शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

खरज



जिन दिनों अल्लाउद्दीन खिलजी की सल्तनत थी, उन दिनों मिस्र से एक मौलवी भारत भ्रमण पर आया तो वो यहाँ की स्थिति देख कर अत्यंत प्रसन्न था. इस का नाम था मौलाना शमसुद्दीन तुर्क. इस की प्रसन्नता का कारण था कि 
अल्लाउद्दीन ने हिन्दुओं की स्थिति इतनी दयनीय और गिरी हुई बना दी थी कि हिन्दुओं की महिलायों और बच्चों को मुसलामानों के द्वार पर भिक्षा मांगने के लिए विवश कर दिया था. 
ज़ियाउद्दीन कृत तारीख -ऐ - फ़िरोज़ शाही पृष्ठ २९१, २९६-२९७ 
 अल्लाउद्दीन का ये अभिलेखक विकृत प्रसन्नता से लिखता है कि इस सुलतान के राज्य काल में हिन्दुओं को जिस प्रकार कुचल दिया गया है, वैसा न तो कभी भूतकाल में हुआ है और न ही आगे होगा. इस वाक्य का प्रथम अंश तो सच है किन्तु दूसरा अंश झूठ सिद्ध हुआ क्योंकि इस्लाम की शक्ति बढ़ने के साथ साथ हिन्दुओं की समस्याएं अगली कई शताब्दियों तक बढ़ने ही वाली थी.
 ऊपर वर्णित हिन्दुओं की दुर्दशा के कारण यूं तो कई थे किन्तु आर्थिक दुर्दशा का कारण था सुलतान द्वारा हिन्दुओं पर लगाया गया एक भूमि कर जिसे खरज कहा जाता था. खरज का इस्लाम में एक विशेष स्थान है. 
ऐतिहासिक दृष्टि से इस्लाम के पहले खरज गुज़ार खैबर नामक स्थान के यहूदी थे, जिन्हें इस्लाम के जन्मदाता मोहम्मद ने खरज देने की एवेज में ही जीवित छोड़ा था. उल्लेखनीय है कि खैबर के इन यहूदियों के मुखिया की हत्या करने के उपरान्त, उसकी २० वर्षीया आकर्षक विधवा बर्रा को अपने हरम में शामिल कर लिया था. इसका नाम सय्यिदा जुवैरिय्या रख दिया था. उस समय मोहम्मद की आयु लगभग ६० वर्ष थी और उस के हरम में पहले से ही ७ पत्नियां और २ उपस्रियाँ (रखैल) थीं.
 


इस के मुख्यतः तीन उद्देश्य थे. सुलतान को अधिक से अधिक धनवान बनाना, हिन्दुओं के पास केवल इतनी सामग्री छोड़ना कि वे केवल अपने जीवन यापन में लगे रहे और कभी विद्रोह के लिए सर न उठा सकें और तीसरा, हिन्दुओं के स्वाभिमान का नाश करके उन्हें मानसिक स्तर पर नष्ट कर के मुसलमान बनाना.
परिणामतः हिन्दुओं के घरों से सोना और चांदी नाम मात्र को भी नहीं बचा था. उन की महिलायों को मुसलामानों के घरों में छोटे मोटे कार्य कर के वेतन से जीविका चलाना पड़ता था. ज़ियाउद्दीन बारानी आगे हर्षित हो कर लिखता है कि सुलतान हिन्दू किसानों के पास केवल इतनी सामग्री रहने देता है कि वो अपना जीवन जी सकें और अन्य सब कुछ खरज और अन्य करों के रूप में छीन लिया जाता है.  खरज इकठा करने के लिए एक विश्सेश मंत्रालय भी बनाया गया, जिस का नाम था दीवान - ऐ - मुस्ताखाराज.
ये कुचलने वाली कर प्रणाली किसान को अपना अंतिम दाना तक सुलतान द्वारा नियंत्रित मूल्यों पर बेचने के लिए विवश कर देती थी. संभवतः आज का भ्रष्ट तंत्र भी यहीं से सीख ले कर चलता  है.


एक दिन अलाउद्दीन खिलजी ने जब इस्लाम के कानून के अंतर्गत हिन्दुओं के विषय में पोछा तो क़ाज़ी मुघिसुद्दीन ने उसे कहा,  
हिंदुयों को खरज गुज़ार की भांति जीवन व्यतीत करना चाहिए. जब कर अधिकारी उन से खरज देने को कहे तो  हिन्दू को विनम्रता और भय के साथ साथ पूर्ण आदर से कर देना चाहिए. और यदि  अधिकारी की इच्छा उस के मुंह में थूकने की हो तो वो अपना मुंह बिना हिचकिचाए खोलेगा ताकि अधिकारी उस के मुख में थूक सके. अधिकारी का हिन्दू के मुंह में थूकने और हिन्दू द्वारा विनम्रता पूर्वक व्यवहार का उद्देश्य है इस्लाम के परंपरागत दीन को स्थापित करना और झूठे(हिन्दू) धर्म को नीचा दिखाना. अल्लाह इन्हें नीचा दिखाने का आदेश (कुरान में) देता है, क्योंकि हिन्दू सच्चे पैगम्बर के सबसे भयंकर शत्रु हैं. मुस्तफा के आदेशानुसार उन्हें लूटने, मार डालने और बंदी बनाने की व्यवस्था है ताकि वे या तो सच्चे दीन पर चलें अथवा बंधक बना दिए जाएँ या मार दिए जाएँ. अन्य सभी मौलाना और इस्लाम के जानकारों के अनुसार हिंदुयों को दो में से किसी एक को चुनना होगा, इस्लाम अथवा मौत. केवल इमामेआज़म अबू हनीफा के अनुसार हिंदुयों को जिज्या ले कर बख्शा जा सकता है.
ये सुनने के उपरान्त अल्लाउद्दीन, जो कि मौलवियों से अधिक अपने अधिकारियों की सुनता था, हंसने लगा. उसने कहा
मैंने ऐसे कानून को स्थापित कर दिया है कि मेरे आदेश के भय से हिन्दू चूहों की भांति बिल में घुस जाते हैं. और अब तुम मुझसे कह रहे हो कि ये अल्लाह का कानून (शरिया) है कि हिनदुओं को कुचल कर दरिद्र और आज्ञाकारी बना कर रखो. ध्यान रहे, हिन्दू तब तक मुसलामानों के सामने विनम्र और आज्ञाकारी नहीं होंगे जब तक कि वो दरिद्र और बेबस नहीं हो जाते.
इसलिए सुल्तान ने उन्हें बेबस बना दिया. उनकी बेबसी और दरिद्रता इस सीमा तक पहुँच गयी कि कई किसानों को खरज चुकाने के लिए अपनी पत्नी और बच्चों को बेचना पड़ जाता था. भारतीय इतिहास में ये सब से पुरातन अवसर है जहां कर चुकाने के लिए प्रियजनों के बेचे जाने का उल्लेख है. इसके उपरान्त कई शताब्दियों तक भारतीय किसानों और जन साधारण पर होने वाले अमानवीय अत्याचारों का वर्णन विदेशी यात्रियों द्वारा कई स्थानों पर मिलता है.
अल्लाउद्दीन के पश्चात, घियासुद्दीन तुग़लक ने भी इसी प्रकार का फरमान जारी किया था, जिस के अनुसार:
हिन्दुओं के पास केवल इतनी ही सामग्री छोड़ी जाए कि न तो वो अपने वैभव से इतने शक्तिशाली हो जाएँ कि सर उठा सकें और न इतना कम छोड़ा जाए कि वो भूमि छोड़ कर भाग जाएँ.

मोहम्मद बिन तुग़लक  के शासन काल में कर जैसे कि खरज और जिज्या इतने बढ़ा दिए गए कि जन साधारण अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं से भी वंचित रहने लगे. नागरिकों ने गाँव छोड़ कर वनों में शरण लेना उचित समझा. इस से सुल्तान इतना क्रोधित हो गया कि उसने जंगली जानवरों की भांति इन का ढूंढ ढूंढ कर वध करना आरम्भ कर दिया.
हजिउद्दबिर, ज़फर उल वाली; बरनी पृष्ठ संख्या ४७९-४८० 


सल्तनत के पश्चात जब मुगलों का शासन आया तो बाबर और हुमायूं ने किसानों पर अधिक ध्यान नहीं दिया. अकबर ने एक ओर तो हिन्दुओं को राहत दे दी कि उन से जिज्या लेना बंद हो गया, दूसरी ओर उसने भूमि को कई श्रेणियों में बाँट दिया ताकि किसानों से अधिकतम पूँजी निकाली जा सके. इस से मुग़ल शासनकाल में किसानों की स्थिति और भी बिगड़ने लग गयी. 
मोरलैंड, जिसने मुग़ल काल की कृषि व्यवस्था के अध्ययन किया है, का निष्कर्ष है कि मुग़ल काल में करों में निरंतर वृद्धि होती रही थी. कश्मीर में दो तिहाई तक उपज कर के रूप में वस्सोली जाती थी. सिंध के जागीरदारों से आधी उपज कर स्वरुप ली जाती थी.  
 W.H. Moreland, From Akbar to Aurangzeb, pp. 253-55
गेलिसन, जो १६२९ में भारत आया था, के अनुसार, गुजरात में किसानों से उन की उपज का तीन चौथाई भाग (७५%) कर स्वरुप ले लिया जाता था.  यही निष्कर्ष अन्य यात्रिओं और विशलेषकों डी लेट, फ़्राइएर और वैन ट्विस्ट का है. 
 Moreland in Journal of Indian History, IV, pp. 78-79 and XIV, p. 64
अकबर के अभिलेखक अबू फ़ज़ल के अनुसार - 
यदि बाढ़, अति वृष्टि अथवा अनावृष्टि (सूखा) के कारण उपज नष्ट हो जाती थी तो शासक की ओर से क्षतिपूर्ति तो नहीं मिलती थी, अगले वर्ष ४०%, उस से अगले वर्ष ६०% और उस से अगले वर्ष ८०% उपज ले ली जाती थी. उसके अगले वर्ष प्रचलित दर से कर लिया जाता था. 
 अबू फ़ज़ल द्वारा सावधानी पूर्वक लिखे गए खाते इस की पुष्टि करते हैं. 
 Ain-i-akbari, Jarret, vol. II, p. 73.
इस से स्पष्ट है कि किसान बढ़ते करों के तले दबा ही रहता था. ज्ञात हो कि इस अकबर की ५,००० रानियाँ थी. इतने बड़े हरम के रख रखाव के लिए धन किसानों के खून पसीने से ही आता था. आज के भ्रष्ट मार्क्सवादी इतिहासकार इस अकबर को महान की उपाधि से सजाने का कोई अवसर नहीं छोड़ते.
उसके  बेटे शाहजहाँ के शासनकाल में किसानों की स्थिति इतनी विकट हो गयी कि खरज चुकाने के लिए किसान अपने बच्चे और पत्नी बेचने पर विवश हो गए थे. 
Manucci, vol. II, p. 451


इसी प्रकार मनरिक (जो १६२८ से १६४३ तक भारत में रहा) लिखता है कि किसानों को पकड़ कर गुलाम मंडियों में बेच दिया जाता था, जहां उनके पीछे पीछे उन की रोटी हुई पत्नियां बिलखते हुए बच्चों को गोद में लिए चल रही होती थीं. बर्निअर इस की पुष्टि करता है कि वो अभागे किसान जो लालची आकाओं को खरज नहीं चुका पाता था, उसके बच्चे उस से छीन कर गुलाम मंडियों में बेच दिए जाते थे. जो बंधुआ मजदूरी की कुप्रथा हम आज भी देखते हैं, ये हमें इस्लाम की ही देन है.
Manrique II, p. 272.

मनुच्ची खरज वसूलने के ढंग पर भी प्रकाश डालते हैं - 
यदि कोई भूखा राक्षस किसी क्षेत्र को नष्ट करना चाहे तो वो राजा के पास जाता है और कहता है,"यदि सुल्तान मुझे कुछ सशस्त्र लड़ाके दे दें और अनुमति दें तो मैं अमुक धन आप को दे दूंगा. ये राशि उस क्षेत्र से मिलने वाली वर्तमान राशि से अधिक होती थी.  राजा के पूछने पर वो बताता कि धन लोगों से एकत्रित किया जाएगा. राजा इन लोगों को अनुमति देने के लिए एक फरमान दे देता था, जो घोषित करता था कि ये व्यक्ति को जागीर प्रदान की जा रही है. इन्हें इजारादार अथवा जागीरदार कहा जाता था. ये अपनी जागीर के प्रत्येक निवासी को पकड़ कर उसे यातना दे दे कर धन एकत्रित करते थे. साधारनतया ये राजा को बतायी हुई राशि से चार गुना धन एकत्रित करते थे. राजा ये सब जानता था कि धन कैसे एकत्रित किया जाता है, वो अपने लालच के लिए सब स्वीकार कर लेता था.
फरमान ले कर जब ये जागीरदार पहुँचता था तो पहला जागीरदार उसे तब तक कार्य नहीं करने देता था, जब तक कि उसे भी कुछ धन भेंट स्वरुप नहीं मिल जाता था. ये धन भी नया जागीरदार किसानों से निकलवाता था. इस प्रकार हर फरमान के साथ खरज तथा अन्य करों की राशी बढती जाती थी.
खरज घ्रिणा, अपमान, भय, क्रूरता, साम्प्रदायिक अत्याचार और उन असीम यातनाओं का प्रतीक है जिसे हिन्दुओं ने कई शताब्दियों तक सहन किया. ये सब सहने के पश्चात भी यदि ये संस्कृति जिसे वैदिक, सनातन, आर्य अथवा हिन्दू संस्कृति के नाम से जाना जाता है तो इसका श्री उन असंख्य पुरुषों और महिलायों को जाता है जो इतनी विकट स्थितियों में भी अदम्य साहस से डेट रहे. यदि हमारे ये पूर्वज, जिन्हें मार्क्सवादी इतिहासकार हमारे स्मृति पटल से लगभग मिटा चुके हैं, संघर्ष न करते तो आज हम भी मिस्र, रोम तथा यूनान की सभ्यताओं की भांति मिट चुके होते और तालिबानियों की भांति अपने पूर्वजों के धर्म का विनाश कर रहे होते.

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