३ अप्रैल, १९८६
मुजद्दिद अलफ सानी द्वितीय के अनुसार भारत में गाय की हत्या एक महान इस्लामी परंपरा है . ये उन की दूरदर्शिता थी कि उन्होंने गोहत्या को एक महान इस्लामी परंपरा के रूप में वर्णित किया था. ये परंपरा अन्य स्थानों पर नहीं है. किन्तु भारत में निश्चित रूप से ये एक महान इस्लामी परंपरा है क्योंकि भारत में गाय को पूजा जाता है. यदि मुसलामानों ने गोहत्या को त्याग दिया तो संभव है कि आने वाली पीढियां भी गाय को पवित्र मानने लग जायेंगी.
ये शब्द हैं मौलाना अबुल हसन अली नदवी के. ये कोई पाकिस्तानी अथवा बंगलादेशी मौलाना नहीं था बल्कि स्वतंत्र भारत के लखनऊ में बने नदवातुल उल्लेमा का प्रधान था. ये शब्द कहे गए थे जेद्दाह में और कहे गए थे भारत और पाकिस्तान के मुसलामानों से जो वहाँ हज पर गए थे. इस मौलाना को उन भारतीय प्रसार माध्यमों में, जिन्हें परोक्ष अथवा प्रत्यक्ष रूप में तंत्र संचालित करता है, वो समाचार पत्र हों अथवा टी.वी. एक उदारवादी मुसलमान के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है.
इस से दो बातें स्पष्ट होती हैं. पहली तो ये कि गोहत्या इस्लाम की अनिवार्यता नहीं है, ये केवल हिन्दुओं को नीचा दिखाने के लिए है.
गोहत्या के पीछे छिपी जो सोच है उसका एक उदाहरण हमें तैमुर लंग द्वारा लिखी गई उसकी आत्मकथा मल्फुज़त - ऐ- तैमूरी से मिलता है;
मैंने चेनाब के किनारे एक खेत में अपना शिविर लगाया. मैं अपने जिन आमिरों को घात लगाने के लिए छोड़ गया था, उनके कुछ घुड़सवार मेरे पास आये और उन्होंने मुझे बताया कि जब मैं वहाँ नहीं था तो जम्मू का राजा कुछ अन्य घृणित काफिरों के साथ पहाड़ों से आया था. जब वो समतल क्षेत्र में पहुंचे तो आमिरों ने अपने घात के स्थानों से निकल कर उन पर आक्रमण किया और बहुत से काफिरों को मार दिया. उनमें से कुछ जो घायल और थके हुए थे, जंगलों में भाग गए. दौलत तैमुर तावाची, हुसैन मलिक कुचिन और अन्य, जो आमिर शेख नूरुद्दीन की तुमान में थे जम्मू के राजा और लगभग ५० राजपूत बंधकों को ले कर आ रहे हैं. मैंने अल्लाह का शुक्रिया अदा किया कि मोहम्मदी सम्प्रदाय के शत्रु या तो ईमान वालों के द्वारा काट दिए गए हैं अथवा बंदी बना लिए गए हैं. अभी कल वो अपनी संख्या के बल पर और जंगलों की सघनता के विश्वास से विद्रोह कर रहे थे, और ab, अल्लाह के रहम से, वो मेरे बंदी हैं. मैं उन ५० बंधकों को बेड़ियों और हथकड़ियों में बाँधने का आदेश दिया. जब मेरी दृष्टि जम्मू के राजा पर पड़ी जो कि घायल था, उस के ह्रदय को भय ने घेर लिया और वो जीवन दान के लिए धन देने को और मुसलमान बनाने के लिए तत्पर हो गया. मैंने उसी क्षण उसे मुसलमान बनाने का आदेश दिया. उसने कालिमा पढ़ा और मुसलमान बन गया. इन काफिरों में गोमांस खाने से बड़ा कोई अपराध और पाप नहीं माना जाता,लेकिन उसे मुसलामानों के साथ गोमांस खिलाया गया. इस प्रकार जब वो इस्लाम में शामिल किया गया तो मैंने अपने चिकित्सक से उसके घावों की चिकित्सा करने के लिए कहा. इसके पश्चात मैंने उसे शाही पोशाक और भेंट से सम्मानित किया.
यदि आपको इसपर आश्चर्य हो रहा है कि इतनी महत्तवपूर्ण और वहशी घटना के विषय में अधिकतर भारतीयों को जानकारी क्यों नहीं है तो इसका कारण है कि नेहरु अपनी पुस्तकों के माध्यम से इस्लामी आक्रान्ताओं के घिनौने चेहरे को छिपाने के प्रयत्न स्वतंत्रता से पहले ही करने लग गया था. इसका एक उदाहरण दिया गया है - नेहरु एक अन्तर्यामी में. स्वतंत्रता के उपरान्त तो इसने सभी पाठ्यपुस्तकों का नियंत्रण मार्क्सवादी अथवा मुसलामानों के हाथों में दिए रखा. ज्ञात हो कि ये दोनों विचारधाराएँ हर उस वस्तु से घृणा करती हैं जो भारतीयता अथवा हिन्दू धर्म का प्रतीक है.
भारत के इतिहास में मुसलामानों द्वारा गोहत्या के द्वारा हिन्दुओं को नीचा दिखाने का क्रम मोहम्मद बिन क़ासिम ने सन ७१२ में आरम्भ कर दिया था. इस का उल्लेख प्रसिद्द लेखक अल - बिरूनी ने किया है.
अल - बिरूनी लिखता है:
मुल्तान में सूर्य को समर्पित एक प्रसिद्द मूर्ती थी, जिसे आदित्य कहते थे. ये लकड़ी से बनी थी और इसकी आँखों के स्थान पर दो लाल माणिक जड़े थे. जब मोहम्मद बिन क़ासिम ने मुल्तान को जीत लिया तो उसने नगर के वैभव का कारण पता लगाने और इतने सारे कोष एकत्रित होने का कारण जानने के प्रयास किया तो उसे पता लगा कि इसका कारण यही प्रसिद्द मूर्ती है. यात्री सभी दिश्साओं से इसे एक तीर्थ मान कर आते हैं. आय के इस स्त्रोत को बचाए रखने के लिए उसने मूर्ती को तोड़ना उचित नहीं जाना और उसे वहीं रहने दिया. किन्तु उसका उपहास करने के लिए उसके गले में गाय का मांस लटका दिया. उसी स्थान पर उस ने एक मस्जिद बना दी. जब जालम बिन शिबन और उस के कमातियों ने मुल्तान को जीत लिया तो उन्होंने मूर्ती तोड़ दी और ब्राह्मणों की हत्या कर दी.
ये नीच कर्म मुसलामानों द्वारा गत १३०० वर्षों से चला आ रहा है. यहाँ तक कि अकबर, जो कि सब से उदार मुसलमान शासक रहा है, के राज्य में भी ये क्रम टूट नहीं पाया था. उसके काल में लिखी गयी तबाक़त - ऐ - अकबरी में हिमाचल प्रदेश के नगरकोट के दुर्ग के विषय में निज़ामुद्दीन अहमद लिखता है:-
भीम का दुर्ग (हिसार) जो कि महामाई का मंदिर है और जिस में एक मूर्ती स्थापित है, आक्रान्ताओं के पराक्रम से पहले ही आक्रमण में जीत लिया गया. राजपूतों का एक समूह, जिन्होंने निर्णय कर लिया था कि वो मरने को तत्पर हैं, हताश हो कर लड़ते रहे, जब तक कि सब काट नहीं डाले गए. भारी संख्या में ब्राह्मण, जो मंदिर में कई वर्षों से सेवा करते आ रहे थे मार डाले गए. इन ब्राह्मणों ने वहाँ से भाग कर बचने के विषय में सोचा तक नहीं और मारे गए. हिन्दुओं की लगभग २०० गायें, मंदिर में आश्रय लेने के लिए एकत्रित हो गयीं. कुछ वहशी तुरुष्कों ने इन गायों को एक एक कर के मार दिया. इसके पश्चात उन्होंने अपने जूतों में गायों का रक्त भर कर उन्हें मंदिर की दीवारों और छत पर फेंका.
नगरकोट इस प्रकार का अपमान फ़िरोज़ शाह तुगलक के काल में भी झेल चुका था. इसका वर्णन इतिहासकार फ़रिश्ता अपने लेख में इस प्रकार करता है:
राजा नगरकोट के पर्वतों की ओर बढ़ा, जहां उसे ओलावृष्टि और हिमपात का सामना करना पड़ा. नगरकोट के राजा ने कुछ हानि सहन करने के पश्चात फ़िरोज़ शाह के समक्ष समर्पण कर दिया. इस पर नगर का नाम नगरकोट से मोहम्मदाबाद कर दिया गया.... कुछ इतिहासकारों का मत है कि फ़िरोज़ ने नगरकोट की मूर्तियाँ तोड़ी थीं. उनके टुकड़ों को गोमांस में मिला कर पोटलियों में भर दिया. ये पोटलियाँ ब्राह्मणों के गलों से बाँध कर उन्हें शिविर में चलाया गया. वहाँ की मुख्य मूर्ती को मक्का के लिए रवाना कर दिया ताकि उसे वहाँ जाने वाली सड़क पर फेंक दिया जाए जिस से कि हज यात्री उस पर पाँव रख कर जाएँ. इसके साथ उसने मक्का के मौलवियों और हज यात्रियों को देने के लिए १००,००० टंके भी भेजे.
औरंगज़ेब की अखबारात में भी यही मानसिकता दिखलाई पड़ती है:
शहंशाह ने मोहम्मद खलील और खिदमत राय, जो कि कुल्हाड़ी चलाने वालों के दरोगा थे, को बुलाया, उन्हें शिविर का मंदिर तोड़ने को कहा और आदेश दिया कि मंदिर में गायें काटी जाएँ. ऐसा ही किया गया.
सन १७६२ में, अर्थात मोहम्मद बिन क़ासिम के मुल्तान आक्रमण के १०५० वर्ष उपरान्त, वो क्षेत्र जहां भारतीय संस्कृति के दो प्रमुख केंद्र गांधार और कम्बोज थे, हिन्दुओं को मार कर अथवा मुसलमान बना कर अफगानिस्तान बन चुका था. यहाँ अहमद शाह अब्दाली नामक फ़ारसी ने अपना राज्य बना लिया था जिसका केंद्र गांधार (वर्तमान कंधार) था. इसने पंजाब पर सात आक्रमण किये और इनमें से एक में उसने हरमंदिर साहिब को ध्वस्त कर दिया और उसका मलबा पवित्र सरोवर में गिरा दिया. फिर परिसर में गायों की हत्या कर के उसे अपवित्र कर दिया.
वर्तमान में, जब कि हमें लगता है कि लोकतंत्र स्थापित है और सम्पूर्ण विश्व सभ्य हो रहे हैं, इस वहशी परंपरा के समर्थक पूरी निर्लज्जता से और निर्भीकता से इसे अपना अधिकार बताते हैं. कदाचित इन्हें लगता है कि ये आज भी सातवीं शताब्दी में ही जी रहे हैं.
वर्तमान में, जब कि हमें लगता है कि लोकतंत्र स्थापित है और सम्पूर्ण विश्व सभ्य हो रहे हैं, इस वहशी परंपरा के समर्थक पूरी निर्लज्जता से और निर्भीकता से इसे अपना अधिकार बताते हैं. कदाचित इन्हें लगता है कि ये आज भी सातवीं शताब्दी में ही जी रहे हैं.
अंग्रेज़ों की फूट डालो वाली नीति को भारतवर्ष के बंटवारे के पश्चात पूरे हिन्दू समाज पर एक सोचे समझे षड्यंत्र के अंतर्गत आरोपित कर दिया गया है. इसका परिणाम है कि आज पूरे समाज को छोटे छोटे समूहों में बाँट दिया गया है. प्रत्येक वर्ग को लालच दे कर अन्य श्रेणी में विभाजित कर दिया है. यदि समय रहते हिन्दू समाज नहीं जागा तो विघटनकारी शक्तियां भारत का अस्तित्व समाप्त कर देंगी. यदि संश्सय हो तो बंगाल, काश्मीर और केरल की भयावह स्थिति को देख लीजिये जहां आसुरी शक्तियां हावी हो गयी हैं.
जय श्री कृष्णा , गोभ्यो नम: ............... सर हम हमारे क्षेत्र से गौ हत्या बंदी के लिए हम एक ग्रुप बनाना चाहते हे ताकि हम हमारे क्षेत्र की गयो को बहार जाने से रोक सके और गौ शालाओ में भी सुधार कर सके जिसके लिए हमें आपकी मदद मिल जाये और मिलती रहेगी तो बड़ी कृपा होगी. और आगे आपका मार्गदर्शनहोता रहे तो अच्छा रहेगा.....लोग कहते हे की सर्व प्रथम अपने घर में सुधर लाओ फिर आगे इस लिए हमने पहले क्षेत्र की बात कही हे............ युगल किशोर पंड्या [राधे गुरु] माँ ब्राह्मणी शक्ति पीठ सामानेरा, तह तराना, जिला उज्जैन [म.प.] मो.९६९१७४९६२७
जवाब देंहटाएं