बद्र के आक्रमण के पश्चात् जब मुसलमान अपने घायल ओर मृत साथियों के शवों को ले कर मदीना की ओर जा रहे थे तो राह में ओथील नामक घाटी में रात बिताई. प्रातःकाल जब मोहम्मद बंदियों का निरिक्षण कर रहा था तो उस की दृष्टि नाध्र पर पड़ी, जिसे मिकदाद ने बंदी बनाया था. बंधक ने भय से कांपते हुए अपने पास खड़े व्यक्ति से कहा, "उस दृष्टि में तो मृत्यु दिखाई दे रही थी". व्यक्ति ने उत्तर दिया "नहीं ये तुम्हारा भ्रम है". उस अभागे बंदी को विश्वास न आया.उस ने मुसाब को उस की रक्षा करने के लिए कहा. मुसाब ने उत्तर दिया कि वह (नाध्र) इस्लाम को इनकार करता था और मुसलामानों को परेशान करता था. नाध्र ने कहा,"यदि कोरिशों ने तुम्हें बंधक बनाया होता तो वे तुम्हारी हत्या कभी नहीं करते. उत्तर में मुसाबी ने कहा,"यदि ऐसा है भी तो मैं तुम जैसा नहीं हूँ. इस्लाम किसी बंधन को नहीं मानता. इस पर मिकदाद, जिस ने नाध्र को बंधक बनाया था, बोल उठा "वो मेरा बंदी है." उसे भय था कि यदि नाध्र की हत्या कर दी गयी तो उस के सम्बन्धियों से जो फिरौती का धन प्राप्त हो सकता था, उस से वो वंचित रह जाएगा.
इस अवसर पर मोहम्मद ने आदेश दिया,"उस की गर्दन मारो". इस वाक्य का अर्थ है सर काट देना. हत्यारा गर्दन के पीछे से प्रहार कर के एक ही वार से गर्दन काट देता है. आज भी जहां इस्लामिक शरिया व्यवस्था प्रचलित है, वहां इसी प्रकार से गर्दन काटी जाती है.
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शरिया के अनुसार गर्दन काटने का दृश्य |
इस के पश्चात् मोहम्मद ने कहा,"अल्लाह, मिकदाद को इस से भी अच्छा माल प्रदान करना." अली जो आगे चल कर मोहम्मद का दामाद बना था, आगे बढ़ा और उस ने नाध्र की गर्दन काट दी.
इस हत्या का कारण संभवतः नाध्र द्वारा मोहम्मद का उपहास उड़ाया जाना था. मोहम्मद जब मक्का में रहता था, वो मक्का निवासियों को ये विश्वास दिलाने की असफल चेष्ट करता रहा कि वो एक पैगम्बर है. उस की बातों से अधिकतर मक्का वासी तटस्थ ही रहते थे. इस्लाम को नकारने वालों में नाध्र भी था. जब मोहम्मद अपनी बात तथा बाईबल और तौरात की कहानियां सुनाता तो नाध्र भी कुछ कहानियाँ सुना देता और चुटकी लेते हुए कहता कि मोहम्मद मुझ से अच्छा कथाकार है.
मोहम्मद ने उस की हत्या से इसी अपमान का प्रतिशोध लिया था. ये हत्या नीति अथवा न्याय सांगत थी अथवा नहीं, ये निर्णय हम पाठकों के विवेक पर छोड़ते हैं.
इस हत्या का कारण संभवतः नाध्र द्वारा मोहम्मद का उपहास उड़ाया जाना था. मोहम्मद जब मक्का में रहता था, वो मक्का निवासियों को ये विश्वास दिलाने की असफल चेष्ट करता रहा कि वो एक पैगम्बर है. उस की बातों से अधिकतर मक्का वासी तटस्थ ही रहते थे. इस्लाम को नकारने वालों में नाध्र भी था. जब मोहम्मद अपनी बात तथा बाईबल और तौरात की कहानियां सुनाता तो नाध्र भी कुछ कहानियाँ सुना देता और चुटकी लेते हुए कहता कि मोहम्मद मुझ से अच्छा कथाकार है.
मोहम्मद ने उस की हत्या से इसी अपमान का प्रतिशोध लिया था. ये हत्या नीति अथवा न्याय सांगत थी अथवा नहीं, ये निर्णय हम पाठकों के विवेक पर छोड़ते हैं.
इस के दो दिन उपरान्त , जब मदीना का रास्ता आधा रह गया था तो मोहम्मद ने एक और बंधक जिस का नाम ओक्बा था, की हत्या का आदेश दिया. जब ओक्बा ने पूछा कि उसे अन्य बंधकों से अधिक दंड क्यों दिया जा रहा है तो मोहम्मद ने उत्तर दिया,"क्योंकि तुम अल्लाह और उस के रुसूल के शत्रु हो." यहाँ मोहम्मद ओक्बा द्वारा मोहम्मद के उपहास में लिखी कविता की और इंगित कर रहा था. ओक्बा ने खिन्न ह्रदय से पूछा कि,"मेरी बेटी का क्या होगा? उसकी देख भाल कौन करेगा?". मोहम्मद ने उत्तर दिया,"जहन्नुम की आग ". इस के पश्चात्, उसे काट कर धरती पर गिरा दिया गया और मोहम्मद बोला,"तुम अत्यंत बुरे और उत्पीड़क थे जो न तो अल्लाह पर, न उस के रुसूल पर और न ही उस की किताब पर विश्वास करते थे. मैं अल्लाह का आभारी हूँ जिस ने तुम्हारी हत्या की और मेरी आँखों को संतोष दिलाया".
जब बचे हुए बंदियों को लेकर मुसलमान मदीना पहुंचे तो मोहम्मद के निकटतम साथियों में से अबू बकर का विचार था कि बंदियों की हत्या न की जाए बल्कि उनके सम्बन्धियों से फिरौती ले कर उन्हें स्वतंत्र कर दिया जाए, जबकि ओमर का विचार था कि सब की हत्या कर दी जाए. ऐसा कहा जाता है कि उस समय कुरान की आयत प्रकट हुई. सुरा ८, आयत ६७
مَا كَانَ لِنَبِيٍّ أَن يَكُونَ لَهُ أَسْرَىٰ حَتَّىٰ يُثْخِنَ فِي الْأَرْضِ ۚ تُرِيدُونَ عَرَضَ الدُّنْيَا وَاللَّـهُ يُرِيدُ الْآخِرَةَ ۗ وَاللَّـهُ عَزِيزٌ حَكِيمٌ(अनुवाद फारूक खान एवं नदवी):-
कोई नबी जब कि रूए ज़मीन पर (काफिरों का) खून न बहाए उसके यहाँ कैदियों का रहना मुनासिब नहीं तुम लोग तो दुनिया के साज़ो सामान के ख्वाहॉ (चाहने वाले) हो और ख़ुदा (तुम्हारे लिए) आख़िरत की (भलाई) का ख्वाहॉ है और ख़ुदा ज़बरदस्त हिकमत वाला है
इस आयत ने मोहम्मद की दुविधा का निवारण कर दिया. कुछ बंधक जो उसे नापसंद थे, उन की हत्या कर दी गयी और अन्य को फिरौती ले कर स्वतंत्र कर दिया गया.
स्त्रोत : इब्न इस्हाक़ कृत, The Life of Muhammad, अनुवादक A. Guillaume, (Oxford UP, 1955, 2004), pp. 136 (Arabic pages 191-92)
The life of Mahomet by William Muir
स्त्रोत : इब्न इस्हाक़ कृत, The Life of Muhammad, अनुवादक A. Guillaume, (Oxford UP, 1955, 2004), pp. 136 (Arabic pages 191-92)
The life of Mahomet by William Muir
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