चीन का विद्यार्थी, फा हीन, सन ३९९ से लेकर ४१४ तक, लगभग १५ वर्ष भारतवर्ष में रहा. उसे अपने मूल निवास चांग-गन से भारत आने में छः वर्ष तक यात्रा करनी पड़ी थी जो अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि भारत की ख्याति एक विद्या के केंद्र के रूप में फैली हुई थी.
हयून सांग, एक और प्रसिद्द चीनी यात्री, भारत में सन ६३० में आया था. वो भारत और यहाँ के ब्राह्मणों के संबंध में लिखता है
हयून सांग, एक और प्रसिद्द चीनी यात्री, भारत में सन ६३० में आया था. वो भारत और यहाँ के ब्राह्मणों के संबंध में लिखता है
विद्वानों (वेद के ज्ञाता) ने अत्यंत ध्यानपूर्वक वेदों के गहन नियमों को पढ़ा होगा, तभी इनका गहन अर्थ समझ पाए.फिर वे उनका अर्थ सामान्य ढंग से बताते हैं, और अपनी छात्रों को कठिन शब्दों को समझने में सहायता करते हैं. वो उन्हें उत्साहित करते हैं और कुशलता से उनका संचालन करते हैं. वो छात्रों के अल्प ज्ञान में वृद्धि करते हैं और यदि कोई हताश होता है तो उसका मार्गदर्शन करते हैं.
दिन प्रश्नों के लिए छोटे पड़ जाते हैं. वे सुबह से रात तक विचार और वार्ता करते हैं. युवा और वृद्ध एक दूसरे की परस्पर सहायता करते हैं.
लाइफ ऑफ हयून सांग - सैमुअल बील खंड १ पृष्ठ ७९, खंड २, पृष्ठ १७०
प्रसिद्द फ्रांसीसी अलैन दैनिएलौ, जिस ने भारत के इतिहास, दर्शन और धर्म पर कई पुस्तकें लिखी हैं, के अनुसार:
युआन चवांग, एक और चीनी विद्यार्थी, जो नालंदा विश्व विद्यालय में ६२९ से ६४५ तक पढने के लिए आया था, लिखता है:
मार्को पोलो एक ऐसा यात्री था, जिसने तेरहवीं शताब्दी के विश्व के कई स्थानों का भ्रमण किया था. ये इटली के वेनिस नगर से आया यात्री भारत के ब्राह्मणों के संबंध में लिखता है:- हयून सांग नालंदा में पांच वर्ष तक रहा, जहां ७००० से अधिक भिक्षु रहते थे. वो भारी संख्या में संस्कृत साहित्य और इतिहास, भूगोल और सांख्यिकी की पुस्तकों का उल्लेख करता है. इन में से आज कुछ भी नहीं बचा है. वो उन अधिकारियों का भी उल्लेख करता है, जिन का दायित्व सभी महत्त्वपूर्ण घटनाओं को अंकित करना था. नालंदा में वेद, उपनिषद, संख्या, वैशेषिक, तर्क, न्याय जैसे विषय पढाए जाते थे. इन के अतिरिक्त व्याकरण, आयुर्वेद, भौतिकी तथा यांत्रिकी के अतिरिक्त जैन और बौध मत का भी अध्ययन होता था. दवाएं अत्यंत प्रभावकारी होती थीं और शल्यचिकित्सा भी अत्यंत विकसित थी. खगोल विज्ञान भी अत्यंत विकसित था. पृथ्वी के परिमाप की सटीक गणना कर ली गयी थी और भौतिकी में ब्रह्मगुप्त नें गुरुत्व का नियम खोजा था.
पृष्ठ १६५-१६६ - अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ इंडिया
युआन चवांग, एक और चीनी विद्यार्थी, जो नालंदा विश्व विद्यालय में ६२९ से ६४५ तक पढने के लिए आया था, लिखता है:
इस अधिष्ठान में सैंकड़ों बंधू हैं, सब के सब विद्वान् और कुशल हैं, इन में से कई अत्यंत प्रसिद्द और प्रतिष्ठित हैं; सभी बंधू अपनी व्यवस्था के उपदेशों और नियमों का पालन, विधिपूर्वक करते हैं. पढने में और तर्क वितर्क में उन्हें दिन अपर्याप्त लगता है. वो एक दूसरे को दिन रात ताड़ते हैं, छोटे बड़े, सभी एक दूसरे की सहायता करते हैं. विदेशों से भी विद्यार्थी यहाँ आते हैं, नालंदा के नाम से जहां भी जाते हैं, उन्हें सम्मान मिलता है.
थोमस वाटर्स खंड - २, पृष्ठ १६५
भारत के ब्राह्मण अति सम्माननीय हैं जो कि धोखाधड़ी से घृणा करते हैं और किसी और की वस्तु लेने को नीच कार्य समझते हैं. वे इस लिए भी विशिष्ट हैं क्योंकि वे एक ही पत्नी के साथ संतुष्ट रहते हैं.
मार्को पोलो पृष्ठ २९८
आज जहां इराक है, वहाँ के मुसलामानों के संबंध में मार्को पोलो लिखते हैं
उन के मत के अनुसार, जो भी किसी अन्य सम्प्रदाय से लूटा जाता है अथवा चोरी किया जाता है, वो उनका अपना हो जाता है. इनके मत में चोरी कोई पाप नहीं है. इनमें से जो ईसाईयों के हाथों मारे जाते हैं, उन्हें शहीद कहा जाता है. इसलिए, यदि शासकों द्वारा इन्हें रोका नहीं गया तो ये बहुत से अत्याचार करेंगे.
मार्को पोलो पृष्ठ ६३
अहमद, जो उन गिने चुने मुसलामानों में था जिन का कुबलई खान पर प्रभाव है, स्वभावतः ही अन्य सम्प्रदाय के लोगों पर अत्याचार किया करता था. वो जिसे मन करता, मौत के घात उतार देता, उनका धन और संपत्ति लूत लेता, और सबसे बुरा ये था कि वो और उसके पुत्र कई महिलाओं से बलात्कार करते थे और उन्हें उपस्री बनने पर बाध्य कर देते थे. अहमद के इन अत्याचारों के कारण अंततः किसी ने उस का वध कर दिया. जब कुबलई खान को अहमद के अत्याचारों का पता लगा, तो उसका ध्यान उसके सम्प्रदाय के मत की ओर गया, जिस में हर प्रकार के अपराध को, वो हत्या ही क्यों न हो, को बुरा नहीं समझा जाता था, यदि वो दूसरे सम्प्रदाय के विरुद्ध हो.
मार्को पोलो पृष्ठ १६३
ये कुछ विश्व प्रसिद्द व्यक्तियों के भारत की शिक्षा प्रणाली और शिक्षकों के संबंध में विचार थे. ये यात्री भिन्न स्थानों से और भिन्न काल खण्डों में आये थे. भारत में विश्व के प्राचीनतम और आधुनिकतम विश्व विद्यालाय थे.
ये महान विश्व विद्यालय कहाँ गए?इन विद्यालयों का नाश कर दिया गया और नाश करने वाले भी विदेशी थे.
इख्तियारुद्दीन बख्तियार खिलजी को क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने बिहार सहित सारा पूर्वी भारत लूटने के लिए नियुक्त किया था. इसने ११९७ से १२०२ तक पूर्व भारत में आतंक मचाया और नालंदा, उदान्तपुरी और विक्रमशिला विश्व विद्यालयों को नष्ट कर दिया. उस का समकालीन इतिहासकार मिन्हास सिराज लिखता है:-
इस स्थान के बहुत से निवासी ब्राह्मण थे और इन सभी ब्राह्मणों के सर मुंडे हुए थे. इन सब को मार दिया गया. वहाँ बहुत सी किताबें थी; मुसलामानों ने हिन्दुओं को बुलाया ताकि इन किताबों की जानकारी ले सकें;लेकिन सभी हिन्दू मार दिए गए थे. ये सारा स्थान एक महा विद्यालय था, जिसे यहाँ के लोग हिंदी भाषा में विहार कहते थे.
मुसलमान जहां भी आक्रमण करते थे, पुरुषों की हत्या कर देते थे और महिलाओं और बच्चों को बंदी बना लेते थे. महिलाओं और बच्चों को मुसलमान बना दिया जाता था. बच्चों में जो लड़के होते थे, उनके अंग भंग कर के उन्हें हिजड़ा बना दिया जाता था और हरम की रखवाली में रख दिया जाता था.
मोहम्मद बिन कासिम से लेकर अंतिम मुग़ल तक, जितने भी मुसलमान आक्रमणकारियों ने भारत पर हमले किये, सभी का उद्देश्य, भारत का वैभव और महिलाएं लूट कर ले जाना और इस्लाम की स्थापना था. ब्राह्मण मुसलमान सम्प्रदाय का सबसे बड़ा रोड़ा थे क्योंकि वे पढ़े लिखे और निःस्वार्थी होते थे. इसलिए उन्हें विशेष रूप से प्रताड़ित और समाप्त किया जाता था. फ़िरोज़ तुग़लक और सिकंदर लोदी ब्राह्मणों से विशेष घृणा करते थे. उन के अनुसार:-
ज़ुन्नार्दारान कलिद इ हुजरा इ कुफ्र उन्द व कफिरान बार एषां मुआत्किद उन्द;
तारीख ऐ फ़िरोज़ शाही - शम्स सिराज अफ़िफ
ये वाक्य फ़ारसी भाषा का है. इसका अर्थ है कि ब्राह्मण कुफ्र की खान थे जिन में हिन्दुओं को विश्वास था.
ये नए विदेशी ब्राह्मणों से किस प्रकार का व्यवहार करते थे, इस के लिए एक ब्राह्मण की हत्या का उदाहरण इस प्रकार है:-
ये नए विदेशी ब्राह्मणों से किस प्रकार का व्यवहार करते थे, इस के लिए एक ब्राह्मण की हत्या का उदाहरण इस प्रकार है:-
सिकंदर लोदी के शासन काल में भी इसी प्रकार एक ब्राह्मण की हत्या की गयी थी. उसका अपराध ये था कि उसने कहा था कि इस्लाम सच्चा है, लेकिन मेरा धर्म भी सच्चा है. ये घटना है संभल में कनेर की.सुल्तान को सूचना मिली कि दिल्ली में एक ब्राह्मण (जुनारदार) है जो अपने घर में मूर्ती पूजा करता है और नगरवासी, जिन में हिन्दू और मुसलमान दोनों सम्मिलित हैं, उसके घर में मूर्ती पूजा करते हैं. इस ब्राह्मण ने एक लकड़ी की पट्टिका (मुह्रक) बना राखी है, जिसके सब ओर शैतानों और अन्य वस्तुओं के चित्र बने हुए हैं. निर्धारित दिन पर सभी काफिर, अधिकारियों की जानकारी में आये बिना उस के घर जा कर मूर्ती पूजा करते हैं. सुल्तान को बताया गया कि इस ब्राह्मण ने कई मुसलमान महिलाओं को काफिर बना दिया है. (जिन महिलाओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाया जाता था, वो अवसर मिलने पर ऐसा कर लेती थीं). उस ब्राह्मण को उसकी पट्टिका सहित सुल्तान के समक्ष फिरोजाबाद में लाने का आदेश दिया गया. शेखों, उल्लेमा और इमामों को बुलाकर मंत्रणा की गयी. सभी का मत था कि इस संबंध में श्सरिया कानून स्पष्ट है: ब्राह्मण को मुसलमान बन जाना चाहिए अथवा उसे जला कर मार देना चाहिए. ब्राह्मण को सही ईमान के बारे में बता दिया गया और उसे उचित रास्ता बता दिया गया लेकिन उसने मानने से इनकार कर दिया. दरबार के द्वार पर सूअर की आँतों का ढेर लगाने का आदेश दिया गया. ब्राह्मण के हाथ पाँव बाँध कर उसकी पट्टिका सहित उसे ढेर में डाल कर आग लगा दी गयी. इस पुस्तक का लेखक वहाँ उपस्थित था और ये हत्या उसने देखी थी. आग पहले उसके पैरों तक पहुंची और उसकी चीख निकल गयी. शीघ्र ही आग ने उसे अपने में समा लिया. सुल्तान के न्याय और सादगी को देखो जो शरिया के नियमों से नहीं हटता.
फ़रिश्ता पृष्ठ ४१७ -४१८
यही लेखक फ़िरोज़ शाह द्वारा माता ज्वालामुखी के मंदिर पर किये आक्रमण के संबंध में ब्राह्मणों की दशा बताता है:-
जब इस ईमानवाले सुल्तान ने नगरकोट (कांगड़ा) में आक्रमण किया और ज्वालामुखी तीर्थ को लूटा तो सुल्तान ने मंदिर की मूर्तियों को तोड़ दिया और उन के टुकड़ों को गाय के मांस में मिला कर पुतलियों में दाल दिया और ये पोटलियाँ ब्राह्मणों के गलों में लटका दीं. मुख्या मूर्ती को मदीना भेज दिया ताकि मुसलमान उस पर से पाँव रख कर काबा के दर्शन करें.
औरंगज़ेब के शासनकाल में भी ब्राह्मणों ने पराजय को स्वीकार नहीं किया. जहां कहीं अवसर मिलता, वो अपने धर्म की स्थापना की चेष्टा करते रहते थे. औरंगज़ेब की मासिर इ आलमगिरी में इसका वर्णन मिलता है;
८ अप्रैल, १६६९
औरंगज़ेब के इस शाही फरमान के उपरान्त मुसलामानों ने कई मंदिर नष्ट किये और उनके स्थान पर मस्जिदें बना दी. ब्राह्मणों का अपमान विशेष रूप से किया जाता था.
हिन्दुओं द्वारा ब्राह्मणों का वर्णन
इसके कुछ दशकों के पश्चात विजय गुप्त कृत मंशार भाषण जो कि १४९४ में लिखी गयी थी, हमें कुछ और वर्णन मिलता है:
यहाँ से आरम्भ हुआ इसाईओं का भारतवर्ष पर अत्याचार. पुर्तगाली और अँगरेज़ इसाईओं को भी समझते देर न लगी कि हिन्दुओं का विश्वास इनके धर्म ग्रंथों और विद्वानों से उत्पन्न होता है, इसलिए उन्होंने भी मुसलामानों की भांति ब्राह्मणों को निशाना बनाया.
सन १८१३ में जब अंग्रेज़ों की संसद इस पर विचार कर रही थी कि ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ इसाई मिशनरियों को भी भेजा जाए अथवा नहं, लॉर्ड मिन्टो, जो १८०७ से १८१२ तक भारत का गवर्नर जनरल रहा था, ने अपने अधिकारियों को दस्तावेज़ भेजे जो मिशनरी प्रयोग करते थे. इसमें एक पत्र के संबंध में उस का उल्लेख है कि 'ये ब्राह्मणों का नरसंहार करने का सुझाव है'.
अंग्रेज़ों ने हिन्दू धर्म को उखाड़ने के लिए जो नीति सन १८३५ में चुनी, उसका प्रभाव हमें आज देखने को मिल रहा है. मुसलमान जो कार्य तलवार और बन्दूक के बल से १२०० वर्ष में नहीं कर पाए, वो आज से १७५ वर्ष पहले भारत में अपनाई गयी लॉर्ड मैकॉले की शिक्षा नीति ने लगभग पूर्ण कर दिया है. आज बचे खुचे भारत में नाम के ब्राह्मण और हिन्दू तो मिल जाते हैं लेकिन उनकी जीवन शैली पूर्ण रूप से इसाईओं वाली हो चुकी है.
महात्मा गांधी जी ने कहा था -
आज मायावती और मुलायम सिंह जैसे लोग जब ये सोच कर प्रसन्न होते हैं कि वो ब्राह्मणों की निंदा कर के नया कार्य कर रहे हैं तो वे कहीं पीछे हैं.
हमारी इतिहास की पुस्तकें ये सत्य कभी नहीं बताती क्योंकि यदि ब्राह्मणों को प्रतिष्ठा मिलेगी तो मार्क्सवाद, इस्लाम और अन्य राष्ट्रविरोधी शक्तियां विघटित हो जायेंगी.
इस दिन ईमान के रक्षक सुल्तान को सूचना मिली कि कुछ काफिर ब्राह्मण मुल्तान और बनारस में अपने विद्यालयों में अपनी झूठी किताबें पढ़ा रहे हैं और उनके प्रशंसक, हिन्दू और मुसलमान, इन बेईमान लोगों से ये घिनौनी विद्या पढने के लिए दूर दूर से आते हैं. शहंशाह, जो इस्लाम के लिए सदा तत्पर रहता है, ने सभी राज्यपालों को आदेश दिया कि काफिरों के मंदिर और विद्यालय शीघ्रातिशीघ्र नष्ट कर दिए जाएं और इन काफिरों की पढ़ाने की प्रथा को समाप्त कर दिया जाए.
मासिर इ आलमगिरी पृष्ठ ५२
औरंगज़ेब के इस शाही फरमान के उपरान्त मुसलामानों ने कई मंदिर नष्ट किये और उनके स्थान पर मस्जिदें बना दी. ब्राह्मणों का अपमान विशेष रूप से किया जाता था.
हिन्दुओं द्वारा ब्राह्मणों का वर्णन
जयनन्द द्वारा लिखी गयी एक महान वैष्णव संत 'चैतन्य महाप्रभु' की जीवन कथा 'चैतन्य मंगल' में बंगाल के नवद्वीप में बसने वाले हिन्दुओं और ब्राह्मणों की दुर्दशा की व्याख्या करते है. वो लिखते हैं:
राजा उन के घर लूट लेता है जो पवित्र धागा (जनेऊ अथवा यज्ञोपवीत) पहनते हैं और अपने मस्तक पर पवित्र तिलक लगाते हैं. वो मंदिरों को तोड़ देता है और तुलसी के पौधे उखाड़ देता है. गंगा में स्नान करना वर्जित कर दिया गया है. मुसलमान सैनिक, जहां भी वत वृक्ष देखते हैं, जिन्हें हिन्दू पवित्र मानते हैं, उन्हें काट दिया जाता है. ब्राह्मणों को बलपूर्वक मुसलमान बना दिया जाता है.
इस दशा पर खेद व्यक्त करते हुए वो लिखता है: मुसलामानों ने नदिया के कई महान ब्राह्मण परिवारों को नष्ट कर दिया है. परिणामतः, उच्च कोटि के ब्राह्मण वासुदेव, उनके पिता विशारद और उनका भाई विद्यावाचस्पति नदिया छोड़ कर उड़ीसा चले गए हैं. वो ब्राह्मण जिनका धर्म उनके मुंह में नीच भोजन (संभवतः गाय का मांस) डाल कर भ्रष्ट कर दिया गया है अब पिरिली ब्राह्मण कहे जाते हैं. हालांकि उनके मुंह में नीच भोजन डाल कर उनका सामजिक स्तर गिरा दिया गया है किन्तु उन्होंने इस्लाम नहीं अपनाया बल्कि हिन्दू ही बने रहे.
इसके कुछ दशकों के पश्चात विजय गुप्त कृत मंशार भाषण जो कि १४९४ में लिखी गयी थी, हमें कुछ और वर्णन मिलता है:
पठानों द्वारा बनाए गए एक कानून के अनुसार, हिन्दुओं से जिज़िया और खरज वसूल करने वाले मुसलमान अधिकारियों के मन में यदि हिन्दू के मुंह में थूकने की इच्छा हो तो हिन्दुओं को मुंह खोलना पड़ेगा. समकालीन बांगला साहित्य में मुसलामानों द्वारा हिन्दुओं के मुंह में थूकने के कई उल्लेख मिलते हैं.ब्राह्मणों को पवित्र धागा पहनना वर्जित कर दिया गया है. यदि कोई ब्राह्मण पवित्र तुलसी के पत्ते अपने सर पर पहनता है तो उसके हाथ पाँव बाँध कर मुसलमान काजियों के समक्ष दंड के लिए प्रस्तुत किया जाता है.
chaitanya and his age pp - 55
इसान नगर (अद्वैत प्रकाश के लेखक) द्वारा ब्राह्मणों की दशा का वर्णन है:धूर्त म्लेच्छ कुत्तों की भांति तुलसी के पौधों पर पेशाब करते हैं और जान बूझ कर मंदिरों में जा कर शौच करते हैं. वो अपने मुंह से पानी भर कर पूजा कर रहे ब्राह्मणों पर फेंकते हैं.
भारत और यूरोप के बीच की भूमि पर इस्लाम पनप रहा था और फ़ैल रहा था. परिणामतः भारतवासियों पर जब मुसलमान ये अत्याचार कर रहे थे तो उन्होंने यूरोप से इसाई सम्प्रदाय के लिए एक बाधा खड़ी कर दी थी. सन १४९८ में वास्को डि गामा समुद्र के रास्ते कालीकट पहुंचा तो भारत के दुर्भाग्य में नया अध्याय जुड़ गया. ये पुर्तगाली, मार्को पोलो जैसा सभ्य नहीं था. इसके बेड़े में जो २५ नावें थीं, उनमें से १० नावें गोला बारूद से भरी हुई थीं. उसके सब साथी कट्टर इसाई थे और उन्हें पोप का आदेश था कि सब मूर्ती पूजा करने वालों को इसाई बनाना है.
जब ये डकैतों का बेड़ा कालीकट के बंदरगाह पर पहुंचा तो वहाँ २० पोत खड़े थे. वास्को के डकैतों ने इन्हें लूट लिया और इन के लगभग ८०० कर्मियों को बंधक बना लिया. फिर वास्को के आदेश पर इन सब के नाक, कान और हाथ काट कर इन्हें लोगों को दिखाया गया. सारे कटे हुए अंग के नाव में भर दिए गए. कालीकट के शासक ने एक ब्राह्मण को संदेश दे कर भेजा तो उसके भी नाक, कान और हाथ काट दिए गए और उसे कटे अंगों से भरी नाव में बैठा दिया गया.
जिस नाव में ८०० बंधक थे, उसमें उन्हें मार कर नाव को आग लगा दी गयी और खुले समुद्र में छोड़ दिया गया. ब्राह्मण की नाव को कटे अंगों सहित नगर की ओर शासक के लिए संदेश के साथ रवाना कर दिया गया. संदेश था कि इन अंगों से अपने लिए कड़ी बना लो.
जब स्थानीय शासक ने एक और ब्राह्मण को शान्ति संदेश के साथ भेजा तो वास्को ने उसके होंठ और कान काट दिए और उसके कानों के स्थान पर कुत्ते के कान सिल कर शासक के पास भेज दिया. इस ब्राह्मण के साथ उसके दो बेटे और एक भतीजा भी था. इन तीनों युवाओं को फांसी लगा कर मार दिया गया.
Empires of the Monsoon: A history of Indian ocean and its invaders by Richard Hall, pp - 198
यहाँ से आरम्भ हुआ इसाईओं का भारतवर्ष पर अत्याचार. पुर्तगाली और अँगरेज़ इसाईओं को भी समझते देर न लगी कि हिन्दुओं का विश्वास इनके धर्म ग्रंथों और विद्वानों से उत्पन्न होता है, इसलिए उन्होंने भी मुसलामानों की भांति ब्राह्मणों को निशाना बनाया.
सन १८१३ में जब अंग्रेज़ों की संसद इस पर विचार कर रही थी कि ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ इसाई मिशनरियों को भी भेजा जाए अथवा नहं, लॉर्ड मिन्टो, जो १८०७ से १८१२ तक भारत का गवर्नर जनरल रहा था, ने अपने अधिकारियों को दस्तावेज़ भेजे जो मिशनरी प्रयोग करते थे. इसमें एक पत्र के संबंध में उस का उल्लेख है कि 'ये ब्राह्मणों का नरसंहार करने का सुझाव है'.
अंग्रेज़ों ने हिन्दू धर्म को उखाड़ने के लिए जो नीति सन १८३५ में चुनी, उसका प्रभाव हमें आज देखने को मिल रहा है. मुसलमान जो कार्य तलवार और बन्दूक के बल से १२०० वर्ष में नहीं कर पाए, वो आज से १७५ वर्ष पहले भारत में अपनाई गयी लॉर्ड मैकॉले की शिक्षा नीति ने लगभग पूर्ण कर दिया है. आज बचे खुचे भारत में नाम के ब्राह्मण और हिन्दू तो मिल जाते हैं लेकिन उनकी जीवन शैली पूर्ण रूप से इसाईओं वाली हो चुकी है.
महात्मा गांधी जी ने कहा था -
हिन्दू धर्म से मैं पूर्ण रूप से संतुष्टि पाता हूँ. यदि हिन्दू धर्म को जीवित रखना है तो ब्राह्मनातव को बचाना आवश्यक है.
आज मायावती और मुलायम सिंह जैसे लोग जब ये सोच कर प्रसन्न होते हैं कि वो ब्राह्मणों की निंदा कर के नया कार्य कर रहे हैं तो वे कहीं पीछे हैं.
हमारी इतिहास की पुस्तकें ये सत्य कभी नहीं बताती क्योंकि यदि ब्राह्मणों को प्रतिष्ठा मिलेगी तो मार्क्सवाद, इस्लाम और अन्य राष्ट्रविरोधी शक्तियां विघटित हो जायेंगी.
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