शनिवार, 27 नवंबर 2010

इस्लाम को जानिये

 विचारधारा
इस्लाम एक विचारधारा है जिस का आरम्भ लगभग सन ६१० में हुआ था और इस की नीव मोहम्मद नामक व्यक्ति ने रखी थी. ऐसी मान्यता है कि जिब्रिल (जिसे बाइबल में गैब्रील कहा जाता है) नामक एक देवदूत केवल मोहम्मद को दिखाई व सुनाई देता था और वही मोहम्मद को अल्लाह का संदेश देता था ताकि ये संदेश पूरे संप्रदाय तक पहुँचाया जा सके.  इस प्रकार मोहम्मद अल्लाह का संदेश वाहक था. मोहम्मद के अनुसार, उस से पूर्व भी अल्लाह संदेश वाहक भेजता रहा है, जिन में यीशु भी एक था, किन्तु मोहम्मद इस श्रृंखला का अंतिम संदेश वाहक है. इसलिए उस के द्वारा दिया गया संदेश जिसे कुरान में लिखा गया है, सम्पूर्ण ज्ञान है और सदा के लिए मान्य है. इस विचारधारा के कुछ बिंदु इस प्रकार हैं.

मोम्मिन (मुसलमान)

मुसलमान वो है जो यह मानता है कि सृष्टि बनाने वाले का नाम अल्लाह है और उस के अतिरिक्त कोई अन्य नहीं है अर्थात यदि कोई सृष्टि रचने वाले को इश्वर, भगवान्, गौड  अथवा किसी भी अन्य नाम से पुकारता है तो वो एक घृणित व्यक्ति है. इस के साथ ये भी आवश्यक है कि वो यह माने कि मोहम्मद अल्लाह का संदेश वाहक (रुसूल) है. इस के अतिरिक्त उसे अपने जीवन काल में कम से कम एक समय हज पर जाना चाहिए, रमजान के दिनों में रोज़े रखने चाहिए और ज़कात  (अपनी ओर से दान) देना चाहिए. यहाँ उल्लेखनीय है कि ज़कात केवल मुसलमान को ही दिया जाता है.
जहिल्य 

इस्लाम सम्पूर्ण मानव इतिहास को दो भागों में विभाजित करता है. इस्लामी विचारधारा के अनुसार कुरान से पहले का समय जाहिल्य था अर्थात समाज असभ्य था और कुरान के आने के उपरान्त विश्व में ज्ञान का प्रकाश हुआ है. ज्ञात हो कि इस्लाम के आक्रमण ने मिस्र जैसी सदियों पुरानी सभ्यता को समूल नष्ट कर दिया है. आज मिस्र के निवासी स्वयं को पूर्ण रूप से मुसलमान मानते हैं और ये भूल चुके हैं कि उन की भूमि पर इस्लाम की स्थापना उन्ही के पूर्वजो की हत्या के पश्चात् हुई है. हमारे निकट अफगानिस्तान में, जहां कभी वेद मन्त्रों का उच्चारण होता था और जहां बौध  मत के अनुयायियों ने बुद्ध की सुन्दर प्रतिमाएं जिन्हें बामियान बुद्ध भी कहा जाता था, बनायी थी, उन्हें मोहम्मद के विचारों के अनुसार ध्वस्त कर दिया गया.

काफिर (बहुवचन - कुफ्फार)

इसी प्रकार जो दूसरा विभाजन है, उस के अनुसार जो लोग इस्लाम को अपना लेते हैं वे अति विशिष्ट हैं जिन्हें  मोम्मिन मुसलमान, मुस्लिम अथवा ईमानवाले कहा जाता है, किन्तु जो इस्लाम को नहीं मानते, वे काफिर (कुफ्फर, कुफ्फार), इनकार करने वाले अथवा न मानने वालों के नाम से जाने जाते हैं. ज्ञात हो कि काफ़िर और कुफ्फार के स्थान पर इनकार करने वाले जैसे कम आक्रामक शब्दों का प्रयोग पिछले कुछ वर्षों से ही प्रचलन में आया है. पाठकों के समक्ष एक उदाहरण रखता हूँ. कुरान के सुरा (अध्याय) ८ की आयत ५५ के दो अनुवाद प्रस्तुत हैं:-
इसमें शक़ नहीं कि ख़ुदा के नज़दीक जानवरों में कुफ्फ़ार सबसे बदतरीन तो (बावजूद इसके) फिर ईमान नहीं लाते 
निश्चय ही, सबसे बुरे प्राणी अल्लाह की स्पष्ट में वे लोग है, जिन्होंने इनकार किया। फिर वे ईमान नहीं लाते 
मूल आयत जो कि अरबी भाषा में है, इस प्रकार है:-
إِنَّ شَرَّ الدَّوَابِّ عِندَ اللَّـهِ الَّذِينَ كَفَرُوا فَهُمْ لَا يُؤْمِنُونَ
इसे यदि देवनागरी में लिखा जाये तो कुछ इस प्रकार है
इन्ना शर्रा अल्दावाब्बी  आइन्दा अल्लाहि अल्लाथीना काफ्फारू फहूम ला युमिनूना 
इस में कहीं भी 'इनकार करने वाले' जैसा कोई शब्द नहीं है. उल्लेखनीय है कि इन में से कोई भी अनुवाद लेखक का अपना किया हुआ नहीं है अपितु उपलब्ध अनुवादों का अक्षरशः प्रस्तुतीकरण है.
मदरसों में तो कुरान वास्तविक रूप में ही पढाई जाती है किन्तु जनसाधारण को एक ऐसी छवि दिखाई जाती है कि उसे भ्रमित ही रखा जाए. इस षड़यंत्र का परिणाम है कि हमारे भारतवर्ष के नागरिक सच्चाई से अवगत नहीं हैं. वो मदरसे जिन के मौलवियों को वेतन हमारे दिए हुए करों से मिलता है, हमें ही 'सब से बदतरीन जानवर' कहते और पढ़ाते हैं.
मुशरिक

इस्लामी विचारधारा के अनुसार इस सृष्टि को बनाने वाला एक है और उस का नाम अल्लाह है. जैसा कि ऊपर बताया है, यदि आप उसे किसी भी अन्य नाम जैसे राम, कृषण, शिव अथवा यीशु के नाम से पुकारते हैं तो ये एक अक्षम्य अपराध है जिसे शिर्क कहा जाता है और ऐसा करने वालों को मुशरिक कहा जाता है. यही मूर्तिपूजा के लिए भी है. ज्ञात हो कि मोहम्मद ने जहां जन्म लिया था उस नगर मक्का में जहां आज काबा नामक मस्जिद है, उस में ३६० मूर्तियाँ स्थापित थी. जब मोहम्मद की आयु लगभग ६० वर्ष की हुई तब तक उस ने अपने कई अनुयायी बना लिए थे और इन्ही के साथ मक्का पर आक्रमण कर के काबा की मूर्तियों को तोड़ दिया था. मोहम्मद इसाई सम्प्रदाय की ही भांति मूर्तिपूजा को एक घृणित कार्य मानता था. इसीलिए कुरान में मुशरिकों को घृणित कहा गया है. उदाहरण के लिए सुरा ९, आयत २८ इस प्रकार है:-
ऐ ईमानदारों मुशरेकीन तो निरे नजिस हैं तो अब वह उस साल के बाद मस्जिदुल हराम (ख़ाना ए काबा) के पास फिर न फटकने पाएँ और अगर तुम (उनसे जुदा होने में) फक़रों फाक़ा से डरते हो तो अनकरीब ही ख़ुदा तुमको अगर चाहेगा तो अपने फज़ल (करम) से ग़नीकर देगा बेशक ख़ुदा बड़ा वाक़िफकार हिकमत वाला है
ऐ ईमान लानेवालो! मुशरिक तो बस अपवित्र ही है। अतः इस वर्ष के पश्चात वे मस्जिदे हराम के पास न आएँ। और यदि तुम्हें निर्धनता का भय हो तो आगे यदि अल्लाह चाहेगा तो तुम्हें अपने अनुग्रह से समृद्ध कर देगा। निश्चय ही अल्लाह सब कुछ जाननेवाला, अत्यन्त तत्वदर्शी है 
मूल अरबी आयत इस प्रकार है:-
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِنَّمَا الْمُشْرِكُونَ نَجَسٌ فَلَا يَقْرَبُوا الْمَسْجِدَ الْحَرَامَ بَعْدَ عَامِهِمْ هَـٰذَا ۚ وَإِنْ خِفْتُمْ عَيْلَةً فَسَوْفَ يُغْنِيكُمُ اللَّـهُ مِن فَضْلِهِ إِن شَاءَ ۚ إِنَّ اللَّـهَ عَلِيمٌ حَكِيمٌ
ऊपर जो दूसरा हिंदी अनुवाद है, उस से इस्लाम की जो मूर्तिपूजा और इश्वर के अन्य नामों अथवा रूप के प्रति जो घृणा है वो स्पष्ट नहीं होती. जो पहले अनुवाद में अरबी के मूल शब्द नाजिस का प्रयोग किया गया है उसका अर्थ है घृणित. इस घृणा का अनुमान लगाने के लिए इस्लाम में वर्णित अन्य नाजिस वस्तुयों को जान लेना चाहिए. ये हैं मल, मूत्र, वीर्य, शव, कुत्ता, सूयर, रक्त, काफिर, मदिरा तथा ऐसे पशुयों का स्वेद (पसीना) जो किसी भी नाजिस वस्तु का सेवन करते हैं.

दारुल हर्ब

तीसरा विभाजन जो इस्लाम करता है वो यह है कि जिन प्रदेशों में इस्लाम का राज्य है, वे पवित्र (दारुल इस्लाम) हैं और जहाँ पर कोई और शासन है, वे नाजिस (अपवित्र अथवा दारुल हर्ब) हैं. हर सच्चे मुसलमान का ये कर्त्तव्य है कि वो पूरे विश्व को दारुल इस्लाम में परिवर्तित करने में यथा समभाव् सहयोग करे. इस प्रयत्न का नाम जिहाद है और जिहाद करने वाले मुसलमान मुजाहिद हैं. इन का स्थान अल्लाह की निगाहों में साधारण मुसलमान (मोम्मिन) से कहीं ऊंचा है. इस के विपरीत वे मुसलमान जो जिहाद से बचने का प्रयत्न करते हैं, उन्हें मुनाफ़िक़ कहा जाता है और उनकी कुरान में भरपूर भर्त्सना की गयी है. उन का स्थान काफिरों और मुशरिकों से भी निम्न है.
इस के लिए जो आयतें हैं, उन में से एक के दो भिन्न अनुवाद प्रस्तुत हैं. सुरा ४, आयत ९५:-
माज़ूर लोगों के सिवा जेहाद से मुंह छिपा के घर में बैठने वाले और ख़ुदा की राह में अपने जान व माल से जिहाद करने वाले हरगिज़ बराबर नहीं हो सकते (बल्कि) अपने जान व माल से जिहाद करने वालों को घर बैठे रहने वालें पर ख़ुदा ने दरजे के एतबार से बड़ी फ़ज़ीलत दी है (अगरचे) ख़ुदा ने सब ईमानदारों से (ख्वाह जिहाद करें या न करें) भलाई का वायदा कर लिया है मगर ग़ाज़ियों को खाना नशीनों पर अज़ीम सवाब के एतबार से ख़ुदा ने बड़ी फ़ज़ीलत दी है 
ईमानवालों में से वे लोग जो बिना किसी कारण के बैठे रहते है और जो अल्लाह के मार्ग में अपने धन और प्राणों के साथ जी-तोड़ कोशिश करते है, दोनों समान नहीं हो सकते। अल्लाह ने बैठे रहनेवालों की अपेक्षा अपने धन और प्राणों से जी-तोड़ कोशिश करनेवालों का दर्जा बढ़ा रखा है। यद्यपि प्रत्यके के लिए अल्लाह ने अच्छे बदले का वचन दिया है। परन्तु अल्लाह ने जी-तोड़ कोशिश करनेवालों का बड़ा बदला रखा है 
 मूल अरबी आयत इस प्रकार है:-
 لَّا يَسْتَوِي الْقَاعِدُونَ مِنَ الْمُؤْمِنِينَ غَيْرُ أُولِي الضَّرَرِ وَالْمُجَاهِدُونَ فِي سَبِيلِ اللَّـهِ بِأَمْوَالِهِمْ وَأَنفُسِهِمْ ۚ فَضَّلَ اللَّـهُ الْمُجَاهِدِينَ بِأَمْوَالِهِمْ وَأَنفُسِهِمْ عَلَى الْقَاعِدِينَ دَرَجَةً ۚ وَكُلًّا وَعَدَ اللَّـهُ الْحُسْنَىٰ ۚ وَفَضَّلَ اللَّـهُ الْمُجَاهِدِينَ عَلَى الْقَاعِدِينَ أَجْرًا عَظِيمًا
यहाँ भी जिन शब्दों का प्रयोग है, वे हैं मोम्मिन और मुजाहिद (रेखांकित), न कि इनकार करने वाले अथवा ईमान वाले.

ताकिया

सम्पूर्ण विश्व को दारुल इस्लाम बनाने के लिए केवल जिहाद ही एकमात्र उपाय नहीं है. एक और महत्वपूर्ण उपाय है ताक़िया. ये शब्द अरबी के मूल शब्द तौकात से बना है, और इस का अर्थ है छुपाना. इस के अनुसार प्रतिकूल परिस्थिति में यदि किसी मुसलमान को अपनी और इस्लाम की रक्षा के लिए अथवा इस्लाम के प्रचार के लिए झूठ भी बोलना पड़े तो ये उस के लिए वर्जित नहीं है. क्या ऊपर दिए गए कुरान के भ्रांतिपूर्ण अनुवाद भाषा के ज्ञान के अभाव के कारण हैं अथवा ताक़िया का ही अंग हैं? इस से सम्बंधित आयत है आयात है सुरा ३ की आयत २८:-
يَتَّخِذِ الْمُؤْمِنُونَ الْكَافِرِينَ أَوْلِيَاءَ مِن دُونِ الْمُؤْمِنِينَ ۖ وَمَن يَفْعَلْ ذَٰلِكَ فَلَيْسَ مِنَ اللَّـهِ فِي شَيْءٍ إِلَّا أَن تَتَّقُوا مِنْهُمْ تُقَاةً ۗ وَيُحَذِّرُكُمُ اللَّـهُ نَفْسَهُ ۗ وَإِلَى اللَّـهِ الْمَصِيرُ
इसे देवनागरी में इस प्रकार लिख सकते हैं:-
ला यात्ताखिथि अल्मुमिनूना अलकाफिरीना औलिया मिन दूनी अल्मुमिनीना वामन याफाल तालिका फलय्सा मीणा अल्लाहि फी शाईन इल्ला अन तत्ताकू मिन्हुम तुक़तान शाईन वायुहथ्थिरुकुमु अल्लाहु नफ्सहू वैला अल्लाहि अल्मासीरू 
पाठकों को कोई भ्रम न रह जाए, इसलिए यहाँ तुक़तान को रेखांकित कर दिया गया है. अब इसी का अनुवाद देखते हैं:-
 मोमिनीन मोमिनीन को छोड़ के काफ़िरों को अपना सरपरस्त न बनाऐं और जो ऐसा करेगा तो उससे ख़ुदा से कुछ सरोकार नहीं मगर (इस क़िस्म की तदबीरों से) किसी तरह उन (के शर) से बचना चाहो तो (ख़ैर) और ख़ुदा तुमको अपने ही से डराता है और ख़ुदा ही की तरफ़ लौट कर जाना है 
ईमानवालों को चाहिए कि वे ईमानवालों से हटकर इनकारवालों को अपना मित्र (राज़दार) न बनाएँ, और जो ऐसा करेगा, उसका अल्लाह से कोई सम्बन्ध नहीं, क्योंकि उससे सम्बद्ध यही बात है कि तुम उनसे बचो, जिस प्रकार वे तुमसे बचते है। और अल्लाह तुम्हें अपने आपसे डराता है, और अल्लाह ही की ओर लौटना है.
क्या आप इन दोनों अनुवादों से इस का स्पष्ट अर्थ जान सकते हैं?
इस का अर्थ यह है कि मुसलमान केवल मुसलामानों को ही अपना मित्र बनाए और काफिरों को कभी भी मित्र अथवा सहयोगी न बनाए. यदि कोई ऐसा करेगा तो अल्लाह उसे नहीं अपनाएगा. किन्तु यदि ऐसा कार्य वो अपने को बचाने के लिए करता है तो ठीक है. अल्लाह तुम्हें चेतावनी देता है क्योंकि तुम्हे उसी के पास लौटना है.

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