाम यदि भिन्न हुआ होता तो आज विश्व के मानचित्र पर कोई इस्लामी राष्ट्र न होता और न ही भारत से काट कर अफगानिस्तान, पाकिस्तान एवं बंगलादेश बना होता. 
ये लड़ाई लड़ी गयी थी मक्का एवं मदीना के बीच स्थित बद्र नामक स्थान पर. मोहम्मद की जीवनी लिखने वाले लेखक इस एक महत्वपूर्ण घटना मानते हैं. इस महत्त्व का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इस में भाग लेने वाले प्रत्येक मुसलमान का नाम तथा इस से जुड़ी छोटी छोटी बातें भी इस्लामी इतिहासकारों ने सहेज रखी हैं.



चोरी छिपे सूचना प्राप्त करना

लगभग तीन माह पूर्व मोहम्मद ने अपने साथियों के साथ मक्का से आने वाले कारवां को लूटने के लिए अभियान किया था, अब उस कारवाँ के लौटने का समय हो चला था. इस बार मोहम्मद इसे पकड़ने के लिए अधिक सावधान था. उसने अपने दो साथियों को कारवाँ की जानकारी लेने के लिए आगे भेज दिया. ये दोनों इस व्यापार मार्ग में पड़ने वाले एक पड़ाव 'अल हौरा' पहुँच गए. उन्हें 'जुहैना' नामक काबिले के वृद्ध मुखिया ने छिपा कर रखा, इस सेवा के लिए बाद में मोहम्मद ने उसके परिजनों को पारितोषिक भी दिया था. कारवाँ की सूचना मिलते ही उन्होंने जा कर मोहम्मद को उसके आगमन की सूचना देनी थी. इसके अतिरिक्त, मोहम्मद ने राह में पड़ने वाले कबीलों को अपने साथ मिला लिया. जो मिलने के इच्छुक नहीं थे, उन्हें उदासीन रहने के लिए कहा गया ताकि वो मक्का वासियों का सहयोग न करें.

अबू सुफियान को भनक

अपने प्रारम्भिक दिनों में मोहम्मद अपनी चाल छिपाने में अधिक कुशल नहीं था. परिणामतः कारवाँ के मुखिया 'अबू सुफियान' को मोहम्मद की मंशा का भान मिल गया. अभी वो सीरिया में ही था, जहां से उसने 'दमदम' नामक व्यक्ति को मक्का की और इस सन्देश के साथ रवाना कर दिया कि वो सशस्त्र टुकड़ी ले कर कारवाँ की सुरक्षा का प्रबंध करें. स्वयं वो अपने मार्ग से दिशा परिवर्तित कर अधिक गति से चल पड़ा. संभवतः उसे मोहम्मद के आक्रमण की सूचना किसी मदीनावासी ने दी थी.

मोहम्मद द्वारा कूच करने का आदेश

इस शंका से कि कहीं पहले की भाँती कारवाँ हाथ से निकल न जाए, मोहम्मद ने गुप्तचरों की प्रतीक्षा करने की बनिस्पत चलने का निर्णय कर लिया. उसने अपने साथियों को बुलाया और उनसे कहा," देखो कुरैशियों का एक वैभवशाली कारवाँ आ रहा है. चलो उस पर आक्रमण करें; संभवतः अल्लाह हमें वो वैभव प्रदान कर ही दे". लूट के माल (जिसे कुरआन में गनीमत अथवा अन्फाल कहा जाता है) के लोभ में केवल मुसलमान ही नहीं अपितु बहुत से मदीनावासी भी तत्पर हो गए. 
मोहम्मद का साथ देने वालों अथवा इस्लाम धारण करने वालों का उद्देश्य इन दो घटनाओं से समझा जा सकता है.
१. मोहम्मद ने जब दो मदीनावासियों को, जो अभी मुसलमान नहीं बने थे चलते हुए देखा तो उसने उन्हें अपने निकट बुला कर चलने का उद्देश्य पूछा. उन का उत्तर था कि हमारे नगरवासियों ने तुम्हें संरक्षण दिया है इसलिए तुम हमारे साथी हो; इसलिए हम अपने साथियों के साथ लूट का माल लेने चल रहे हैं. मोहम्मद ने उन्हें कहा ' मेरे साथ केवल वाही जायेंगे जो दीन (दीन तथा ईमान का अर्थ है इस्लाम) वाले हैं. उन्होंने चलने का हठ करते हुए कहा कि वो अच्छे लड़ाके हैं इसलिए साथ चलेंगे और केवल अन्फाल ले कर चले आयेंगे. किन्तु मोहम्मद नहीं माना. उसने कहा 'ईमान लाओगे तभी लड़ोगे'. मोहम्मद के हठ को देख कर उन्होंने मोहम्मद को पैगम्बर मान लिया और 'ईमानदार' बन गए. इस प्रकार वो लड़ने के लिए गए और केवल बद्र में ही नहीं बल्कि कई अन्य अभियानों में जाने माने लुटेरे बने.
२. मोहम्मद और साथियों के मदीना लौटने पर एक मदीनावासी ने टिपण्णी की थी कि:
यदि मैं भी पैगम्बर के साथ गया होता तो मैंने बहुत सा माल पाया होता.

मदीना से कूच

'अबू लुबाब' को मदीना की सुरक्षा के लिए वहीं रुकने को और एक अन्य मदीना वासी को 'कोबा' एवं ऊपरी मदीना की सुरक्षा के लिए नियुक्त करके, रविवार के दिन, मोहम्मद ने अपने साथियों के साथ लड़ाई के लिए कूच किया. नगर से बाहर निकल कर मक्का जाने वाले मार्ग पर उसने अपनी टुकड़ी का निरीक्षण किया और कुछ जो अभी तरुण ही थे, उन्हें मदीना लौटा दिया. अन्य सभी, जिनकी संख्या ३०५ थी, आगे बढ़ गए. इनमें ८० वो थे जिन्होंने मोहम्मद के साथ मक्का से पलायन किया था और अन्य 'ऑस' तथा 'खज़राज' से थे. सवारियों के रूप में इन के पास ७० ऊंट और दो अश्व थे. वे क्रमवार इन पर सवारी करते अथवा चलते थे.

मोहम्मद के गुप्तचर

 दो तीन दिन की यात्रा के पश्चात 'अल सफ्र' नामक स्थान पर रुकते हुए, मोहम्मद ने दो साथियों को सीरिया के रास्ते में एक यात्रियों के रुकने वाले स्थान पर 'अबू सुफियान' के कारवाँ की सूचना लाने के लिए कहा. उन्हें यह पता लगाना था कि क्या कारवाँ के वहाँ पहुँचने के लिए प्रबंध किये जा रहे हैं अथवा नहीं. जब ये दोनों वहां पहुंचे तो उन्होंने वहाँ पानी के स्त्रोत के निकट कुछ महिलायों को वार्ता करते हुए सुना कि कारवाँ एक दो दिन में पहुँचने वाला है. ये सूचना पाते ही वे मोहम्मद के पास पलट आये.


अबू सुफियान सचेत

इधर अबू सुफियान बद्र के निकट आते आते सचेत होता जा रहा था क्योंकि उसे आभास हो रहा था कि अब वो ऐसे क्षेत्र में था जहां उसे लूटा जा सकता था. खतरे को भांपने के लिए वो कारवाँ से आगे निकल कर बद्र पहुँच गया. उसे 'बनू जोहीना' कबीले के मुखिया ने बताया कि उन्होंने किसी संदिग्ध व्यकी को यहाँ नहीं देखा है, केवल दो पुरुष आये थे जो कूंएं के निकट अपने ऊंठों सहित आये थे. उन्होंने जल ग्रहण करने के उपरान्त कुछ समय विश्राम किया और चले गए थे. अबू सुफियान ने कूंएं पर पहुँच कर वहां का निरीक्षण किया. उसने वहाँ पर पड़े अवशेषों को देख कर मदीना की खजूरों के विशेष छोटे बीज पहचान लिए और बोला 'ये यथ्रीब के ऊंट थे! और वो मोहम्मद के साथी थे!' यह जानते ही वो कारवाँ के निकट पहुंचा और सीधे मार्ग को छोड़, दायीं और मुड़ गया. यह रास्ता समुद्र के किनारे किनारे चलता था. कारवाँ दिन रात, बिना किसी विश्राम के चलता रहा, जब तक कि उन्हें विशवास नहीं हो गया कि अब वो दस्यु दल की पहुँच से परे हैं. जब अबू सुफियान को सूचना मिली कि मक्का से उसकी सहायता करने के लिए एक सशस्त्र दल रवाना हुआ है तो उसने उन्हें सन्देश भिजवा दिया कि सब सुरक्षित है और वे मक्का लौट जाएँ.

मक्का में चिंता

दस बारह दिन पूर्व, जब अबू सुफियान का भेजा पहला दूत दमदम मोहम्मद द्वारा कारवां पर होने वाली संभावित लूट की सूचना ले कर पहुंचा तो उसने मक्का नगर के मुख्य मार्ग पर पहुँचते ही अपने ऊंट को काबा मंदिर के समक्ष खुले स्थान पर घुटनों के बल बैठा दिया. उसने ऊंट के कान और नाक काट दिए और अपने कुरते को उतार कर आगे पीछे लहराने लगा. इस प्रकार अपने सन्देश की गंभीरता दर्शाते हुए चिल्लाते हुए बोला 'कुरैशियो! कुरैशियो! मोहम्मद तुम्हारे कारवां के पीछे है. मदद! मदद!' पूरा नगर सकते में आ गया क्योंकि ये इस वर्ष का सबसे संपन्न कारवाँ था और लगभग प्रत्येक मक्कावासी ने इसमें निवेश किया था. इस कारवाँ का मूल्य ५०,००० स्वर्ण मुद्राएँ आँका गया. तुरंत, कारवाँ सुरक्षित करने के लिए कूच करने का निर्णय किया गया. उत्तेजना में नगर में चर्चा होने लगी 'क्या मोहम्मद सोचता है कि जिस प्रकार नख्ल में अम्र की हत्या कर दी, वो फिर से सफल हो जाएगा'! वो लगभग दो माह पूर्व धोखे से मोहम्मद के साथियों द्वारा मारे गए अम्र के विषय में कहने लगे. 'कभी नहीं! इस बार वो सफल नहीं होगा.'

अबू सुफियान का दूसरा सन्देश 

नगर का प्रत्येक व्यक्ति सेना के साथ चलने को तत्पर था. सभी की इच्छा मुसलामानों को कठोर उत्तर देने की थी. मोहम्मद का चाचा 'अबू लहब', एवं अन्य ऐसे पुरुष जो स्वयं नहीं जा सकते थे, उन्होंने अपने स्थान पर अपने किसी प्रतिनिधि को भेजा. मक्का वासियों को भय सताने लगा कि कहीं ऐसा न हो कि जब वे इस लड़ाई के लिए गए हों तो निकटवर्ती कबीला 'बानू बकर' उनकी अनुपस्थिति में मक्का पर चढ़ाई कर दे. एक अन्य शक्तिशाली काबिले के मुखिया ने, जो दोनों दलों का मित्र था, ने 'बानू बकर' की और से मक्का पर आक्रमण न करने का आश्वासन दिया तो मक्का वासी निश्चिन्त हो गए. दो तीन दिन में ही, लगभग उसी समय जब मोहम्मद मदीना से निकला था, मक्का से भी इस छोटी सी सेना ने कूच कर दिया. मक्कावासियों की महिलायें, मनोबल ऊंचा रखने के लिए, उनके साथ गाते बजाते चल रही थीं. 
मार्ग में, 'अल जोह्फा' नामक स्थान पर, उन्हें अबू सुफियान का भेजा हुआ दूसरा दूत मिला जिसने उन्हें सूचित किया कि कारवाँ सुरक्षित है और वे लौट जाएँ.

कुरैशियों की दुविधा

इस समाचार से जहां एक और मक्का वासियों में सुख की लहर दौड़ गयी, वहीं इस चर्चा ने बल पकड़ लिया कि मक्का लौटा जाए अथवा आगे बढ़ा जाए. लौट चलने वालों का मत था कि मोहम्मद एवं अन्य मुसलमान उन्हीं के सम्बन्धी हैं इसलिए उन्हें हानि न पहुंचाई जाए. अपने सम्बन्धियों से युद्ध करके अथवा उनका रक्त बहा कर जीवन नीरस हो जाएगा. दूसरे दल का मत था कि बद्र में जा कर तीन दिन का विश्राम किया जाए एवं कुछ नाच गाना किया जाए. इस से पूरे अरब में हमारी धाक होगी. यदि यहीं से लौट गए तो संभव है कि हमें कायर समझा जाए. कुरैशियों के मन में अभी भी नख्ल में की गयी अम्र की क्रूर हत्या की पीड़ा थी इसलिए वो सीरिया की और जाने वाले मार्ग पर बद्र की और बढ़ने लगे. दो काबिले, 'बानू जोहरा' एवं 'बानू आदि' मक्का लौट गए.

मोहम्मद को कुरैशियों की सूचना

उधर मोहम्मद तीव्र गति से बद्र की और बढ़ रहा था, जहां उसकी सूचना के अनुसार, उसे एक संपन्न कारवाँ मिलने की आशा थी. कहा जाता है कि, राह में 'अर रुहा' नामक घाटी में एक कूएं से मोहम्मद ने जल पिया तो घाटी को धन्यवाद दिया. इसे आज भी हज करने वाले मुसलामानों को बताया जाता है. अगले दिन जब बद्र की दूरी एक दिन से भी कम रह गयी थी, कुछ यात्रियों ने उन्हें मक्कावासियों की सूचना दी. मोहम्मद ने अपने साथियों को परस्पर विचार करने के लिए कहा. सभी का एक सा विचार था और सभी उत्तेजित थे. मोहम्मद के विशेष मित्रों 'अबू बकर' एवं 'उमर' का मत था कि सीधी लड़ाई की जाए. मोहम्मद ने मदीनावासियों से पूछा क्योंकि वो मोहम्मद के लिए लड़ने के लिए किसी प्रतिज्ञा से नहीं बंधे थे. 'साद बिन मोआध', जो मदीना वासियों का मुखिया था, बोला, ' अल्लाह के पैगम्बर! यदि हमें कहोगे तो हम तुम्हारे साथ विश्व के छोर तक चलेंगे. हमारे ऊंट थक कर मर जाएँ तो भी हम तुम्हारे साथ चलेंगे. तुम यदि उचित समझो तो कूच करो, पड़ाव डालो, शान्ति करो अथवा लड़ाई करो.' ये उत्तर सुन कर मोहम्मद ने कहा: 'अल्लाह के भरोसे आगे बढ़ो! उसने तुमसे एक का वायदा किया है - सेना अथवा कारवाँ - वो इन में से एक मुझे सौंपेगा. अल्लाह कसम! मुझे अभी से लड़ाई का मैदान दिख रहा है जिस में लाशें गिरी हुई हैं.

मुसलमान लड़ाई के लिए आमादा

जहां मक्कावासी, मोहम्मद और उसका साथ देने वालों को अपना सम्बन्धी प्रियजन मानते हुए, उनसे लड़ने को एक दुष्कर्म मान, लगभग लौट जाने लगे थे, इसके ठीक विपरीत, मोहम्मद और उसके साथियों में अपने सम्बन्धियों से लड़ाई करने में कोई हिचक नहीं थी. हालांकि कुरैशियों के कारवाँयों पर आक्रमण किये गए थे और नख्ल में मुसलामानों द्वारा हत्या भी की गयी थी, इसपर भी वो उन से, पारिवारिक सम्बन्ध मानते हुए, लड़ाई नहीं करना चाहते थे. किन्तु मुसलामानों के मन में केवल एक ही विचार था की अपने सम्प्रदाय के अतिरिक्त उनका कोई सम्बन्धी नहीं है क्योंकि इस्लाम ने उन्हें सभी उन संबंधों से मुक्त कर दिया है जो सम्प्रदाय के बाहर हैं. वो पूर्वकाल में उनसे किये दुर्व्यवहार को न भूल कर और मोहम्मद की भयंकर कट्टरता के कारण कठोर होते चले गए थे. मोहम्मद के साथियों ने उस से इस कट्टरता एवं घृणा को ग्रहण कर लिया था. मोहम्मद की अपने मुख्य विरोधियों के प्रति घृणा का एक उदाहरण उसके व्यवहार से मिलता है. बद्र की और जाते हुए, रास्ते में एक स्थान पर वो नमाज़ के लिए रुका तो उठ कर काफिरों के प्रति अल्लाह से कहने लगा: 
'ओ अल्लाह! अबू जहल बचकर न जाने पाए. अल्लाह! ज़ामा को भी बच कर मत जाने देना; बल्कि ऐसा हो की उसका बाप अपने बेटे के दुःख में रो रो कर अँधा हो जाए!'
मोहम्मद द्वारा शत्रु का आंकलन

गुरूवार की दोपहर को, बद्र के निकट पहुँच कर मोहम्मद ने अली और कुछ अन्य मुसलामानों को एक झरने के निकट से शत्रुओं की संख्या जांचने के लिए भेजा. उन्होंने, अचानक आक्रमण कर के तीन कुरैशियों को, जो अपनी मशकों में पानी भरने आये थे, चौंका दिया. उनमें से एक भाग निकला और दो को पकड़ कर मुसलामानों के बीच ले आया गया. उनसे कारवाँ एवं शत्रुओं की सूचना लेने के लिए उन्हें मारा जाने लगा. मोहम्मद को जब शत्रु की निकटता का आभास हुआ तो उसने उनसे कुरैशियों की संख्या के सम्बन्ध में पूछना आरम्भ किया. उन्हें अक्षम पा कर मोहम्मद ने पूछा कि उन्होंने अपने भोजन के लिए कितने ऊंठों को मारा था. उन्होंने उत्तर दिया कि एक दिन नौं और अगले दिन दस ऊंठों को मारा गया था. ये सुनकर मोहम्मद ने कहा कि वो ९०० और १००० के बीच हैं. मोहम्मद का ये अनुमान सटीक था क्योंकि वो ९५० लोग थे जो मुसलामानों से तीन गुणा थे. उनके पास ७०० ऊंट और १०० अश्व थे, सभी घुड़सवार कवच पहने थे.

कारवाँ का बचना मोहम्मद के लिए वरदान

मोहम्मद के साथी जिसे एक सहज लड़ाई सोच रहे थे, वो अब एक भीषण लड़ाई हो सकती थी, ये जान कर वो दुविधा में पड़ गए. ये मुसलामानों के लिए एक वरदान था कि कारवाँ के सुरक्षित होने की जानकारी से मक्कावासी लड़ाई के लिए उत्सुक नहीं थे क्योंकि यदि उनका कारवाँ संकट में होता तो उनकी एकता एवं दृढ़ता कहीं अधिक होती. उधर मोहम्मद के लिए बद्र में जीत किसी भी कारवाँ को लूटने से अधिक संतोषजनक परिणाम होता, भले ही वो कारवाँ कितन संपन्न क्यों न होता.

बद्र का भूगोल

बद्र की घाटी की रचना कुछ इस प्रकार है कि उसके उत्तर और पूर्व में ऊंचे पहाड़ हैं; दक्षिण में छोटी छोटी चट्टानों की श्रृंखला है और पश्चिम में रेट के टीले हैं. पूर्व की पहाड़ी से एक छोटी नदी बहती है जिस से कई स्थानों पर छोटे झरने निकलते हैं. इनमें से सबसे निकटवर्ती झरने के पास मोहम्मद और उसके साथी रुके थे. 'अल होबाब' नामक एक मदीनावासी, जो इस प्रदेश का ज्ञाता था, ने परामर्श दिया कि 'अंतिम झरने तक जा कर, सभी झरनों को नष्ट कर देते हैं, मैं एक झरना जानता हूँ जहां हर समय मीठा जल मिलता है.'
इस सुझाव पर तुरंत कार्यवाही करते हुए सभी झरनों को नष्ट कर के अंतिम झरने पर अधिकार कर लिया गया.

मोहम्मद की झोंपड़ी

रात को ताड़ के पत्तों की एक झोंपड़ी में मोहम्मद और अबू बकर सो गए और 'साद बिन मोआध' खड़ग लिए उनकी सुरक्षा करता रहा. रात को वर्षा हुई जो कुरैशियों की और अधिक बरसी. इस वर्षा का और मोहम्मद को वहाँ सोने पर आये स्वप्न का उल्लेख कुरआन में इस प्रकार किया गया है.
अध्याय ८, आयत११:
याद करो जब अल्लाह तुम्हें तारो ताज़ा करने के लिए तुम पर पानी बरसा रहा था और तुम्हें सुस्त कर रहा था, इसके द्वारा उसने तुमसे शैतान की गंदगी धो कर तुम्हें पाक कर दिया. उसने तुम्हारे दिलों को ताकत दी ताकि तुम डटे रहो. 
अध्याय ८, आयत ४३ में मोहम्मद के एक तथाकथित स्वप्न का उल्लेख है:
याद करो जब अल्लाह ने तुम्हें ख्वाब में उनकी संख्या कम कम करके दिखलाई थी. क्योंकि अगर तुम उनकी ज्यादा गिनती को जानते तो तुम लड़ने की बजाय आपस में झगड़ पड़ते. अल्लाह ने तुम्हें इस शर्मिंदगी से बचा लिया है.
रात को, सोने से पूर्व, मोहम्मद ने लड़ने का ध्वज 'मुसाब' को थमाया, खाज्राज काबिले की कमान 'अल होबाब' को तथा ऑस कबीले की कमान 'साद बिन मोआध' को थमा दी. अगले दिन, प्रभात के समय, हाथ में एक बाण थामे, मोहम्मद ने अपने साथियों को लड़ने की व्यूह रचना बतायी.

कुरैशियों में दुविधा

कुरैशियों के शिविर में दो मुखिया 'शीबा' और 'उत्बा' का प्रबल मत था कि अपने संबधियों से युद्ध नहीं करना चाहिए. 'ओमीर' नामक एक व्यक्ति घाटी का निरीक्षण कर के आया तो उसने मुसलामानों की संख्या बताते हुए चेतावनी देते हुए कहा 'ऐ कुरैशियो! भले ही उनकी संख्या कम हो किन्तु मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानों यथ्रीब के ऊंठों पर मौत सवारी कर रही हो. वो तुम्हारा विनाश कर देंगे. वो तो केवल खड़ग की ही भाषा बोलेंगे और उनकी जीभ एक सांप की जीभ की भाँती हो चुकी है. यदि वो मरेंगे तो उतने ही हम में से भी मर जायेंगे; यदि इतने लोग मारे जायेंगे तो हमारा ये जीवन किस प्रकार का होगा! इन शब्दों का प्रभाव हो रहा था तो अबू जहल ने अपने साथियों को कायरता से बचने को कहा. उसने 'आमिर इब्न अल हिद्रामी' को अपने मरे हुए भाई अम्र (जिसे मुसलामानों ने नखल में धोखे से मार दिया था) का स्मरण करने को कहा. इसका तुरंत प्रभाव हुआ. उसने अपने वस्त्र फाड़ दिए, अपने शरीर पर धुल मली और अपने भाई का नाम ले कर विलाप करने लगा. इस पर 'शीबा' एवं 'उत्बा', जो अम्र के साथी थे, लौट चलने की बात से रुक गए क्योंकि उनका स्वाभिमान आहत हो गया था.
ये छोटी से सेना लड़ने के लिए चल पड़ी. रात को हुई वर्षा ने धूल के टीलों को, जिन पर से कुरैशियों को चलना था, कीचड़ युक्त हो गए थे, जिस से चलने में भारी असुविधा हो रही थी. परिणामतः वो शीघ्र ही थकान का अनुभव करने लगे. एक और समस्या जो कुरैशियों की स्थिति को निर्बल कर रही थी, वो थी दिशा. उन्हें सीधे उदय होते सूर्य की दिशा में चलना था. इसके विपरीत, मुसलामानों की पीठ सूर्य की और थी. दूसरे, इस ओर वर्षा कम होने के कारण, मुसलामानों की ओर की भूमि चलने के लिए उपयुक्त थी.
जब कुरैशियों की सेना, टीले के पीछे से मुसलामानों की ओर बढ़ी तो उनका एक बड़ा भाग टीले के पीछे होने के कारण, मुसलामानों को नहीं दिखा. इस कम संख्या ने मुसलामानों का उत्साह वर्धन किया. इसका उल्लेख भी कुरआन में दिया गया है. अध्याय ८, आयत ४४:
याद करो जब तुम उनसे भिड़ने लगे तो अल्लाह ने तुम्हें उनकी एक छोटी संख्या तुम्हें दिखलाई और तुम्हारी संख्या भी उन्हें कम दिखी. इस से अल्लाह ने वो करवा लिया जो पहले से तय था और उसे मंज़ूर था.
मोहम्मद जो कुरैशियों की अधिक संख्या के विषय में जानता था, 'अबू बकर' के साथ अपनी झोंपड़ी में गया और अपने हाथ ऊपर उठाते हुए बोला: 'या अल्लाह! यदि तेरी ये छोटी सी टुकड़ी आज हार गयी तो कुफ्र (मूर्तिपूजा) जीत जायेगा  और तेरा नाम लेने वाला इस दुनिया में कोई नहीं बचेगा!' इस पर अबू बकर ने कहा 'अल्लाह ज़रूर तुम्हारी मदद करेगा और तुम्हारे रुख पर जीत की चमक होगी'.

मंगलवार, 27 सितंबर 2011

डकैती = गज़्वाह ?

सन ६२३ 

मक्का में राहत 

मोहम्मद के मक्का से पलायन करने पर मक्का वासियों ने राहत की सांस ली. मोहम्मद की गतिविधियों ने, जिनमें उसका परंपरा के विरुद्ध जाना एवं नए सम्प्रदाय की स्थापना करना सम्मिलित था, कई वर्षों तक मक्का वासियों को आहत एवं चिंतित किया था. अपने चेलों के साथ मोहम्मद के पलायन ने नगर वासियों को पुनः अपनी परम्परागत शैली से शांतिपूर्ण जीवन जीने का अवसर मिला. परिणामतः समाज में से द्वेष की भावना जाती रही.

मोहम्मद का क्रोध

इस के विपरीत, मोहम्मद के मन में जो विचार थे उन में शान्ति नहीं थी. उस के उदघोष में शत्रुओं से प्रतिशोध लेने की प्रबल इच्छा थी. ये इच्छा शीघ्रातिशीघ्र एक भयंकर प्रतिशोध लेना चाहती थी. कुरैशियों के विरुद्ध, उसके मन में दबे हुए ये प्रबल विचार अवसर की ताक में थे. यथ्रीब (मदीना का पुराना नाम) में प्राप्त हुए सुरक्षित आश्रय स्थल से वो अपने सम्प्रदाय को अपने शत्रुओं पर थोपने का उपाय खोज रहा था.
मदीना में आने के पश्चात छः माह तक मोहम्मद ने कोई आक्रामक तेवर नहीं दिखाए. इसके मुख्यतः तीन कारण थे. उसके साथ पलायन करके आये उसके चेले थोड़े से ही थे और उनके भरोसे मोहम्मद मक्कावासियों से नहीं जीत सकता था. दूसरा कारण था कि वो भी मदीना में अपने भरण पोषण एवं आवास की व्यवस्था में लगे थे. तीसरे, मदीना वासी मोहम्मद को शरण तो दे रहे थे किन्तु अभी वो उसके लिए युद्ध करने का संकट नहीं लेना चाहते थे. परिस्थिति के अनुरूप ढलते हुए मोहम्मद ने मदीना वासियों एवं यहूदियों से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए ताकि उसे अपने एवं अपने चेलों के लिए उपयुक्त वातावरण बना सके. इस में छः माह व्यतीत हो गए.

मक्का का व्यापार 

मक्का, जो कि मदीना के तुलना में, अत्यंत संपन्न था, अपने व्यापार के लिए उत्तर में स्थित सीरिया एवं फारस से लेन देन करता था. मक्का, तैफ एवं यमन का चमड़ा उत्कृष्ट माना जाता था. इस व्यापार के लिए बड़े कारवाँ जिनमें एक समय पर २,००० अथवा उस से भी अधिक ऊंठों पर सामग्री लाद कर ले जाई जाती थी. आते समय ये कारवां मलमल अथवा अन्य बहुमूल्य वस्तुएं ले कर आता था. मक्का का दुर्भाग्य कि ये मार्ग मदीना के पास से हो कर जाता था. ये समृद्ध कारवां एक ऐसा लालच था कि देर सवेर मोहम्मद ने इसका लाभ उठाना ही था.
मोहम्मद के पलायन के पश्चात के छः महीनों में ऐसे कई कारवां का उल्लेख मिलता है. इनमें एक की सम्पन्नता ५०,००० दिनार तक आंकी गयी है. इतिहासकार स्प्रेंगर के अनुसार मक्का का वार्षिक व्यापार २,५०,००० दिनार से अधिक का था. इसमें लाभ लगभग ५०% होता था. प्रत्येक मक्कावासी इस व्यापार में अपने सामर्थ्य के अनुसार इन कारवां में निवेश करता था. ये कारवां कुछ बड़े निवेशकों के संरक्षण में चलते थे किन्तु भागीदारी लगभग प्रत्येक कुरैशी (मक्कावासी) की होती थी.
इन व्यापारियों पर दस्यु दल हमले करते रहते थे क्योंकि ऊंठों की लम्बी श्रृंखला जब किसी संकरे दर्रे अथवा घाटी में से जा रही होती थी तो अचानक आक्रमण से ऊंट इधर उधर भाग जाते थे. इस अव्यवस्था में डाकू कुछ सामान लूट कर ले जाया करते थे. इन हमलों से सावधानी के लिए, कुछ प्रहरियों को संदिग्ध स्थितियों की टोह लेने के लिए आगे भेज दिया जाता था. सूचना मिलने पर कारवां स्थिति के अनुसार अपनी दिशा अथवा गति निर्धारित कर लेता था. इस से हम अनुमान लगा सकते हैं कि इस महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग पर मोहम्मद जैसे शत्रु की उपस्थिति से कुरैशी आतंकित हो गए होंगे. 

मोहम्मद के बिना किये गए गज़्वाह 

पहले छः माह उत्तर की ओर व्यापार के नहीं थे इसलिए मोहम्मद अपने एवं अपने चेलों के लिए व्यवस्था में व्यस्त रहा था. किन्तु अब उत्तर व्यापार की ऋतु आ गयी थी. पहला कारवां सीरिया की ओर रवाना किया गया.
मोहम्मद की ओर से पहला आक्रमण छोटा सा ही था, जिसमें उसने अपने चाचा हम्ज़ा को ३० मुहाजिरों (जिन्होंने मोहम्मद के साथ पलायन किया था, उन्हें मुहाजिर कहा जाता है) के साथ भेजा. इस दल का उद्देश्य था सीरिया से वापिस आ रहे कारवां को लूटना, जिसका नेत्रित्व अबू जहल कर रहा था. कारवां की सुरक्षा ३०० कुरैशी कर रहे थे. जिस समय दोनो गुट आमने सामने हुए तो 'बानू जोहिना' नामक एक कबीले के मुखिया, जो दोनों से मैत्रीपूर्ण संबंध रखे था, ने बीच बचाव कर के आक्रामकता को रोक दिया. दोनों दल अपने अपने मार्ग पर चले गए. इस घटना ने मोहम्मद के आक्रामक तेवर स्पष्ट कर दिए. ये घटना सन ६२२ के दिसंबर माह की है.
अगले माह, २०० कुरैशियों का एक कारवां 'अबू सुफियान' के नेतृत्त्व में जा रहा था, जिसपर ६० मुसलमान आक्रमण के लिए गए. जब मुसलमान, जिनका नेतृत्त्व  मोहम्मद का उबैदा नामक सम्बन्धी कर रहा था, कुरैशियों के दल के समीप पहुंचे तो कुरैशी असावधान थे. उनके ऊंट राबीघ की घाटी में विचरण कर रहे थे. मुसलामानों ने दूर से कुछ बाण चलाये किन्तु प्रतिद्वंद्वियों की अधिक संख्या देख कर मुसलमान वापिस लौट गए. इस आक्रमण का मोहम्मद को लाभ हुआ कि कारवां से दो कुरैशी निकल कर मुसलामानों से जा मिले और मुसलमान बन गए.
इस अवसर पर उबैदा ने बाण चलाया था, इसलिए इस्लाम की पुस्तकों में उसे इस्लाम का पहला बाण चलाने का श्रेय दिया जाता है.
इसके लगभग एक माह पश्चात, २० मुसलामानों का एक गिरोह, साद नामक एक युवा के नेतृत्त्व में एक कारवां पर आक्रमण करने के लिए गया. इस दस्यु दल की रण नीति यह होती थी कि वे दिन में विश्राम करते थे और रात्री में यात्रा करते थे. पांचवे दिन प्रातः जब ये गिरोह निर्धारित स्थान पर पहुंचा तो उन्होंने पाया कि कारवां वहाँ से जा चुका था. वे खाली हाथ वापिस आ गए.
ऊपर वर्णित सभी आक्रमणों के लिए मोहम्मद, गिरोह के सरदार को एक श्वेत वर्ण का झंडा किसी भाले पर अथवा डंडे पर लगा कर सौंपता था. इन सभी आक्रमणों को कोई विशेष घटना मान कर इस्लाम की परम्पराओं (जिन्हें हदीस अथवा हदीथ कहते हैं) में अंकित किया गया है और इनमें भाग लेने वालों के नाम भी लिखे गए हैं.

मोहम्मद के नेतृत्त्व में किये गए असफल गज़्वाह 

अगले कुछ महीनों में, मोहम्मद के नेतृत्त्व में तीन अपेक्षाकृत बड़े आक्रमणों के लिए कूच किया गया किन्तु वो सब भी इसी प्रकार असफल रहे. इनमें से पहला ग्रीष्म ऋतु में, जून के माह में किया गया. इस अभियान का लक्ष्य था, अल अबवा नामक स्थान पर (जहां मोहम्मद की माता को दफ़न किया गया था) एक कारवां को लूटना. कारवां तो नहीं मिला, किन्तु मोहम्मद को इसमें जो सफलता प्राप्त हुई वो थी उसका एक कबीले से मैत्री संधि करना. ये मोहम्मद द्वारा की गयी पहली लिखित संधि थी. ये कबीला पहले मक्का का मित्र था किन्तु अब उस से विलग हो चुका था. इस अभियान के लिए मोहम्मद १५ दिन के लिए मदीना से बाहर रहा था.
इसके लगभग एक माह उपरान्त, २०० जनों का गिरोह ले कर, जिनमें कई मदिनावासी भी सम्मिलित थे, मोहम्मद 'बोवात' नामक स्थान पर एक कारवां पर हमले के लिए निकला. ये कारवां उमैय्या बिन खालफ नामक मोहम्मद के एक मुख्य प्रतिद्वंद्वी के नेतृत्त्व में १०० सशस्त्र योद्धाओं की सुरक्षा में था. इस में बहुमूल्य सामान से लड़े हुए २,५०० ऊंट थे. मोहम्मद एवं उसके दल ने पीछा किया किन्तु ये कारवां सुरक्षित निकल गया. इस अभियान में मदीना वासियों का सम्मिलित होना, मोहम्मद के बढ़ते हुए प्रभाव दो दर्शाता है. लूट का माल पाने के लिए किये गए इस निर्णय से मदीना वासियों ने स्वयं को मक्का के कुरैशियों का शत्रु बना लिया था. इस अभियान से लौटने के कुछ समय उपरान्त ही, 'कुरज बिन ज़बीर' नामक एक लुटेरे के गिरोह ने मदीनावासियों के कुछ ऊंट एवं अन्य पशु हथिया लिए. मोहम्मद उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे बद्र तक गया किन्तु उसके हाथ कुछ न लगा. इस घटना के कुछ समय पश्चात हम पाते हैं कि यही दस्यु मुसलमान बन गया है एवं ऐसे ही एक अन्य दस्यु पर मुसलामानों के गिरोह के साथ आक्रमण करता है.
दो तीन माह पश्चात मोहम्मद अपने तीसरे 'गज़्वाह' के लिए निकला. इसका उद्देश्य था मक्का से चले एक कारवां, जिसका नेतृत्त्व 'अबू सुफियान' कर रहा था, को उशीरा नामक स्थान के निकट लूटना. इसके लिए लगभग २०० लोग तत्पर हुए. इस गिरोह के पास ३० ऊंट थे, इसलिए कुछ समय के लिए कुछ व्यक्ति सवारी करते और अन्य चलते. तत्पश्चात सवार उतर कर चलते और अन्य ऊंट की सवारी करते रहे. इस प्रकार, जब वे निश्चित आक्रमण स्थल पर पहुंचे तो कारवां कुछ दिन पहेल ही वहाँ से जा चुका था. 
ये वहीं कारवां है जिस के सीरिया से लौटते समय उसे मुसलामानों द्वारा लूट लिया जाएगा. इस घटना को बद्र की घटना के नाम से जाना जाता है. 
मोहम्मद के हाथ से कारवां तो बच गया किन्तु उशीरा के कई कबीलों से उसने अपने मैत्री संबंध स्थापित कर लिए. इस प्रकार, वो अपना प्रभाव व्यापार मार्ग पर बढ़ाता जा रहा था. इसका परिणाम था कि मक्कावासियों के लिए व्यापार मार्ग दुष्कर होता जा रहा था.

नमाज़ के लिए नियुक्तियां

मोहम्मद ने मदीना में नमाज़ की परंपरा स्थापित कर दी थी. जब वो मदीना में होता तो नमाज़ करवाता था और जब किसी 'गज़्वाह' पर जात था तो नमाज़ का दायित्व किसी अन्य व्यक्ति दो दे कर जाता था. इसके लिए पहले अवसर पर उसने बानू खाज्राज के मुखिया 'साद बिन ओबैदा' को नियुक्त किया था. दूसरे अवसर पर बानू ऑस के मुखिया 'साद बिन मोआध' को इस कार्य के लिए चुना. इस प्रकार उसने दोनों प्रतिद्वंद्वी कबीलों को अपनी चतुरता से अपने साथ मिलाये रखा. तीसरे अवसर पर 'नमाज़' के लिए उसने अपने मित्र 'ज़ायेद' को चुना.
आगामी दो महीने अर्थात सन ६२३ के नवम्बर एवं दिसंबर में मोहम्मद किसी गज्वाह के लिए नहीं गया; उसने अब्दुल्लाह बिन जैश को सात मुहाजिरों के साथ नखल घाटी की ओर रवाना किया. इस गज़्वाह में इस्लाम की पहली जीत अंकित हुई.