बुधवार, 29 दिसंबर 2010

सेंट ज़ेविअर की देन: इन्कुइसिशन

इसाई मत की विचित्र मान्यता 

इसाई मत के अनुसार जो व्यक्ति जीसस क्राइस्ट को 'एक मात्र भगवान्' अथवा 'इश्वर का अकेला पुत्र' नहीं मानता, वो मरने के उपरान्त सदा के लिए नर्क (एटर्नल डेम्नेशन) का भोग करेगा, और जो इस को स्वीकार कर लेगा, वो सदा के लिए स्वर्ग में रहेगा.
देखा आपने! कितना सीधा सा विधान है. आप का लोगों के प्रति व्यवहार अधिक प्राथमिकता नहीं रखता. आप के आचार विचार कैसे हैं, ये भी अधिक महत्वपूर्ण नहीं है. यदि आप एक नेक इंसान हैं और समाज तथा विश्व के लिए अच्छे कार्य करते हैं लेकिन आप जीसस अथवा यीशु की शरण में नहीं आये तो आप का स्थान केवल नर्क ही है.

एक सरल प्रश्न 
लगभग दो शताब्दी पहले एक ब्राह्मण ने जब इस तर्कहीन मत को पढ़ा तो उसने मिशनरियों से एक प्रश्न पूछा;
यदि इश्वर का ये विधान है तो इश्वर ने घोर अन्याय किया है क्योंकि आप मिशनरियों को भारत तक ये संदेश लाने में लगभग १७०० वर्ष लग गए. इन १७ सदियों में जितने भारतीय मरे हैं, उन्होंने जीसस को 'इश्वर का अकेला पुत्र' (ओनली बेगौटन सन) नहीं माना था इसलिए वो सब बिना अपने किसी अपराध के सदा के लिए नर्क की अग्नि में जल रहे होंगे. इसका अर्थ हुआ की जीसस निर्दयी है जब कि आप कहते हैं कि वो दयावान है. कृपया ये विरोधाभास दूर कीजिये?
मिशनरियों को आज तक इस का उत्तर नहीं मिला.

कई सरल उत्तर 
 
लेकिन यदि आप सोचते हैं कि इस से मिशनरी हार मान लेंगे तो ये आप की भूल है. तर्क तो इनका सबसे छोटा हथियार है. आइये इनके कुछ इश्वर के अकेले पुत्र का ज्ञान देने वाले उपकरण देखते हैं.
 बाएं दिए चित्र में आप एक लगभग तीन इंच लंबा और एक इंच ऊँचा उपकरण देख रहे हैं. ऊपर और नीचे जो दो लंबे पाटों के बीच में जो स्थान है, उस में उन नास्तिक लोगों की दो अंगुलियाँ अथवा अंगूठे रखवा दिए जाते हैं जो मिशनरी फादर की मीठी बातों और मुस्कान में आ कर पवित्र मत को नहीं अपनाता.  इसी चित्र के नीचे वाले भाग में अंगुलियाँ रखने का ढंग भी समझाया गया है. अब उजला लबादा पहने, होली फादर धीरे धीरे ऊपर बने पेच को कसना शुरू करता है. कल्पना कीजिये कि आप की अंगुलियाँ इस छोटे से उपकरण में फंसी हैं और ऊपर और नीचे से निकले हुए कील धीरे धीरे आप की त्वचा में चुभने लगे हैं. आप कितनी देर अपने तर्क को पकडे चिल्लाते रहेंगे. आप के पास रास्ता है जीसस क्राइस्ट को इश्वर मानना. इस से आप नर्क में जाने से बच जायेंगे जिस का छोटा से दृश्य करुणा से भरे फादर ने आप को दिखला दिया है. इस छोटे परन्तु प्रभावी उपकरण का नाम है थम्बरैक.
 ये भी थम्बरैक ही है केवल अंतर इतना है कि ये सारा लोहे से बना है और इसमें एक ओर एक छोटा सा अतिरिक्त छल्ला भी है. जब रैक में दो अंगुलियाँ रखी जाती थीं तो अंगूठा इस छल्ले में से निकाल कर मरोड़ देने की सुविधा दयावान फादर को मिल जाती थी.
लेकिन यदि आप सोच रहे हैं कि आप कठोर हैं और इस उपकरण से नहीं डरेंगे तो आप के लिए एक थोड़ा बड़ा उपकरण भी है.
यहाँ जो दायीं ओर उपकरण है, ये उपकरण कैसा दिख रहा है. अरे! आप तो डर रहे हैं. आप को तकनीक की प्रशंसा करनी चाहिए और इस तथ्य पर गर्व होना चाहिए कि इसाई संत कितने मॉडर्न विचारों के थे और नयी तकनीक का उपयोग करते थे.
यहाँ जो कीलों के बीच स्थान है, उस में आप की कलाई अथवा घुटना रखा हो तो कैसा अनुभव होगा?
अरे नहीं! आप इस तहखाने में अकेले थोड़े ही होंगे. करुणा की मूर्ती, हमारे होली फादर और उनके सहयोगी भी होंगे न. वो ऊपर वाले भाग पर धीरे धीरे भार बढाते रहेंगे. उनके पास ऐसा ही एक और भी तो था जो अब आप के दूसरे घुटने पर लगा दिया गया है. 
जब ये लोग इतने प्यार से आप को समझा रहे हैं तो आप अपने पूर्वजों की पूजा पाठ की पद्दति छोड़ क्यों नहीं देते. हठयोग छोडिये और ओनली बिगौटन सन  की शरण में आ जाइए.
ये उपकरण इन्कुइसिशन के समय प्रयोग किये जाने वाले उपकरणों का एक छोटा सा भाग हैं. इस से भी परिष्कृत उपकरण आप को देखने को मिलेंगे.

इन्कुइसिशन की परिभाषा 

इन्कुइसिशन (INQUISITION:a former special tribunal, engaged chiefly in combating and punishing heresy.): इस अंग्रेजी भाषा के शब्द का अर्थ शब्दकोष के अनुसार है - एक ऐसी जांच अथवा पूछ ताछ जो चर्च के मत के विरुद्ध मत रखने वालों  को दंड देने के लिए की जाती थी.

भारत में आरम्भ 
 
भारत में और हिन्दुओं के लिए तो इसका विशेष महत्त्व था क्योंकि ये तो सदियों पुरानी सभ्यता है और तर्क वितर्क पर आधारित है. यूं तो इन्कुइसिशन तेरहवीं सदी में ही आरम्भ हो गयी थी लेकिन भारत में ये प्रेम भरी पूछ ताछ सोलहवीं सदी में पहुँच पायी थी. इस का श्री जाता है फ्रांसिस ज़ेविअर नामक व्यक्ति को.
सोलहवीं सदी तक इसे इग्नाशिअस लोयोला नामक एक स्पेनवासी ने सोसाइटी ऑफ जीसस  नामक विशाल संगठित गिरोह का स्थापन किया था जिस के सदस्यों को जेसुइट कहा जाता है. लोयोला का मुख्य सेवक और शिष्य फ्रासिस ज़ेविअर जब एक मिशनरी के रूप में भारत पहुंचा तो उसे ये देख कर दुःख हुआ कि वो हिन्दू जिन्हें बलपूर्वक अथवा प्रलोभन दे कर इसाई बनाया जाता था, वो फिर से मूर्ती पूजा में लग जाते थे. इस अपराध को रोकने के लिए इस दया की प्रतिमूर्ति ने १५४५ में पुर्तगाल के जोहन त्रित्तिय को पत्र लिख कर गोवा में इन्कुइसिशन स्थापित करने को कहा.
जी हाँ, आप ने सही पहचाना. ये भारत भर में सेंट ज़ेविअर के नाम से विख्यात है. आज हमारे राष्ट्र में इस डकैत के नाम से सैंकड़ों की संख्या में संस्थान खुले हुए हैं और इसके नाम के आगे सेंट लगा होता है. यहाँ से पढ़ कर निकलने वाले ये ज्ञान ले कर निकलते हैं कि वो एक संत था और हिन्दू धर्म के संत, अर्थात ब्राह्मण धूर्त थे और अत्याचार करते थे. प्रमाण के रूप में वो आज कल के पंडितों को देख लेता है.

प्रसिद्द फ्रांसीसी दार्शनिक वोल्टायार ने कहा है:
हमने दिखा दिया है कि हम धूर्तता और वीरता में हिन्दुओं से कहीं आगे हैं और ज्ञान में कहीं पीछे हैं.
इसी धूर्तता का परिणाम है आज भारत में स्थापित शिक्षा प्रणाली जिस से निकले हुए हिन्दू भी ब्राह्मणों को धूर्त और मिशनरियों को दयावान मानते हैं. आज इसी मानसिकता वाले गधे शासन और प्रशासन में भरे हुए हैं, जो एक तोते की भांति रटा रटाया तो बोल सकते हैं लेकिन सत्य नहीं ढूंढ सकते.

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