मोहम्मद ने अब्दुल्लाह बिन जैश को सात अन्य व्यक्तियों के साथ सन ६२३ में एक आक्रमण के लिए भेजा. अब तक उसे मक्का से निकले हुए लगभग एक वर्ष और छः महीने हो चुके थे. भेजते समय, उस ने अब्दुल्लाह के हाथ में एक पोटली देते हुए कहा कि जब तक वो मक्का के रास्ते में पड़ने वाली एक घाटी में नहीं पहुँच जाता, उसे न खोले. उस घाटी तक पहुँचने में उन्हें दो दिन का समय लगने वाला था. निर्धारित स्थान पर पहुँच कर अब्दुल्लाह ने पत्र खोला तो उस में लिखा था -
"अल्लाह के आशीर्वाद से नखल घाटी में जाओ और वहाँ से जाने वाले कोरिशों के कारवां की घात में रुको. तुम्हारे जो साथी स्वेच्छा से साथ जाना चाहें, उन्हें ले जाओ और किसी को चलने के लिए बाध्य न करना."
पत्र अपने साथियों को सुनाने के पश्चात अब्दुल्लाह ने उन से कहा कि जो कोई उस के साथ चलना चाहे, वो चल सकता है क्योंकि वो तो नबी की इच्छा पूर्ती के लिए अवश्य ही जाएगा. इस के पश्चात ऐसा वर्णन है कि सभी चल पड़े किन्तु उन में से दो (साद और ओतबा) अपने भटके हुए ऊंट को ढूंढते हुए पिछड़ गए और भटक गए.
पाठकों की जानकारी के लिए, कुरैशियों ने, जो कि मक्का में रहते थे, मोहम्मद को नबी अथवा उस की आयतों को मानने से इनकार कर दिया था. वे अपने पूर्वजों की भांति कई देवी देवतायों की अराधना करते थे जोकि मोहम्मद को नापसंद था. नखल घाटी में कुरैशियों को अपेक्षा नहीं थी कि मोहम्मद अथवा उस के चेले उन पर आक्रमण कर के उन्हें लूटने की चेष्टा करेंगे. कुरैशियों की इस सोच का कारण था कि नखल घाटी मदीना के रास्ते में नहीं पड़ती थी. ये मक्का से पूर्व की ओर, तैफ नामक कसबे के रास्ते में पड़ती थी.
कुछ समय पश्चात ही कुरैशियों का कारवां वहाँ आ पहुंचा. कारवां में चार कुरैशी पुरुष सुरक्षा के लिए नियुक्त थे. संभवतः मोहम्मद को इस संपन्न कारवां के निकलने की जानकारी थी.वे लोग मेवे, शराब और चमड़े का सामन ले कर आ रहे थे. वो अब्दुल्लाह और अन्य अजनबियों को देख कर सचेत हो गए.
उन्हें भ्रम में डालने के लिए अब्दुल्लाह के एक साथी ने अपना सर मूंड लिया, जिस से कि ऐसा प्रतीत हो कि वो छोटे हज से लौट कर आने वाले तीर्थ यात्री हैं.कुरैशी पुरुष उन्हें तीर्थ यात्री समझ कर निश्चिन्त हो गए. उन्होंने अपने ऊंठों को चरने के लिए छोड़ दिया और भोजन पकाने में लग गए.
अब्दुल्लाह और उस के साथी दुविधा में थे कि आक्रमण करें अथवा नहीं. उन की इस दुविधा का कारण था कि उस दिन रजब महीने का अंतिम दिन था, जिसे अरबी सभ्यता में प्रतिष्ठित महीना माना जाता है और उस में आक्रमण करना वर्जित है. किन्तु यदि उस दिन आक्रमण नहीं करते तो कारवां उन के हाथों से छूट जाएगा. शीघ्र ही लूट के माल का लोभ उन पर हावी हो गया और उन्होंने दुविधा को त्याग दिया. उन में से एक ने बाण चला दिया जिस से कि अम्र नामक कुरैशी की मृत्यु हो गयी. अब्दुल्लाह के साथियों ने दो पुरुषों उथमान एवं हाकम को बंदी बना लिया और लूट का सामान ले कर मोहम्मद के पास पहुँच गए.
मोहम्मद इस घटनाक्रम से कुछ चिंतित प्रतीत हुआ और उस ने कहा " मैंने तुम्हें रजब के महीने में लड़ने का आदेश नहीं दिया था." संभवतः मोहम्मद को अनुमान था कि अब्दुल्लाह जब नखल पहुंचेगा तब तक रजब का महीना बीत चुका होगा. उसने लूट का माल एक ओर रखवा दिया और बंदियों को बंधक ही रहने दिया, जब तक कि नया आदेश नहीं आ जाता.
अब्दुल्लाह और उसके साथी हतोत्साहित हो गए तथा अन्य लोग उनकी निंदा करने लगे. मोहम्मद अपने साथियों का मनोबल गिराना नहीं चाहता था इसलिए शीघ्र अल्लाह मियां की ओर से कुरान की एक नयी आयत प्रकट हुई जिसने इस हत्या को वैध घोषित कर दिया.
सुरा २, आयत २१७ -
يَسْأَلُونَكَ عَنِ الشَّهْرِ الْحَرَامِ قِتَالٍ فِيهِ ۖ قُلْ قِتَالٌ فِيهِ كَبِيرٌ ۖ وَصَدٌّ عَن سَبِيلِ اللَّـهِ وَكُفْرٌ بِهِ وَالْمَسْجِدِ الْحَرَامِ وَإِخْرَاجُ أَهْلِهِ مِنْهُ أَكْبَرُ عِندَ اللَّـهِ ۚ وَالْفِتْنَةُ أَكْبَرُ مِنَ الْقَتْلِ ۗ وَلَا يَزَالُونَ يُقَاتِلُونَكُمْ حَتَّىٰ يَرُدُّوكُمْ عَن دِينِكُمْ إِنِ اسْتَطَاعُوا ۚ وَمَن يَرْتَدِدْ مِنكُمْ عَن دِينِهِ فَيَمُتْ وَهُوَ كَافِرٌ فَأُولَـٰئِكَ حَبِطَتْ أَعْمَالُهُمْ فِي الدُّنْيَا وَالْآخِرَةِ ۖ وَأُولَـٰئِكَ أَصْحَابُ النَّارِ ۖ هُمْ فِيهَا خَالِدُونَ ﴿٢١٧﴾
सुरा २, आयत २१७ - फारूक खान एवं नदवी द्वारा अनुवाद :-
(ऐ रसूल) तुमसे लोग हुरमत वाले महीनों की निस्बत पूछते हैं कि (आया) जिहाद उनमें जायज़ है तो तुम उन्हें जवाब दो कि इन महीनों में जेहाद बड़ा गुनाह है और ये भी याद रहे कि ख़ुदा की राह से रोकना और ख़ुदा से इन्कार और मस्जिदुल हराम (काबा) से रोकना और जो उस के अहल है उनका मस्जिद से निकाल बाहर करना (ये सब) ख़ुदा के नज़दीक इस से भी बढ़कर गुनाह है और फ़ितना परदाज़ी कुश्ती ख़ून से भी बढ़ कर है और ये कुफ्फ़ार हमेशा तुम से लड़ते ही चले जाएँगें यहाँ तक कि अगर उन का बस चले तो तुम को तुम्हारे दीन से फिरा दे और तुम में जो शख्स अपने दीन से फिरा और कुफ़्र की हालत में मर गया तो ऐसों ही का किया कराया सब कुछ दुनिया और आखेरत (दोनों) में अकारत है और यही लोग जहन्नुमी हैं (और) वह उसी में हमेशा रहेंगें.इसी आयत का अनुवाद (फारूक खान एवं अहमद द्वारा)
वे तुमसे आदरणीय महीने में युद्ध के विषय में पूछते है। कहो, "उसमें लड़ना बड़ी गम्भीर बात है, परन्तु अल्लाह के मार्ग से रोकना, उसके साथ अविश्वास करना, मस्जिदे हराम (काबा) से रोकना और उसके लोगों को उससे निकालना, अल्लाह की स्पष्ट में इससे भी अधिक गम्भीर है और फ़ितना (उत्पीड़न), रक्तपात से भी बुरा है।" और उसका बस चले तो वे तो तुमसे बराबर लड़ते रहे, ताकि तुम्हें तुम्हारे दीन (धर्म) से फेर दें। और तुममे से जो कोई अपने दीन से फिर जाए और अविश्वासी होकर मरे, तो ऐसे ही लोग है जिनके कर्म दुनिया और आख़िरत में नष्ट हो गए, और वही आग (जहन्नम) में पड़नेवाले है, वे उसी में सदैव रहेंगे
इसके पश्चात् लूट के माल को मुसलामानों में बाँट दिया गया और अल्लाह के आदेशानुसार लूट का पांचवां भाग मोहम्मद को दे दिया गया. लूट का माल मिलने के पश्चात् हत्यारों की निंदा करने वाले भी शांत हो गए.
कुरान में लूट के माल को 'ग़नीमत' और मोहम्मद को दिए जाने वाले पांचवें भाग को 'खम्स' कहते हैं.
जब कारवां के बचे हुए लोग मक्का पहुंचे तो वहाँ से बंदियों को छुडवाने के लिए वहाँ के नागरिक मोहम्मद के पास पहुंचे. अभी तक साद और ओतबा, जो आक्रमणकारियों से बिछड़ गए थे, लौटे नहीं थे. मोहम्मद ने कहा कि यदि तुम ने मेरे आदमियों को मार दिया है तो मैं भी इन बंदियों की हत्या कर दूंगा अन्यथा फिरौती ले कर इन्हें छोड़ दूंगा. कुछ ही समय पश्चात् मोहम्मद के दोनों साथी लौट आये तो मोहम्मद ने प्रति बंधक व्यक्ति ४० औंस चांदी फिरौती के रूप में ले कर उन्हें स्वतंत्र कर दिया.
मुसलमान इतिहासकार इसे एक महत्वपूर्ण घटना मानते हैं क्योंकि ये पहला अवसर था जब मुसलामानों ने सफलतापूर्वक ग़नीमत प्राप्त की थी, प्रथम हत्या की थी और फिरौती प्राप्त की थी. इस से पहले जो आक्रमण, मोहम्मद अथवा किसी अन्य के अधीन किये गए थे, असफल रहे थे. इस के पश्चात अब्दुल्लाह को 'आमिर उल मोम्मिन' अर्थात 'मुसलामानों का सेनापति' की उपाधि दी गयी.
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