मंगलवार, 30 नवंबर 2010

नेहरु एक अन्तर्यामी

आधुनिक मनोविज्ञान ने शोध के आधार पर ये प्रमाणित किया है कि जब कभी कोई व्यक्ति, समुदाय अथवा राष्ट्र परतंत्र हो जाता है तो अधीनस्थ जनता में कुछ लोग विद्रोही हो जाते हैं, कुछ पूर्ववत जीवन जीते रहते हैं, और कुछ हीन भावना से ग्रसित हो जाते हैं. ये तीसरी श्रेणी के व्यक्ति अपने आक्रान्ताओं को हर प्रकार से श्रेष्ठ और अपने से जुड़ी हर वस्तु अथवा परंपरा को निकृष्ट समझने लगते हैं. धीरे धीरे वे अपने आप को आक्रान्ताओं जैसा ही समझने लग जाते हैं. मनोविज्ञान ने इस विकार का नाम रखा है 'हेलसिंकी सिंड्रोम'.
अब आप एक ऐसे व्यक्ति की कल्पना कीजिये जो परतंत्र भारतवर्ष में जन्मा और पला बढ़ा हो. यदि वो ये जानता हो कि जिस राष्ट्र में उस ने जन्म लिया है वो पहले इस्लामी आक्रान्ताओं से लड़ता रहा और अब अंग्रेजों के अधीनस्थ है तो वो उपरलिखित तीनों श्रेणियों में से किसी एक प्रकार का ही होगा. तथाकथित हिन्दू परिवार में जन्मा ये व्यक्ति यदि कहे,
"मैं विचारों एवं मानसिकता से अँगरेज़ हूँ, सभ्यता से मुसलमान हूँ और केवल एक दुर्घटना है कि मैं एक हिन्दू हूँ", 
तो ये कोई विलक्षणता नहीं है. ऐसी मानसिकता के व्यक्ति सुलभता से हर झुण्ड में मिल जाते हैं. किन्तु यदि वो सत्ता में आ जाये तो इस मानसिकता को सभी पर थोपने का प्रयत्न करता रहेगा. परिणामतः वो राष्ट्र और राष्ट्रवाद का हनन कर सकता है.
अब हम नियमों से व्यवहारिकता पर आते हैं.
नेहरु ने दो पुस्तकें लिखी हैं 'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया' तथा 'ग्लिम्प्सिस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्टरी'. इन में जो झूठ लिखे हैं, उन पर सहज विश्वास नहीं होता कि कोई इतनी बेबाकी से झूठ कैसे लिख सकता है.

 तैमुर लंग - नेहरु के अनुसार

खंडित भारत के प्रथम प्रधान मंत्री 'ग्लिम्प्सिस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्टरी' में तैमुर लंग नामक इस्लामी दरिन्दे के सम्बबंध में जो लिखता है वो इस प्रकार है:-
इस दरिन्दे को भारत के वैभव ने आकर्षित किया था. उसे अपने सेनापतियों को भारत पर आक्रमण करने के लिए समझाने में कठिनाई हो रही थी. इसलिए उस ने समरकंद में एक बैठक बुलाई जिस में अन्य राजनायिकों ने भारत की उष्ण जलवायु को एक असुविधा बताते हुए आक्रमण से मना किया. अंत में  तैमुर ने उन्हें विश्वास दिलाया कि वो भारत में रहेगा नहीं बल्कि लूट पाट कर के और वहाँ का विनाश कर के लौट आये गा. उस ने अपना वचन निभाया.
इसलिए जब तैमुर मंगोल सेना ले कर भारत आया तो उसे किसी विशेष प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा.और वो अपनी इच्छा अनुसार नरसंहार करता रहा और मानव सरों (नर मुंडों) के विशाल ढेर लगाता रहा. उसने बिना भेदभाव के हिंदुयों और मुसलामानों को मारा. जब युद्ध बंदी अधिक हो गए तो उस के आदेश पर एक लाख लोगों को मार दिया गया.
तैमुर लंग की आत्म कथा 


अब देखें कि तैमुर स्वयं अपने विषय में क्या कहता है. तैमुर जानता था कि भारत आक्रमण कर के वो इतिहास रचने वाला है, इस लिए उस ने इन आक्रमणों का अपनी पुस्तक 'मल्फुज़त - इ - तैमूरी' में लिखा है:-
सन १३९८ में मेरे मन में काफिरों के विरुद्ध आक्रमण कर के इस्लाम का सच्चा प्रतीक बनाने की इच्छा जागृत हुई.  मैंने सुनअ था कि यदि काफिरों की हत्या करो तो गाजी की उपाधि मिलती है और यदि मारे जाओ तो शहीद की उपाधि मिलती है. यही कारण था कि मैंने ये निर्णय किया, किन्तु मैं दुविधा में था कि मैं आक्रमण चीन के काफिरों पर करूँ अथवा भारत के काफिरों और मुशरिकों  पर. इस संबंध में मैंने शकुन जानने के लिए कुरान खोली. जो आयत खुली वो थी; ऐ नबी, काफिरों से युद्ध करो ताकि वो तुम में कठोरता पाएं. तत्पश्चात, उस ने अपने अधिकारियों से कहा,"हिंदुस्तान पर मेरे आक्रमण का उद्देश्य मोहम्मद के नियमों के अनुसार युद्ध करना है. हम उस राष्ट्र के वासियों को सच्चे संप्रदाय में परिवर्तित कर देंगे और उस भूमि को कुफ्र और अनेक देवी-देवतायों की पूजा से बचा लेंगे. तथा उनके मंदिरों और मूर्तियों को उखाड़ फेंकेगे और अल्लाह की दृष्टि में मुजाहिद बन जायेंगे.
आगे ये दरिंदा लिखता है,"इस समय इस्लाम के विद्वान् मेरे पास आये और उनसे काफिरों और मूर्तिपूजकों पर युद्ध करने के औचित्य पर उन्होंने कहा कि ये इस्लाम के प्रत्येक सुल्तान का और हर उस व्यक्ति का दायित्व है जो मानता है कि,'अल्लाह के अतिरिक्त कोई और इश्वर नहीं है और मोहम्मद उस का रुसूल है' वो अपने संप्रदाय को सुदृढ़ बनाने के लिए जिहाद करे और अपने संप्रदाय के शत्रुयों से युद्ध करे." और उन्होंने कहा कि हर सच्चे मुसलमान का कर्त्तव्य है कि वो ऐसा करे. जब ये शब्द अधिकारियों के कानों में पड़े तो उन का मन हिंदुस्तान पर जिहाद करने के लिए प्रसन्न हो गए. वो अपने घुटनों के बल बैठ गए और कुरान का फ़तेह वाला अध्याय दोहराने लगे.
 क्या इन्हें पढने के पश्चात कहीं लगता है कि तैमुर भारत का धन लूटने आया था. उस का एक ही उद्देश्य था. भारत की पवित्र भूमि को अपवित्र करना, जैसा कि ७१२ से लेकर अंग्रेजों के आने तक सभी इस्लामी डकैतों ने किया था. इस तैमुर लंग ने १६ दिसंबर, १३९९ को दिल्ली में १,००,००० हिंदुयों के सर काट दिए थे और दिल्ली को तहस नहस कर दिया था.
यदि आप गाँधी परिवार के तलुवे चाटने वालों के सामने ये तथ्य रखते हैं तो वे तथ्यों को तो झुठला नहीं पाते इसलिए दूसरा पैंतरा अपनाते हैं. वो कहते हैं कि यदि ये सत्य वे छुपा रहे हैं तो भारत की एकता और अखंड़ता की रक्षा के लिए ऐसा किया होगा. जहां तक अखंड़ता का प्रश्न है तो भारत माता के तीन खंड वर्तमान भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश बनाने में इसी नेहरु ने अहम् भूमिका निभायी थी. ऐसे कुतर्क दे कर इतिहास से खिलवाड़ एक अक्षम्य अपराध होना चाहिए. विश्व भर के इतिहासकारों का और सभ्रांत व्यक्तियों का एकमत है कि इतिहास जैसा हो उसे वैसा ही बताया जाना चाहिए ताकि उस से शिक्षा ले कर हम भूतकाल में हो चुकी त्रुटियों को दोहराने से बच जाएँ.

महमूद गज़नवी - नेहरु के अनुसार

नेहरु ने केवल तैमुर की दरिंदगी और सांप्रदायिक उन्माद को ही छुपाने की चेष्टा की हो ऐसा भी नहीं है. उन की कृपा दृष्टि सभी इस्लामी आक्रान्ताओं पर थी. ऐसा ही एक दरिंदा था महमूद गज़नवी. इस का विवरण हमारा ये प्रथम प्रधान मंत्री कैसे देता है, उसे भी देखिये.
वो एक योधा अधिक था और कट्टरपंथी कम था. उस ने संप्रदाय का उपयोग अपनी विजय के लिए किया था. उस के लिए भारत केवल एक ऐसा स्थान था जहां से उस ने धन तथा अन्य वस्तुएं लूट कर अपने साथ लेकर जानी थी. वो अपने नगर गज़नी को एशिया के अन्य भव्य नगरों जैसा भव्य बनाना चाहता था, इसलिए वो भारत से कलाकारों और भवन निर्मातायोन को लेकर गया था.
महमूद गजनवी - इस्लामी समकालीन इतिहासकारों के अनुसार

इसी महमूद के सन्दर्भ में समकालीन ऐतिहासिक संकलन क्या बताते है उसे भी देखें. निम्नलिखित वर्णन तारीख - इ - यामिनी, 'रुसत उस सफा' तथा तारीख - इ - फ़रिश्ता से लिया गया है.
सुल्तान महमूद कुरान का एक महान ज्ञाता और व्याख्याकार था. वो जहां भी जाता, लोगों को मुसलमान बनाने लग जाता. कई छोटे राज्यों के राजकुमार उस से युद्ध किये बिना ही इस डर से भाग खड़े होते थे कि यदि वे महमूद के वश में हो गए तो या तो उन्हें मौत के घात उतार दिया जाएगा अथवा मुसलमान बना दिया जाएगा. इस सन्दर्भ में एक विवरण उल्लेखनीय है. भीमपाल नामक एक राजा ने चाँद राय को भाग जाने की मंत्रणा दी थी ताकि जिस प्रकार भीमपाल के प्रियजनों को महमूद ने मुसलमान बना दिया था, वो चाँद राय को भी मुसलमान बना देगा.
वो जहां भी गया, वहाँ पर उस ने मस्जिदों और मदरसों की स्थापना की और मौलवियों की नियुक्ति कर दी.
अलबेरुनी जो महमूद के साथ आया था, इस सन्दर्भ में लिखता है:
इस राजकुमार ने जिहाद के लिए भारत पर आक्रमण किया और तीस से अधिक वर्षों तक ये क्रम जारी रहा. अल्लाह उस पर और उस के पिता पर दया करे! महमूद ने इस राष्ट्र के वैभव को पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया है और कई महान अभियान किये हैं जिन से हिन्दू रेत के कणों की भांति सभी दिशायों में बिखर गए हैं. उन के बिखरे हुए टुकड़े देख कर हर मुसलमान की कट्टर घृणा को आनंद अनुभव होता है. यही कारण है कि हिन्दू ज्ञान विज्ञानं हमारे द्वारा विजय किये गए क्षेत्रों से पलायन कर गया है और वहाँ चला गया है जहां अभी हमारे हाथ नहीं पहुंचे हैं.
महमूद गज़नी का कला प्रेम

इन तथ्यों से स्पष्ट है कि वो यहाँ पर धन लूटने नहीं आया था अपितु कुरान और हज़रत मोहम्मद के नियमों के अनुसार जिहाद करने के लिए आया था. उस का उद्देश्य था हिन्दू धर्म की समाप्ति और इस्लाम का पूर्ण स्थापन. कहीं ऐसा तो नहीं कि नेहरु एक देव पुरुष थे जो अपने जन्म से सैंकड़ों वर्ष पूर्व जन्मे व्यक्तियों की मानसिकता भी समझ लेते थे, वो भी जब वो व्यक्ति अपने संबंध में कुछ और ही कहता हो? यदि ऐसा है तो वास्तव में वो एक महान व्यक्ति थे न कि एक मिथ्याभाषी सत्ता लोलुप नेता.
चलिए देखें झूठ का पुलिंदा महमूद गज़नवी के लिए और क्या कहता है. नेहरु के अनुसार:-
वो भवनों में अधिक रूचि लेता था और मथुरा नगरी से अत्यंत प्रभावित था. उसने लिखा है,"यहाँ सहस्रों भवन है जो कि एक मुसलमान की दृढ़ता जितने दृढ हैं. यदि गज़नी को ऐसा नगर बनाने में करोड़ों दीनार का व्यय होगा और कम से कम २०० वर्ष लगेंगे, वो भी तब संभव होगा यदि कुशलतम निर्मातायों की सहायता ली जाएगी.
 नेहरु के इस वर्णनसे ऐसा प्रतीत होता है कि वो एक संवेदनशील व्यक्ति था जो भारत के निर्माण कौशल से प्रभावित था. यहाँ युधिष्ठिर के अर्ध सत्य की धूर्तता का परिचय मिलता है क्योंकि इसके पश्चात् उस ने क्या किया था ये चतुराई से छुपा दिया गया है. इस का वर्णन हमें मिलता है तारीख - इ - यामिनी में.
नगर के मध्य में एक विशाल मंदिर है जो अन्य सभी मंदिरों से भी दृढ है. इसका न तो व्याख्यान किया जा सकता है और न ही चित्र में दर्शाया जा सकता है. यदि ऐसा भव्य भवन कोई निर्मित करना चाहे तो उसे न्यूनतम २,००,००० दिनार का व्यय करना पड़ेगा, और यदि कुशलतम निर्मातायों को लगाया जाये तो इसमें २०० वर्ष का समय लगेगा. यहाँ कि मूर्तियों में पांच ऐसी हैं जो कि प्रत्येक पांच गज ऊँची है और लाल स्वर्ण से निर्मित है. इन में से एक की आँखों में दो माणिक जड़े हैं जो इतने मूल्यवान हैं कि यदि इन्हें बेचा जाए तो ५०,००० दिनार का मूल्य मिल सकता है.  एक अन्य प्रतिमा में एक विशाल नीलमणि है जो कि जल की भांति पारदर्शी है और स्फटिक जैसी चमक लिए हुए है. सभी मूर्तियों में से निकाले गए स्वर्ण का भार ९८,३०० मिस्कल है. चांदी की बनी हुई लगभग २०० मूर्तियाँ हैं किन्तु उन का भार उन के टुकड़े किये बिना नहीं जाना जा सकता. सुल्तान ने आदेश दिया कि सभी मंदिरों को मिटटी का तेल डाल कर भस्म करके धूल में मिला दिया जाए.
यहाँ उल्लेखनीय है कि ये वृतांत उसी पुस्तक (इलिअत एंड डाउसन कृत 'हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया एस टोल्ड बाई इट्स हिस्तौरीयंस) में दिया है जिस में से नेहरु ने सामग्री ली है.
ऊपर दिए दोनों वर्णनों में असमानता देखने के पश्चात् इसमें आश्चर्य नहीं होता कि आज तक भी हिंदुयों पर किये गए जघन्य अपराधों और अत्याचारों को मुस्लिम तुष्टिकरण नीति के अंतर्गत छिपा दिया जाता है.
नेहरु और उस के वंशज जो कि सबसे घोर पृथकतावादी हैं अपनी धूर्तता से अन्य राष्ट्रवादी संगठनों पर आरोप लगाते आये हैं. कहते हैं कि पाप का घड़ा जब भर जाता है तो फूटता है. आशा है कि वो समय आ गया है.
नेहरु की नीति धर्म निरपेक्षता की है, इस में तो वे शत प्रतिशत सत्यवादी हैं. धर्म निरपेक्षता का अर्थ है धर्म का पक्ष न लेना और यही नेहरु ने लेखक के रूप में किया भी है. लेखक का, विशेषकर इतिहास के लेखक का, ये धर्म है कि वो सत्य लिखे और सत्य का भाषण करे. नेहरु ने लेखक के इस धर्म का पालन न करके अपनी धर्म निरपेक्षता का जो उदाहरण प्रस्तुत किया है वो पूर्णतया सटीक है. फलस्वरूप इस लेखक जैसे साधारण नागरिकों का ये कर्त्तव्य है कि वो धर्म का पालन करें और सत्य लोगों तक पहुंचाएं.

बाबर - नेहरु  के अनुसार

नेहरु की इस धर्म निरपेक्षता की झलक बाबर के विषय में भी मिलती है. नेहरु के अनुसार:-
बाबर एक सभ्रांत व्यक्ति था जिस से मिल कर किसी को भी प्रसन्नता का अनुभव हो. उस में कोई साम्प्रदायिकता नहीं थी तथा उस ने कोई विनाश नहीं किया, जैसा कि उस के पूर्वजों ने किया था. वो एक आकर्षक व्यक्ति था जो कला और साहित्य में रूचि रखता था.
यहाँ एक बार नेहरु की अन्तर्यामी प्रवृति अपने चरम पर प्रतीत होती है क्योंकि  ये जानकारी तो बाबर को भी अपने संबंध में नहीं थी. इस व्यख्यान से तो ऐसा प्रतीत होता है कि बाबर एक सर्वकला सम्पूर्ण व्यक्ति था,  जिस में केवल गुण ही गुण थे और वो मानवता के लिए एक अनूठी देन था.

बाबर - अपने बाबर नामे के अनुसार

बाबर अपने द्वारा लिखे हुए बाबरनामा में अपने कला प्रेम के संबंध में लिखता है:
चंदेरी का राज्य कुछ समय से दारुल हर्ब बन गया था और उस पर सांघा के सर्वोच्च अधिकारी मादिनी राव का शासन था, जिसके चार अथवा पांच हज़ार काफिर वहाँ पर नियुक्त थे. अल्लाह की रहमत से, १५२७-२८ में मैंने आक्रमण कर के एक दो घड़ी में ही काफिरों का संहार कर दिया और चंदेरी को इस्लाम के अधीन कर दिया.
नेहरु के अनुसार इसे  साम्प्रदायिकता नहीं कहते. संभवतः कला प्रेम कहते होंगे
 बाबर ने अपने निर्णय के सन्दर्भ में एक कविता लिखी है, जिस के अनुसार:-
इस्लाम की खातिर मैं बना एक  आवारा 
मैंने हिन्दुओं और काफिरों से जंग की .
मैंने सोचा मैं बनूँगा शहीद . 
अल्लाह का शुक्रिया मैं बन गया मुजाहिद 

इस के पश्चात इस राजकुमार उदार विचारों को समझने में अधिक कठिनाई नहीं होती.


सोमवार, 29 नवंबर 2010

कुरान में जिहाद

इस्लाम एक शांतिपूर्ण विचारधारा ?

कश्मीर हो अथवा न्यू यॉर्क, जब भी कहीं आतंकी हमला होता है तो कुछ लोग ये कहने लगते हैं कि इस्लाम एक ऐसा संप्रदाय है जो कि आतंकवाद को बढ़ावा देता है, किन्तु उन से कहीं अधिक संख्या में मौलवी, राजनेता और बुद्धिजीवी ये कहते हैं कि इस्लाम तो एक शांतिप्रिय विचारधारा है और मुस्लिम संप्रदाय एक शांतिप्रिय संप्रदाय है. केवल कुछ भटके हुए नवयुवक इस शांत विचारधरा का अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए त्रुटिपूर्ण अर्थ निकाल लेते हैं. इस वाद प्रतिवाद का अंत तथ्यों के प्रकाश में ही किया जाना चाहिए. 

जिहाद सम्बन्धी आयतें 

इन दोनों पक्षों में से कौन सत्य भाषण कर रहा है ये जानने के लिए मुसलामानों द्वारा सर्वमान्य पुस्तक कुरान पर एक दृष्टि डालते हैं. सुरा ६६, आयत ९ इस प्रकार है:-
يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ جَاهِدِ الْكُفَّارَ وَالْمُنَافِقِينَ وَاغْلُظْ عَلَيْهِمْ ۚ وَمَأْوَاهُمْ جَهَنَّمُ ۖ وَبِئْسَ الْمَصِيرُ
 इस का अनुवाद इस प्रकार हमें मिलता है (इस लेख में जितने भी अनुवाद हैं, वे सभी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध अनुवादों में से लिए गए हैं न कि लेखक के अपने हैं):-
ऐ नबी! इनकार करनेवालों और कपटाचारियों से जिहाद करो और उनके साथ सख़्ती से पेश आओ। उनका ठिकाना जहन्नम है और वह अन्ततः पहुँचने की बहुत बुरी जगह है
 ये अनुवाद आंशिक रूप से भ्रामक है क्योंकि ये 'इनकार करनेवाले और कपटाचारियों ' जैसे शब्दों का उपयोग करके किया गया है. वास्तव में मूल आयत में जो शब्द हैं, वे हैं काफिर (जो मुसलमान नहीं हैं अर्थात हिन्दू, इसाई, यहूदी) तथा मुनाफ़िक़.(वो मुसलमान जो जेहाद नहीं करते) इस का एक और अनुवाद हमें मिलता है जो कि निम्नलिखित है और अधिक उपयुक्त है.
ऐ रसूल काफ़िरों और मुनाफ़िकों से जेहाद करो और उन पर सख्ती करो और उनका ठिकाना जहन्नुम है और वह क्या बुरा ठिकाना है
 इस आयत से ये तो स्पष्ट हो गया कि कुरान में काफिरों और मुनाफिकों से जेहाद करने के लिए कहा गया है. इसके लिए भी इस्लाम को शान्ति का संप्रदाय बताने वालों के पास एक उत्तर है. वे कहते हैं कि ये जो जेहाद है, ये व्यक्ति के भीतर के युद्ध अथवा द्वंद्वों को इंगित करता है. हालाँकि इस आयत से स्पष्ट है कि ये आक्रामक युद्ध के लिए प्रेरित करती है, किन्तु संदेह लाभ तो मिल ही सकता है.
ये युद्ध आंतरिक है अथवा वास्तविक, इस के लिए भी कुरान का ही अध्ययन करते हैं. सुरा ८, आयत ५७ इस प्रकार है:-
فَإِمَّا تَثْقَفَنَّهُمْ فِي الْحَرْبِ فَشَرِّدْ بِهِم مَّنْ خَلْفَهُمْ لَعَلَّهُمْ يَذَّكَّرُونَ
 इस का अनुवाद इस प्रकार है:-
अतः यदि युद्ध में तुम उनपर क़ाबू पाओ, तो उनके साथ इस तरह पेश आओ कि उनके पीछेवाले भी भाग खड़े हों, ताकि वे शिक्षा ग्रहण करें
 एक और अनुवाद इस प्रकार है:-
तो अगर वह लड़ाई में तुम्हारे हाथे चढ़ जाएँ तो (ऐसी सख्त गोश्माली दो कि) उनके साथ साथ उन लोगों का तो अगर वह लड़ाई में तुम्हारे हत्थे चढ़ जाएं तो (ऐसी सजा दो की) उनके साथ उन लोगों को भी तितिर बितिर कर दो जो उन के पुश्त पर हो ताकि ये इबरत हासिल करें
इन आयतों से स्पष्ट हो जाता है कि ये कोई आंतरिक युद्ध नहीं है बल्कि वास्तविक युद्ध है. निम्नलिखित आयतें और अधिक स्पष्टता से सच्चाई को दर्शाती हैं.
सुरा ८, आयत 59
وَلَا يَحْسَبَنَّ الَّذِينَ كَفَرُوا سَبَقُوا ۚ إِنَّهُمْ لَا يُعْجِزُونَ
 इस का अनुवाद इस प्रकार है:-
और कुफ्फ़ार ये न ख्याल करें कि वह (मुसलमानों से) आगे बढ़ निकले (क्योंकि) वह हरगिज़ (मुसलमानों को) हरा नहीं सकते
इसी आयत का एक अन्य अनुवाद:-
इनकार करनेवाले यह न समझे कि वे आगे निकल गए। वे क़ाबू से बाहर नहीं जा सकते
सुरा ८, आयत 60
 وَأَعِدُّوا لَهُم مَّا اسْتَطَعْتُم مِّن قُوَّةٍ وَمِن رِّبَاطِ الْخَيْلِ تُرْهِبُونَ بِهِ عَدُوَّ اللَّـهِ وَعَدُوَّكُمْ وَآخَرِينَ مِن دُونِهِمْ لَا تَعْلَمُونَهُمُ اللَّـهُ يَعْلَمُهُمْ ۚ وَمَا تُنفِقُوا مِن شَيْءٍ فِي سَبِيلِ اللَّـهِ يُوَفَّ إِلَيْكُمْ وَأَنتُمْ لَا تُظْلَمُونَ
इस का अनुवाद इस प्रकार है:-
और (मुसलमानों तुम कुफ्फार के मुकाबले के) वास्ते जहाँ तक तुमसे हो सके (अपने बाज़ू के) ज़ोर से और बॅधे हुए घोड़े से लड़ाई का सामान मुहय्या करो इससे ख़ुदा के दुश्मन और अपने दुश्मन और उसके सिवा दूसरे लोगों पर भी अपनी धाक बढ़ा लेगें जिन्हें तुम नहीं जानते हो मगर ख़ुदा तो उनको जानता है और ख़ुदा की राह में तुम जो कुछ भी ख़र्च करोगें वह तुम पूरा पूरा भर पाओगें और तुम पर किसी तरह ज़ुल्म नहीं किया जाएगा
 और दूसरा अनुवाद है:-
और जो भी तुमसे हो सके, उनके लिए बल और बँधे घोड़े तैयार रखो, ताकि इसके द्वारा अल्लाह के शत्रुओं और अपने शत्रुओं और इनके अतिरिक्त उन दूसरे लोगों को भी भयभीत कर दो जिन्हें तुम नहीं जानते। अल्लाह उनको जानता है और अल्लाह के मार्ग में तुम जो कुछ भी ख़र्च करोगे, वह तुम्हें पूरा-पूरा चुका दिया जाएगा और तुम्हारे साथ कदापि अन्याय न होगा
इन आयतों से स्पष्ट है कि इस्लाम के समर्थक या तो अनजाने में और या जान बूझ कर जेहाद और इस्लाम का एक त्रुटिपूर्ण स्पष्टीकरण देते आये हैं. कुरान में जेहादी आयतें बहुतायत में हैं, जिन्हें मैं एक साथ संकलित कर के प्रस्तुत करूंगा. यहाँ केवल सत्य स्थापना के लिए कुछ गिनी चुनी आयतें ही दे रहा हूँ. सुरा ४७ की आयत ४ बताती है कि किस सीमा तक काफिरों से जेहाद करना है.
فَإِذَا لَقِيتُمُ الَّذِينَ كَفَرُوا فَضَرْبَ الرِّقَابِ حَتَّىٰ إِذَا أَثْخَنتُمُوهُمْ فَشُدُّوا الْوَثَاقَ فَإِمَّا مَنًّا بَعْدُ وَإِمَّا فِدَاءً حَتَّىٰ تَضَعَ الْحَرْبُ أَوْزَارَهَا ۚ ذَٰلِكَ وَلَوْ يَشَاءُ اللَّـهُ لَانتَصَرَ مِنْهُمْ وَلَـٰكِن لِّيَبْلُوَ بَعْضَكُم بِبَعْضٍ ۗ وَالَّذِينَ قُتِلُوا فِي سَبِيلِ اللَّـهِ فَلَن يُضِلَّ أَعْمَالَهُمْ
 इस का हिंदी अनुवाद इस प्रकार है:-
तो जब तुम काफिरों से भिड़ो तो (उनकी) गर्दनें मारो यहाँ तक कि जब तुम उन्हें ज़ख्मों से चूर कर डालो तो उनकी मुश्कें कस लो फिर उसके बाद या तो एहसान रख (कर छोड़ दे) या मुआवेज़ा लेकर, यहाँ तक कि (दुशमन) लड़ाई के हथियार रख दे तो (याद रखो) अगर ख़ुदा चाहता तो (और तरह) उनसे बदला लेता मगर उसने चाहा कि तुम्हारी आज़माइश एक दूसरे से (लड़वा कर) करे और जो लोग ख़ुदा की राह में यहीद किये गए उनकी कारगुज़ारियों को ख़ुदा हरगिज़ अकारत न करेगा 
 इस का दूसरा अनुवाद है:-
अतः जब इनकार करनेवालो से तुम्हारी मुठभेड़ हो तो (उनकी) गरदनें मारना है, यहाँ तक कि जब उन्हें अच्छी तरह कुचल दो तो बन्धनों में जकड़ो, फिर बाद में या तो एहसान करो या फ़िदया (अर्थ-दंड) का मामला करो, यहाँ तक कि युद्ध अपने बोझ उतारकर रख दे। यह भली-भाँति समझ लो, यदि अल्लाह चाहे तो स्वयं उनसे निपट ले। किन्तु (उसने या आदेश इसलिए दिया) ताकि तुम्हारी एक-दूसरे की परीक्षा ले। और जो लोग अल्लाह के मार्ग में मारे जाते है उनके कर्म वह कदापि अकारथ न करेगा
 विल्लियम मुइर के अनुसार, यहाँ 'गर्दनें मारना है' का अर्थ गला काटने से है. आज भी जहां इस्लामी दंड व्यवस्था का प्रचलन है, वहाँ जल्लाद तलवार के एक वार से गर्दन को धड से काट देते हैं. इन आयतों से स्पष्ट हो जाता है कि ये कोई अंतर द्वंद्व नहीं है अपितु अन्य सम्प्रदायों को समाप्त करने का अभियान है.
किसी भी प्रकार का युद्ध हो तो धन की आवश्यकता होती है, इसलिए कुरान में जेहाद के लिए धन देने को एक अच्छा कार्य बताया गया है. संभवतः यही कारण है कि आतंकवादियों को कभी धन का अभाव नहीं होता. सुरा ६६ की आयत ११:-
तुम्हें ईमान लाना है अल्लाह और उसके रसूल पर, और जिहाद करना है अल्लाह के मार्ग में अपने मालों और अपनी जानों से। यही तुम्हारे लिए उत्तम है, यदि तुम जानो
शांतिप्रिय आयतें 

अब प्रश्न ये है कि जब इतनी स्पष्टता से जिहाद के लिए उकसाया जा रहा है तो इस्लाम के पक्षधर इसे कैसे छुपाते हैं. इस का एक उदाहरण है कि अभी कुछ माह पूर्व शाह रुख खान (जो इस्लाम को एक 'शांति के सम्प्रदाय' की छवि प्रदान करने के प्रयास करता रहता है) एक इस्लामी चैनल 'पीस टी वी' पर एक कार्यक्रम में उपस्थित हुआ था. वहाँ कुरान की सुरा ५ की आयत ३२ का उल्लेख कर के बताया गया कि इस्लाम 'शांति का सम्प्रदाय' है. कार्यक्रम के सूत्रधार जाकिर नाइक बताते हैं कि कुरान के अनुसार "यदि आप एक व्यक्ति को मारते हैं तो वो ऐसा है मानो आप ने पूरी मानव जाती को मार दिया है".
यदि कुरान में ऐसा है तो ये एक शान्ति का संदेश है और इस्लाम शांति का सम्प्रदाय है. इसे समझने के लिए हम इस पूरी आयत को देखते हैं. सुरा ५, आयत ३२ इस प्रकार है;
مِنْ أَجْلِ ذَٰلِكَ كَتَبْنَا عَلَىٰ بَنِي إِسْرَائِيلَ أَنَّهُ مَن قَتَلَ نَفْسًا بِغَيْرِ نَفْسٍ أَوْ فَسَادٍ فِي الْأَرْضِ فَكَأَنَّمَا قَتَلَ النَّاسَ جَمِيعًا وَمَنْ أَحْيَاهَا فَكَأَنَّمَا أَحْيَا النَّاسَ جَمِيعًا ۚ وَلَقَدْ جَاءَتْهُمْ رُسُلُنَا بِالْبَيِّنَاتِ ثُمَّ إِنَّ كَثِيرًا مِّنْهُم بَعْدَ ذَٰلِكَ فِي الْأَرْضِ لَمُسْرِفُونَ
 इस के अनुवाद इस प्रकार हैं:

इसी कारण हमने इसराईल का सन्तान के लिए लिख दिया था कि जिसने किसी व्यक्ति को किसी के ख़ून का बदला लेने या धरती में फ़साद फैलाने के अतिरिक्त किसी और कारण से मार डाला तो मानो उसने सारे ही इनसानों की हत्या कर डाली। और जिसने उसे जीवन प्रदान किया, उसने मानो सारे इनसानों को जीवन दान किया। उसने पास हमारे रसूल स्पष्टि प्रमाण ला चुके हैं, फिर भी उनमें बहुत-से लोग धरती में ज़्यादतियाँ करनेवाले ही है.
फ़ारूक़ ख़ान एवं  अहमद
 इसी सबब से तो हमने बनी इसराईल पर वाजिब कर दिया था कि जो शख्स किसी को न जान के बदले में और न मुल्क में फ़साद फैलाने की सज़ा में (बल्कि नाहक़) क़त्ल कर डालेगा तो गोया उसने सब लोगों को क़त्ल कर डाला और जिसने एक आदमी को जिला दिया तो गोया उसने सब लोगों को जिला लिया और उन (बनी इसराईल) के पास तो हमारे पैग़म्बर (कैसे कैसे) रौशन मौजिज़े लेकर आ चुके हैं (मगर) फिर उसके बाद भी यक़ीनन उसमें से बहुतेरे ज़मीन पर ज्यादतियॉ करते रहे
 फ़ारूक़ ख़ान एवं नदवी 
 पूरी आयत पढ़ कर समझ में आता है कि ये केवल इस्राइल की संतानों, अर्थात यहूदियों के लिए है. दूसरे, कुछ परिस्थितियाँ भी बतायी गयी हैं, जिन में क़त्ल किया जा सकता है, जैसे कि फसाद फैलाने वाले का क़त्ल किया जा सकता है. इस का पूरा आशय अगली आयत से, जो कि टी वी पर नहीं बोली जाती, से स्पष्ट हो जाता है. सुरा ५, आयत ३३:-
إِنَّمَا جَزَاءُ الَّذِينَ يُحَارِبُونَ اللَّـهَ وَرَسُولَهُ وَيَسْعَوْنَ فِي الْأَرْضِ فَسَادًا أَن يُقَتَّلُوا أَوْ يُصَلَّبُوا أَوْ تُقَطَّعَ أَيْدِيهِمْ وَأَرْجُلُهُم مِّنْ خِلَافٍ أَوْ يُنفَوْا مِنَ الْأَرْضِ ۚ ذَٰلِكَ لَهُمْ خِزْيٌ فِي الدُّنْيَا ۖ وَلَهُمْ فِي الْآخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيمٌ
इस का अनुवाद हैं:
जो लोग अल्लाह और उसके रसूल से लड़ते है और धरती के लिए बिगाड़ पैदा करने के लिए दौड़-धूप करते है, उनका बदला तो बस यही है कि बुरी तरह से क़त्ल किए जाए या सूली पर चढ़ाए जाएँ या उनके हाथ-पाँव विपरीत दिशाओं में काट डाले जाएँ या उन्हें देश से निष्कासित कर दिया जाए। यह अपमान और तिरस्कार उनके लिए दुनिया में है और आख़िरत में उनके लिए बड़ी यातना है
और दूसरा अनुवाद इस प्रकार है:-
जो लोग ख़ुदा और उसके रसूल से लड़ते भिड़ते हैं (और एहकाम को नहीं मानते) और फ़साद फैलाने की ग़रज़ से मुल्को (मुल्को) दौड़ते फिरते हैं उनकी सज़ा बस यही है कि (चुन चुनकर) या तो मार डाले जाएं या उन्हें सूली दे दी जाए या उनके हाथ पॉव हेर फेर कर एक तरफ़ का हाथ दूसरी तरफ़ का पॉव काट डाले जाएं या उन्हें (अपने वतन की) सरज़मीन से शहर बदर कर दिया जाए यह रूसवाई तो उनकी दुनिया में हुई और फिर आख़ेरत में तो उनके लिए बहुत बड़ा अज़ाब ही है.
अब समझे. जो एहकाम को नहीं मानते अर्थात जो मुसलमान नहीं हैं, उनके साथ क्या क्या करना है.
यदि आप केवल उतना ही सुनते हैं जो टी वी पर अथवा काफिरों को भ्रमित करने के लिए कहा जाता है तो ये शांति का सम्प्रदाय है. आज काफिरों के पास इतना समय ही नहीं है कि वो अपने धर्म ग्रंथों को पढ़ें फिर अरबी भाषा में लिखी किसी और सम्प्रदाय की पुस्तक को पढने का तो प्रश्न ही नहीं उठता. खंडित भारत में काफिरों के कर से मदरसों में अबोध बच्चोन को शिक्षा के नाम पर क्या पढाया जा रहा है, उस का ज्ञान यहाँ से हो सकता है. इस का परिणाम क्या होगा ये तो भविष्य में ही पता लगेगा.
इस के अतिरिक्त दो और आयतें हैं जिनका टी वी तथा अन्य माध्यमों पर काफिरों के लिए प्रचार किया जाता है.  ये दोनों आयतें मोहम्मद के जीवन काल के उस खंड की हैं जब वो अभी मक्का में ही रहता था और गिने चुने ही अनुयाई थे. इस समय तक कि आयतों में आक्रामकता प्रखर नहीं हुई थी. कुछ मौलवियों के अनुसार जिहादी आयतों के उपरान्त ये आयतें मान्य नहीं हैं. इन्हें भी देखिये. सुरा २, आयत २५६:-
لَا إِكْرَاهَ فِي الدِّينِ ۖ قَد تَّبَيَّنَ الرُّشْدُ مِنَ الْغَيِّ ۚ فَمَن يَكْفُرْ بِالطَّاغُوتِ وَيُؤْمِن بِاللَّـهِ فَقَدِ اسْتَمْسَكَ بِالْعُرْوَةِ الْوُثْقَىٰ لَا انفِصَامَ لَهَا ۗ وَاللَّـهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ
इस का अनुवाद इस प्रकार है:-
दीन में किसी तरह की जबरदस्ती नहीं क्योंकि हिदायत गुमराही से (अलग) ज़ाहिर हो चुकी तो जिस शख्स ने झूठे खुदाओं बुतों से इंकार किया और खुदा ही पर ईमान लाया तो उसने वो मज़बूत रस्सी पकड़ी है जो टूट ही नहीं सकती और ख़ुदा सब कुछ सुनता और जानता है
इस आयत का भी रेखांकित भाग सुनाया जाता है, जिस से ऐसा प्रतीत हो कि इस्लाम सभी सम्प्रदायों को समान देखता है और बलात सम्प्रदाय परिवर्तन में विश्वास नहीं करता.

 सुरा १०९, आयत ६ इस प्रकार है:-
لَكُمْ دِينُكُمْ وَلِيَ دِينِ
इस का अनुवाद इस प्रकार है:-
तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन मेरे लिए मेरा दीन

 जब मोहम्मद मक्का से पलायन कर के मदीना चला गया था तो वहाँ अनुयाइओ की संख्या बढ़  गयी थी. इसके पश्चात  उस ने वहाँ मुसलामानों को जिहाद के लिए प्रेरित करना आरम्भ किया. अगली आयत से ऐसे संकेत मिलते हैं कि कुछ लोग जिहाद नहीं करना चाहते थे. ये है सुरा 47 की आयत 20.
وَيَقُولُ الَّذِينَ آمَنُوا لَوْلَا نُزِّلَتْ سُورَةٌ ۖ فَإِذَا أُنزِلَتْ سُورَةٌ مُّحْكَمَةٌ وَذُكِرَ فِيهَا الْقِتَالُ ۙ رَأَيْتَ الَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ يَنظُرُونَ إِلَيْكَ نَظَرَ الْمَغْشِيِّ عَلَيْهِ مِنَ الْمَوْتِ ۖ فَأَوْلَىٰ لَهُمْ
इस का अनुवाद इस प्रकार है:-
और मोमिनीन कहते हैं कि (जेहाद के बारे में) कोई सूरा क्यों नहीं नाज़िल होता लेकिन जब कोई साफ़ सरीही मायनों का सूरा नाज़िल हुआ और उसमें जेहाद का बयान हो तो जिन लोगों के दिल में (नेफ़ाक़) का मर्ज़ है तुम उनको देखोगे कि तुम्हारी तरफ़ इस तरह देखते हैं जैसे किसी पर मौत की बेहोशी (छायी) हो (कि उसकी ऑंखें पथरा जाएं) तो उन पर वाए हो

 इस के उपरान्त कुरान में जिहाद सम्बंधित आयतों की भरमार मिलती है, जिन में से कुछ यहाँ दी  गयी हैं.

शनिवार, 27 नवंबर 2010

इस्लाम को जानिये

 विचारधारा
इस्लाम एक विचारधारा है जिस का आरम्भ लगभग सन ६१० में हुआ था और इस की नीव मोहम्मद नामक व्यक्ति ने रखी थी. ऐसी मान्यता है कि जिब्रिल (जिसे बाइबल में गैब्रील कहा जाता है) नामक एक देवदूत केवल मोहम्मद को दिखाई व सुनाई देता था और वही मोहम्मद को अल्लाह का संदेश देता था ताकि ये संदेश पूरे संप्रदाय तक पहुँचाया जा सके.  इस प्रकार मोहम्मद अल्लाह का संदेश वाहक था. मोहम्मद के अनुसार, उस से पूर्व भी अल्लाह संदेश वाहक भेजता रहा है, जिन में यीशु भी एक था, किन्तु मोहम्मद इस श्रृंखला का अंतिम संदेश वाहक है. इसलिए उस के द्वारा दिया गया संदेश जिसे कुरान में लिखा गया है, सम्पूर्ण ज्ञान है और सदा के लिए मान्य है. इस विचारधारा के कुछ बिंदु इस प्रकार हैं.

मोम्मिन (मुसलमान)

मुसलमान वो है जो यह मानता है कि सृष्टि बनाने वाले का नाम अल्लाह है और उस के अतिरिक्त कोई अन्य नहीं है अर्थात यदि कोई सृष्टि रचने वाले को इश्वर, भगवान्, गौड  अथवा किसी भी अन्य नाम से पुकारता है तो वो एक घृणित व्यक्ति है. इस के साथ ये भी आवश्यक है कि वो यह माने कि मोहम्मद अल्लाह का संदेश वाहक (रुसूल) है. इस के अतिरिक्त उसे अपने जीवन काल में कम से कम एक समय हज पर जाना चाहिए, रमजान के दिनों में रोज़े रखने चाहिए और ज़कात  (अपनी ओर से दान) देना चाहिए. यहाँ उल्लेखनीय है कि ज़कात केवल मुसलमान को ही दिया जाता है.
जहिल्य 

इस्लाम सम्पूर्ण मानव इतिहास को दो भागों में विभाजित करता है. इस्लामी विचारधारा के अनुसार कुरान से पहले का समय जाहिल्य था अर्थात समाज असभ्य था और कुरान के आने के उपरान्त विश्व में ज्ञान का प्रकाश हुआ है. ज्ञात हो कि इस्लाम के आक्रमण ने मिस्र जैसी सदियों पुरानी सभ्यता को समूल नष्ट कर दिया है. आज मिस्र के निवासी स्वयं को पूर्ण रूप से मुसलमान मानते हैं और ये भूल चुके हैं कि उन की भूमि पर इस्लाम की स्थापना उन्ही के पूर्वजो की हत्या के पश्चात् हुई है. हमारे निकट अफगानिस्तान में, जहां कभी वेद मन्त्रों का उच्चारण होता था और जहां बौध  मत के अनुयायियों ने बुद्ध की सुन्दर प्रतिमाएं जिन्हें बामियान बुद्ध भी कहा जाता था, बनायी थी, उन्हें मोहम्मद के विचारों के अनुसार ध्वस्त कर दिया गया.

काफिर (बहुवचन - कुफ्फार)

इसी प्रकार जो दूसरा विभाजन है, उस के अनुसार जो लोग इस्लाम को अपना लेते हैं वे अति विशिष्ट हैं जिन्हें  मोम्मिन मुसलमान, मुस्लिम अथवा ईमानवाले कहा जाता है, किन्तु जो इस्लाम को नहीं मानते, वे काफिर (कुफ्फर, कुफ्फार), इनकार करने वाले अथवा न मानने वालों के नाम से जाने जाते हैं. ज्ञात हो कि काफ़िर और कुफ्फार के स्थान पर इनकार करने वाले जैसे कम आक्रामक शब्दों का प्रयोग पिछले कुछ वर्षों से ही प्रचलन में आया है. पाठकों के समक्ष एक उदाहरण रखता हूँ. कुरान के सुरा (अध्याय) ८ की आयत ५५ के दो अनुवाद प्रस्तुत हैं:-
इसमें शक़ नहीं कि ख़ुदा के नज़दीक जानवरों में कुफ्फ़ार सबसे बदतरीन तो (बावजूद इसके) फिर ईमान नहीं लाते 
निश्चय ही, सबसे बुरे प्राणी अल्लाह की स्पष्ट में वे लोग है, जिन्होंने इनकार किया। फिर वे ईमान नहीं लाते 
मूल आयत जो कि अरबी भाषा में है, इस प्रकार है:-
إِنَّ شَرَّ الدَّوَابِّ عِندَ اللَّـهِ الَّذِينَ كَفَرُوا فَهُمْ لَا يُؤْمِنُونَ
इसे यदि देवनागरी में लिखा जाये तो कुछ इस प्रकार है
इन्ना शर्रा अल्दावाब्बी  आइन्दा अल्लाहि अल्लाथीना काफ्फारू फहूम ला युमिनूना 
इस में कहीं भी 'इनकार करने वाले' जैसा कोई शब्द नहीं है. उल्लेखनीय है कि इन में से कोई भी अनुवाद लेखक का अपना किया हुआ नहीं है अपितु उपलब्ध अनुवादों का अक्षरशः प्रस्तुतीकरण है.
मदरसों में तो कुरान वास्तविक रूप में ही पढाई जाती है किन्तु जनसाधारण को एक ऐसी छवि दिखाई जाती है कि उसे भ्रमित ही रखा जाए. इस षड़यंत्र का परिणाम है कि हमारे भारतवर्ष के नागरिक सच्चाई से अवगत नहीं हैं. वो मदरसे जिन के मौलवियों को वेतन हमारे दिए हुए करों से मिलता है, हमें ही 'सब से बदतरीन जानवर' कहते और पढ़ाते हैं.
मुशरिक

इस्लामी विचारधारा के अनुसार इस सृष्टि को बनाने वाला एक है और उस का नाम अल्लाह है. जैसा कि ऊपर बताया है, यदि आप उसे किसी भी अन्य नाम जैसे राम, कृषण, शिव अथवा यीशु के नाम से पुकारते हैं तो ये एक अक्षम्य अपराध है जिसे शिर्क कहा जाता है और ऐसा करने वालों को मुशरिक कहा जाता है. यही मूर्तिपूजा के लिए भी है. ज्ञात हो कि मोहम्मद ने जहां जन्म लिया था उस नगर मक्का में जहां आज काबा नामक मस्जिद है, उस में ३६० मूर्तियाँ स्थापित थी. जब मोहम्मद की आयु लगभग ६० वर्ष की हुई तब तक उस ने अपने कई अनुयायी बना लिए थे और इन्ही के साथ मक्का पर आक्रमण कर के काबा की मूर्तियों को तोड़ दिया था. मोहम्मद इसाई सम्प्रदाय की ही भांति मूर्तिपूजा को एक घृणित कार्य मानता था. इसीलिए कुरान में मुशरिकों को घृणित कहा गया है. उदाहरण के लिए सुरा ९, आयत २८ इस प्रकार है:-
ऐ ईमानदारों मुशरेकीन तो निरे नजिस हैं तो अब वह उस साल के बाद मस्जिदुल हराम (ख़ाना ए काबा) के पास फिर न फटकने पाएँ और अगर तुम (उनसे जुदा होने में) फक़रों फाक़ा से डरते हो तो अनकरीब ही ख़ुदा तुमको अगर चाहेगा तो अपने फज़ल (करम) से ग़नीकर देगा बेशक ख़ुदा बड़ा वाक़िफकार हिकमत वाला है
ऐ ईमान लानेवालो! मुशरिक तो बस अपवित्र ही है। अतः इस वर्ष के पश्चात वे मस्जिदे हराम के पास न आएँ। और यदि तुम्हें निर्धनता का भय हो तो आगे यदि अल्लाह चाहेगा तो तुम्हें अपने अनुग्रह से समृद्ध कर देगा। निश्चय ही अल्लाह सब कुछ जाननेवाला, अत्यन्त तत्वदर्शी है 
मूल अरबी आयत इस प्रकार है:-
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِنَّمَا الْمُشْرِكُونَ نَجَسٌ فَلَا يَقْرَبُوا الْمَسْجِدَ الْحَرَامَ بَعْدَ عَامِهِمْ هَـٰذَا ۚ وَإِنْ خِفْتُمْ عَيْلَةً فَسَوْفَ يُغْنِيكُمُ اللَّـهُ مِن فَضْلِهِ إِن شَاءَ ۚ إِنَّ اللَّـهَ عَلِيمٌ حَكِيمٌ
ऊपर जो दूसरा हिंदी अनुवाद है, उस से इस्लाम की जो मूर्तिपूजा और इश्वर के अन्य नामों अथवा रूप के प्रति जो घृणा है वो स्पष्ट नहीं होती. जो पहले अनुवाद में अरबी के मूल शब्द नाजिस का प्रयोग किया गया है उसका अर्थ है घृणित. इस घृणा का अनुमान लगाने के लिए इस्लाम में वर्णित अन्य नाजिस वस्तुयों को जान लेना चाहिए. ये हैं मल, मूत्र, वीर्य, शव, कुत्ता, सूयर, रक्त, काफिर, मदिरा तथा ऐसे पशुयों का स्वेद (पसीना) जो किसी भी नाजिस वस्तु का सेवन करते हैं.

दारुल हर्ब

तीसरा विभाजन जो इस्लाम करता है वो यह है कि जिन प्रदेशों में इस्लाम का राज्य है, वे पवित्र (दारुल इस्लाम) हैं और जहाँ पर कोई और शासन है, वे नाजिस (अपवित्र अथवा दारुल हर्ब) हैं. हर सच्चे मुसलमान का ये कर्त्तव्य है कि वो पूरे विश्व को दारुल इस्लाम में परिवर्तित करने में यथा समभाव् सहयोग करे. इस प्रयत्न का नाम जिहाद है और जिहाद करने वाले मुसलमान मुजाहिद हैं. इन का स्थान अल्लाह की निगाहों में साधारण मुसलमान (मोम्मिन) से कहीं ऊंचा है. इस के विपरीत वे मुसलमान जो जिहाद से बचने का प्रयत्न करते हैं, उन्हें मुनाफ़िक़ कहा जाता है और उनकी कुरान में भरपूर भर्त्सना की गयी है. उन का स्थान काफिरों और मुशरिकों से भी निम्न है.
इस के लिए जो आयतें हैं, उन में से एक के दो भिन्न अनुवाद प्रस्तुत हैं. सुरा ४, आयत ९५:-
माज़ूर लोगों के सिवा जेहाद से मुंह छिपा के घर में बैठने वाले और ख़ुदा की राह में अपने जान व माल से जिहाद करने वाले हरगिज़ बराबर नहीं हो सकते (बल्कि) अपने जान व माल से जिहाद करने वालों को घर बैठे रहने वालें पर ख़ुदा ने दरजे के एतबार से बड़ी फ़ज़ीलत दी है (अगरचे) ख़ुदा ने सब ईमानदारों से (ख्वाह जिहाद करें या न करें) भलाई का वायदा कर लिया है मगर ग़ाज़ियों को खाना नशीनों पर अज़ीम सवाब के एतबार से ख़ुदा ने बड़ी फ़ज़ीलत दी है 
ईमानवालों में से वे लोग जो बिना किसी कारण के बैठे रहते है और जो अल्लाह के मार्ग में अपने धन और प्राणों के साथ जी-तोड़ कोशिश करते है, दोनों समान नहीं हो सकते। अल्लाह ने बैठे रहनेवालों की अपेक्षा अपने धन और प्राणों से जी-तोड़ कोशिश करनेवालों का दर्जा बढ़ा रखा है। यद्यपि प्रत्यके के लिए अल्लाह ने अच्छे बदले का वचन दिया है। परन्तु अल्लाह ने जी-तोड़ कोशिश करनेवालों का बड़ा बदला रखा है 
 मूल अरबी आयत इस प्रकार है:-
 لَّا يَسْتَوِي الْقَاعِدُونَ مِنَ الْمُؤْمِنِينَ غَيْرُ أُولِي الضَّرَرِ وَالْمُجَاهِدُونَ فِي سَبِيلِ اللَّـهِ بِأَمْوَالِهِمْ وَأَنفُسِهِمْ ۚ فَضَّلَ اللَّـهُ الْمُجَاهِدِينَ بِأَمْوَالِهِمْ وَأَنفُسِهِمْ عَلَى الْقَاعِدِينَ دَرَجَةً ۚ وَكُلًّا وَعَدَ اللَّـهُ الْحُسْنَىٰ ۚ وَفَضَّلَ اللَّـهُ الْمُجَاهِدِينَ عَلَى الْقَاعِدِينَ أَجْرًا عَظِيمًا
यहाँ भी जिन शब्दों का प्रयोग है, वे हैं मोम्मिन और मुजाहिद (रेखांकित), न कि इनकार करने वाले अथवा ईमान वाले.

ताकिया

सम्पूर्ण विश्व को दारुल इस्लाम बनाने के लिए केवल जिहाद ही एकमात्र उपाय नहीं है. एक और महत्वपूर्ण उपाय है ताक़िया. ये शब्द अरबी के मूल शब्द तौकात से बना है, और इस का अर्थ है छुपाना. इस के अनुसार प्रतिकूल परिस्थिति में यदि किसी मुसलमान को अपनी और इस्लाम की रक्षा के लिए अथवा इस्लाम के प्रचार के लिए झूठ भी बोलना पड़े तो ये उस के लिए वर्जित नहीं है. क्या ऊपर दिए गए कुरान के भ्रांतिपूर्ण अनुवाद भाषा के ज्ञान के अभाव के कारण हैं अथवा ताक़िया का ही अंग हैं? इस से सम्बंधित आयत है आयात है सुरा ३ की आयत २८:-
يَتَّخِذِ الْمُؤْمِنُونَ الْكَافِرِينَ أَوْلِيَاءَ مِن دُونِ الْمُؤْمِنِينَ ۖ وَمَن يَفْعَلْ ذَٰلِكَ فَلَيْسَ مِنَ اللَّـهِ فِي شَيْءٍ إِلَّا أَن تَتَّقُوا مِنْهُمْ تُقَاةً ۗ وَيُحَذِّرُكُمُ اللَّـهُ نَفْسَهُ ۗ وَإِلَى اللَّـهِ الْمَصِيرُ
इसे देवनागरी में इस प्रकार लिख सकते हैं:-
ला यात्ताखिथि अल्मुमिनूना अलकाफिरीना औलिया मिन दूनी अल्मुमिनीना वामन याफाल तालिका फलय्सा मीणा अल्लाहि फी शाईन इल्ला अन तत्ताकू मिन्हुम तुक़तान शाईन वायुहथ्थिरुकुमु अल्लाहु नफ्सहू वैला अल्लाहि अल्मासीरू 
पाठकों को कोई भ्रम न रह जाए, इसलिए यहाँ तुक़तान को रेखांकित कर दिया गया है. अब इसी का अनुवाद देखते हैं:-
 मोमिनीन मोमिनीन को छोड़ के काफ़िरों को अपना सरपरस्त न बनाऐं और जो ऐसा करेगा तो उससे ख़ुदा से कुछ सरोकार नहीं मगर (इस क़िस्म की तदबीरों से) किसी तरह उन (के शर) से बचना चाहो तो (ख़ैर) और ख़ुदा तुमको अपने ही से डराता है और ख़ुदा ही की तरफ़ लौट कर जाना है 
ईमानवालों को चाहिए कि वे ईमानवालों से हटकर इनकारवालों को अपना मित्र (राज़दार) न बनाएँ, और जो ऐसा करेगा, उसका अल्लाह से कोई सम्बन्ध नहीं, क्योंकि उससे सम्बद्ध यही बात है कि तुम उनसे बचो, जिस प्रकार वे तुमसे बचते है। और अल्लाह तुम्हें अपने आपसे डराता है, और अल्लाह ही की ओर लौटना है.
क्या आप इन दोनों अनुवादों से इस का स्पष्ट अर्थ जान सकते हैं?
इस का अर्थ यह है कि मुसलमान केवल मुसलामानों को ही अपना मित्र बनाए और काफिरों को कभी भी मित्र अथवा सहयोगी न बनाए. यदि कोई ऐसा करेगा तो अल्लाह उसे नहीं अपनाएगा. किन्तु यदि ऐसा कार्य वो अपने को बचाने के लिए करता है तो ठीक है. अल्लाह तुम्हें चेतावनी देता है क्योंकि तुम्हे उसी के पास लौटना है.

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

मोहम्मद का अपने बेटे की पत्नी से निकाह

सन - ५९६ 

ज़ायेद बना ज़ायेद बिन मोहम्मद

मोहम्मद का पहला विवाह ४० वर्षीया खंदिजा बिन्त ख्वालिद, जो कि उस से लगभग १५ वर्ष बड़ी थी, हुआ था. इस विवाह के कुछ समय उपरान्त, खंदिजा के एक भतीजे हाकिम ने ज़ायेद नामक एक सेवक भेंट स्वरुप खंदिजा को दिया. ज़ायेद एक इसाई माता पिता की संतान था जो कि सीरिया में रहते थे. एक दिन जब नन्हा ज़ायेद अपनी माँ के साथ यात्रा पर जा रहा था तो अरबी आक्रान्ताओं ने उस का अपहरण कर के उसे गुलामी के लिए बेच दिया था. जब वो एक तरुण ही था तो वो हाकिम के अधिकार में आया.
जब उसे खंदिजा और मोहम्मद की सेवा में भेजा गया, उस की आयु लगभग २० वर्ष थी. मोहम्मद से उस की शीघ्र ही घनिष्ठता हो गयी. खंदिजा ने अपने पति की प्रसन्नता के लिए उसे अपने पति की सेवा में रख दिया. उस का वर्णन एक आज्ञाकारी सेवक के रूप में किया जाता है, जो कि छोटी कद काठी का और सांवले रंग का था.
उस का  पिता हरिथ उसे ढूँढने के प्रयास कर रहा था. उस के कुछ परिचितों ने, जब वे मक्का में तीर्थ यात्रा पर आये थे, तब ज़ायेद को खंदिजा के यहाँ देखा और इस की सूचना हरिथ को दी. वो अपने पुत्र को मुक्त कराने के लिए आया और इस के लिए एक भारी धन राशि भी ले कर आया. मोहम्मद ने उसे बुलाया और उसे अपनी इच्छा बताने के लिए कहा. ज़ायेद ने कहा,
"मैं आपको छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगा. मेरे लिए तो आप ही मेरे माता और पिता हो". 
उसकी ये स्वामी भक्ति देख कर मोहम्मद ने कहा,
"मैं उपस्थित व्यक्तियों के सामने ये घोषणा करता हूँ कि ज़ायेद मेरा पुत्र है. ये मेरा उत्तराधिकारी भी है".
ज़ायेद का पिता हरिथ इस संतोष से वापिस चला गया कि उस का पुत्र गुलामी के जीवन से मुक्त हो, एक सामान्य जीवन व्यतीत करेगा.  इस के पश्चात् उसे ज़ायेद बिन मोहम्मद (ज़ायेद - मोहम्मद का बेटा) के नाम से जाना जाने लगा. इस समय कोई नहीं जानता था कि कुछ वर्ष पश्चात्, जब मोहम्मद एक नबी के रूप में अपने आप को स्थापित कर लेगा तो इस संबंध का  ज़ायेद को भारी मूल्य चुकाना पड़ेगा.
मोहम्मद के कहने पर, ज़ायेद ने 'ओम्म अयमन', नामक महिला से निकाह किया. हालाँकि ओम्म अयमन ज़ायेद से दोगुनी आयु की थी, किन्तु मोहम्मद ने उसे आश्वासन दिया कि इस निकाह के परिणामस्वरूप, ज़ायेद को जन्नत मिल जाएगी. ज्ञात हो कि ओम्म अयमन वो महिला थी जिस ने मोहम्मद के बालपन में उस की देख भाल की थी, इसलिए आयु में अत्यधिक अंतर स्वाभाविक था. इस महिला से ज़ायेद को एक पुत्र 'ओसामा' प्राप्त हुआ.

सन ६२६
ज़ैनब बिन्त जैश 



अब तक मोहम्मद और इस्लाम ने अपनी पहचान स्थापित कर ली थी. खंदिजा की मृत्यु हो चुकी थी और मोहम्मद के हरम में कई नवयुवतियां सम्मिलित कर ली गयी थी, जिन में इस समय ११ वर्षीया आयेशा भी सम्मिलित थी. एक दिन मोहम्मद ज़ायेद के घर पहुंचा तो ज़ायेद तो घर पर नहीं था किन्तु उस की आकर्षक पत्नी ज़ैनब (आयु ३० - ३५) ने मोहम्मद को अन्दर आने का निमंत्रण दिया. मोहम्मद के आगमन पर अपने अस्त व्यस्त वस्त्रों को व्यवस्थित करते हुए मोहम्मद उसे देख रहा था.  मोहम्मद ने कहा,"अल्लाह महान है जो दिलों को बदल देता है" और वहाँ से रवाना हो गया*. ये वाक्य ज़ैनब ने सुन लिया और ज़ायेद के आते ही उस बता दिया.

ज़ायेद की प्रतिक्रिया 

ज़ायेद इसे सुनते ही सीधे मोहम्मद के पास गया और कहा कि यदि मोहम्मद का दिल ज़ैनब पर आ गया है तो वो मोहम्मद की इच्छापूर्ति के लिए ज़ैनब को तलाक़ दे देगा. मोहम्मद ने कहा," अपनी पत्नी को अपने पास रखो और अल्लाह से डरो".
शीघ्र ही ज़ायेद ने ज़ैनब को तलाक़ दे दिया. क्या ज़ायेद ने भांप लिया था कि मोहम्मद ने बेमन से इनकार किया है अथवा उसकी पत्नी ज़ैनब मोहम्मद के हरम में जाना चाहती है? इस का उत्तर तो कोई नहीं दे सकता किन्तु वास्तविकता यही है कि इस तलाक़ से मोहम्मद का मार्ग प्रशस्त हो गया था.

मोहम्मद के दिल की बात अल्लाह जानता था 

उन दिनों अरबी समाज में पुत्रवधू से निकाह करना, भले ही वो मुंह बोले अथवा गोद लिए पुत्र की वधु ही क्यों न हो, एक कुकृत्य माना जाता था. अभी तक मोहम्मद की नबी के रूप में छवि पूर्ण रूप से स्थापित नहीं हुई थी और मदीना में भी उस के कई विरोधी थे. इस लिए एक ओर अपनी इच्छा और दूसरी ओर छवि धूमिल होने के भय से एक दुविधा उत्पन्न हो गयी. उसकी इस दुविधा का निवारण अल्लाह ने कुरान की कुछ नई पंक्तियों (आयतें) से कर दिया. ज्ञात हो कि अल्लाह की ये आयतें केवल मोहम्मद को ही सुनायी पड़ती थी, जिन्हें वो लोगों को बता दिया करता था कि ये अल्लाह की इच्छा है. आयत इस प्रकार है:-
याद करो (ऐ नबी), जबकि तुम उस व्यक्ति से कह रहे थे जिसपर अल्लाह ने अनुकम्पा की, और तुमने भी जिसपर अनुकम्पा की कि "अपनी पत्नी को अपने पास रोक रखो और अल्लाह का डर रखो, और तुम अपने जी में उस बात को छिपा रहे हो जिसको अल्लाह प्रकट करनेवाला है। तुम लोगों से डरते हो, जबकि अल्लाह इसका ज़्यादा हक़ रखता है कि तुम उससे डरो।" अतः जब ज़ैद उससे अपनी ज़रूरत पूरी कर चुका तो हमने उसका तुमसे विवाह कर दिया, ताकि ईमानवालों पर अपने मुँह बोले बेटों की पत्नियों के मामले में कोई तंगी न रहे जबकि वे उनसे अपनी ज़रूरत पूरी कर लें। अल्लाह का फ़ैसला तो पूरा होकर ही रहता है.
कुरान सुरा ३३, आयत 37 (फारूक खान एवं अहमद)
नबी पर उस काम में कोई तंगी नहीं जो अल्लाह ने उसके लिए ठहराया हो। यही अल्लाह का दस्तूर उन लोगों के मामले में भी रहा है जो पहले गुज़र चुके है - और अल्लाह का काम तो जँचा-तुला होता है।जो अल्लाह के सन्देश पहुँचाते थे और उसी से डरते थे और अल्लाह के सिवा किसी से नहीं डरते थे। और हिसाब लेने के लिए अल्लाह काफ़ी है।
कुरान सुरा ३३, आयत ३८-३९ (फारूक खान एवं अहमद)
सम्पूर्ण कुरान में केवल यही एक आयत है जिस में किसी व्यक्ति विशेष को नाम से संबोधित किया गया है.

जब ये आयत प्रकट हुई तो ५६ वर्षीय मोहम्मद के पास उस की ११ वर्षीय पत्नी आयेशा ही उपस्थित थी. तत्पश्चात मोहम्मद ने कहा,
"कौन जाकर ज़ैनब को ये शुभ समाचार देगा कि अल्लाह ने उसे मोहम्मद के लिए चुन लिया है".
मोहम्मद की दासी सलमा ने जा कर ज़ैनब को ये सूचना दी. शीघ्र ही मोहम्मद ने मस्जिद के बरामदे में एक भोज दिया और ज़ैनब से निकाह कर लिया.

मदिनावासियों की प्रतिक्रिया

इस निकाह को ले कर यदि मदिनावासियों ने किस प्रकार की प्रतिक्रिया की थी, इस के कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं हैं, किन्तु यदि प्रतिक्रिया मोहम्मद के विरुद्ध थी तो इस का समाधान भी अल्लाह मियाँ ने कुरान में एक अगली आयत से कर दिया था. आयत इस प्रकार है:
(लोगों) मोहम्मद तुम्हारे मर्दों में से (हक़ीक़तन) किसी के बाप नहीं हैं (फिर जैद की बीवी क्यों हराम होने लगी) बल्कि अल्लाह के रसूल और नबियों की मोहर (यानी ख़त्म करने वाले) हैं और खुदा तो हर चीज़ से खूब वाक़िफ है
कुरान सुरा ३३, आयत ४० (फारूक खान एवं नदवी)
ज़ायेद बिन हरिथ

  ज़ायेद का नाम , ज़ायेद बिन मोहम्मद, मोहम्मद के लिए असमंजसपूर्ण स्थिति उत्पन्न कर सकता था. इस का निदान भी अल्लाह मियां ने अपनी आयतों से कर दिया. कुरान के अनुसार:
 अल्लाह ने किसी व्यक्ति के सीने में दो दिल नहीं रखे। और न उसने तुम्हारी उन पत्ऩियों को जिनसे तुम ज़िहार कर बैठते हो, वास्तव में तुम्हारी माँ बनाया, और न उसने तुम्हारे मुँह बोले बेटों को तुम्हारे वास्तविक बेटे बनाए। ये तो तुम्हारे मुँह की बातें है। किन्तु अल्लाह सच्ची बात कहता है और वही मार्ग दिखाता है
उन्हें उनके बापों का बेटा करकर पुकारो। अल्लाह के यहाँ यही अधिक न्यायसंगत बात है। और यदि तुम उनके बापों को न जानते हो, तो धर्म में वे तुम्हारे भाई तो है ही और तुम्हारे सहचर भी। इस सिलसिले में तुमसे जो ग़लती हुई हो उसमें तुमपर कोई गुनाह नहीं, किन्तु जिसका संकल्प तुम्हारे दिलों ने कर लिया, उसकी बात और है। वास्तव में अल्लाह अत्यन्त क्षमाशील, दयावान है 

कुरान सुरा ३३, आयत ४-५  (फारूक खान एवं अहमद)
इस के उपरान्त ज़ायेद को लोग अब ज़ायेद बिन हरिथ कह कर पुकारने लगे.

जाहिल्य

इस निकाह का परिणाम ये हुआ कि इस्लाम के पूर्वकाल की अरब सभ्यता में संतान गोद लेना एक पवित्र कार्य माना जाता था, किन्तु इस्लाम में गोद लेना वर्जित है. इस्लाम के समर्थकों का कहना है कि मोहम्मद ने ये निकाह वासना से वशीभूत हो कर नहीं किया था बल्कि विश्व के लिए संदेश था कि गोद लेना एक वर्जित कार्य है. ज्ञात हो कि इस्लामी पुस्तकों के अनुसार इस्लाम से पूर्व का समय 'जाहिल्य' अर्थात जाहिल अथवा असभ्य था और इस्लाम ने उसे सभ्य बनाया है. इसी प्रकार मोहम्मद से पूर्व काल में अरब समाज में कई देवता तथा देवियाँ प्रतिष्ठित थे और महिलायों को स्वावलंबन की स्वतंत्रता थी. इस का प्रमाण मोहम्मद की ही प्रथम पत्नी खंदिजा के रूप में मिलता है जो कि एक प्रतिष्ठी एवं सफल व्यवसायी थी. इस सभ्यता में पर्दा प्रथा का पदार्पण कुरान की आयतों से हुआ.
उचित अथवा अनुचित का निर्णय पाठक स्वयं कर सकते हैं.

*इस घटना का विवरण तबरी में जो भिन्नता दर्शाता है वो है कि जब मोहम्मद ज़ायेद के घर गया था, उस समय, वो द्वार खटखटाने के उपरान्त भीतर नहीं गया था अपितु हवा के झोंके ने उसे परदे के पीछे से ज़ैनब दिखलाई थी जो कि अन्तः वस्त्रों में थी.

रविवार, 21 नवंबर 2010

मोहम्मद द्वारा काफिरों का नरसंहार

जब मोहम्मद को यथ्रीब (मदीना का पुराना नाम) से पलायन किये हुए पांच वर्ष हो चुके थे, तब तक वो और उस के मुसलमान अनुयायी मक्का वासियों (कोरिशों) के कुछ कारवां लूट चुके थे तथा उन के कई निवासियों की हत्या कर चुके थे. इस से मक्का वासियों में एक रोष की लहर व्याप्त थी. कुछ ऐसी ही मनोदशा कई और कबीलों की थी जिन में कुछ यहूदी कबीले भी थे. इन सब ने मिल कर, मक्का के मुखिया अबू सुफियान के नेत्रित्व में यथ्रीब पर आक्रमण कर के प्रतिशोध लेने के लिए सेना भेज दी. जब से मोहम्मद यथ्रीब में बसा था, उसने यथ्रीब के दो उपनगरीय यहूदी कबीलों (बानू कैनुका और बानू नज़ीर) तथा एक अरबी कबीले (बानू मुस्तालिक) को वहाँ से खदेड़ कर उन की सम्पति पर अधिकार कर लिया था.
परिणामतः, वहां बचे हुए यहूदी कबीले (बानू कुरैज़ा) में मोहम्मद का भय व्याप्त था. इसलिए जब अबू सुफियान की सेना ने यथ्रीब के निकट डेरा डाला तो संभवतः, उन्होंने मोहम्मद का साथ नहीं दिया और तटस्थ बने रहे. कुछ हदीसों के अनुसार क़ुरैज़ा के निवासी कोरिशों की सहायता कर रहे थे, किन्तु इन पर विश्वास करने से अच्छा है यदि हम अपने प्रमाण कुरान में ही देखें. निम्नलिखित आयतें क़ुरैज़ा की तटस्थता अथवा असक्रिय सहायता अंकित करती हैं. 

कोरिशों की वापसी 

लगभग दो सप्ताह तक दोनों सेनाएं आमने सामने खड़ी रही. अंततः, एक दिन आंधी और तूफ़ान ने कोरिशों के की छावनी तथा खाद्य सामग्री को विनष्ट कर दिया. विवश हो कर कोरिशों को लौटना पड़ा. 

अल्लाह का पैगाम 

जब सभी यथ्रीब निवासी अपने घरों को लौटने लगे तो मोहम्मद के लिए कुरान की आयतें प्रकट होने लगी. इन आयतों के अनुसार अल्लाह ने मुसलामानों की सहायता के लिए ही तूफ़ान भेजा था.
ऐ ईमान लानेवालो! अल्लाह की उस अनुकम्पा को याद करो जो तुमपर हुई; जबकि सेनाएँ तुमपर चढ़ आई तो हमने उनपर एक हवा भेज दी और ऐसी सेनाएँ भी, जिनको तुमने देखा नहीं। और अल्लाह वह सब कुछ देखता है जो तुम करते हो.
 कुरान सुरा ३३:९
यहूदियों के संबंध में इसी सुरा में आगे कहा गया है:-
और जबकि उनमें से एक गिरोह ने कहा, "ऐ यसरिबवालो, तुम्हारे लिए ठहरने का कोई मौक़ा नहीं। अतः लौट चलो।" और उनका एक गिरोह नबी से यह कहकर (वापस जाने की) अनुमति चाह रहा था कि "हमारे घर असुरक्षित है।" यद्यपि वे असुरक्षित न थे। वे तो बस भागना चाहते थे 
  कुरान सुरा ३३:१३
यद्यपि वे इससे पहले अल्लाह को वचन दे चुके थे कि वे पीठ न फेरेंगे, और अल्लाह से की गई प्रतिज्ञा के विषय में तो पूछा जाना ही है  
  कुरान सुरा ३३:१५
अल्लाह तुममें से उन लोगों को भली-भाँति जानता है जो (युद्ध से) रोकते है और अपने भाइयों से कहते है, "हमारे पास आ जाओ।" और वे लड़ाई में थोड़े ही आते है, (क्योंकि वे) तुम्हारे साथ कृपणता से काम लेते है। अतः जब भय का समय आ जाता है, तो तुम उन्हें देखते हो कि वे तुम्हारी ओर इस प्रकार ताक रहे कि उनकी आँखें चक्कर खा रही है, जैसे किसी व्यक्ति पर मौत की बेहोशी छा रही हो। किन्तु जब भय जाता रहता है तो वे माल के लोभ में तेज़ ज़बाने तुमपर चलाते है। ऐसे लोग ईमान लाए ही नहीं। अतः अल्लाह ने उनके कर्म उनकी जान को लागू कर दिए। और यह अल्लाह के लिए बहुत सरल है
  कुरान सुरा ३३:१८-१९

क़ुरैज़ा पर धावा 

इस प्रकार, कथित रूप से, अल्लाह के आदेश पर यथ्रीब की सेना अब बानू क़ुरैज़ा की ओर चल पड़ी. इस सेना में लगभग ३००० मुसलमान थे और ३६ घुड़सवार थे. इन्होने बानू क़ुरैज़ा को घेर लिया जिस से कि उन्हें खाद्य सामग्री न मिल सके. ये घेराव दो - तीन सप्ताह तक रहा. इस पूरे समय, तीरों की वर्षा से कबीले को डराए रखा गया. एक मुसलमान, जो अधिक आगे निकल गया था, एक यहूदी महिला द्वारा चक्की के पत्थर के गिराने से, मारा गया था.

क़ुरैज़ा का समर्पण 

अंततः, भूख और प्यास से बेहाल हो कर  क़ुरैज़ा के निवासियों ने मोहम्मद के पास संदेश भेजा कि वे बस्ती छोड़ कर चले जायेंगे, जिस प्रकार पहले भी दो यहूदी बस्तियां मोहम्मद और उस के मुसलमान साथियों ने खाली करवा ली थी. इन बस्तियों की सारी चल अचल सम्पति मुसलामानों ने आपस में बाँट ली थी.

मोहम्मद का इनकार 

मोहम्मद ने प्रस्ताव ठुकरा दिया क्योंकि इस बार वो इस से भी बड़ी ग़नीमत (लूट का माल) बटोरने वाला था. 'मरता क्या न करता' की स्थिति में क़ुरैज़ा के निवासियों ने आत्म समर्पण का निश्चय किया और कहा कि बानू ऑस कबीले का मुखिया  'साद  इब्न मुआध' को मध्यस्थता के लिए आग्रह किया. इस कबीले के बानू क़ुरैज़ा से मैत्रीपूर्ण संबंध थे.
सभी २००० निवासियों को बंदी बना लिया गया. पुरुषों के हाथ उनके पीछे बांध दिए गए और उन्हें मोहम्मद बिन असलम (काब का हत्यारा) के अधिकार में, निर्णय आने तक रखा गया. महिलाएं और बच्चों को एक यहूदी से मुस्लिम बने व्यक्ति के अधीन रखा गया. ग़नीमत में १५०० तलवारें, १००० बरछे, ५०० ढालें, ३०० बख्तर के अतिरिक्त वस्त्र और अन्य सामग्री मुसलामानों को प्राप्त हुई. साद इब्न मुआध का निर्णय सभी हदीसों में वर्णित है. एक वर्णन यहाँ पाठकों के लिए प्रस्तुत है.

नरसंहार का निर्णय 

सही बुखारी - खंड ४, पुस्तक ५२, संख्या २८०; अबू सईद अल खुदरी की व्याख्या के अनुसार:-
जब बानू क़ुरैज़ा के निवासी साद का निर्णय मानने स्वीकार कर लिया तो मोहम्मद ने साद को बुलाया. साद एक गढ़े पर सवार, मोहम्मद के पास पहुंचा. जब वो निकट आ गया तो मोहम्मद ने उसे अपने निकट बैठने को कहा और एक मदीना निवासी से कहा,"अपने मुखिया के लिए खड़े हो जाओ". मोहम्मद ने साद से कहा,"ये लोग तुम्हारा निर्णय स्वीकार करने के लिए सहमत हैं". साद ने कहा,
मैं निर्णय देता हूँ कि इन के सभी योधाओं को मृत्यु दंड दिया जाए और इन के बच्चों और पत्नियों को बंदी बना लिया जाए.
मोहम्मद ने टिपण्णी की," ऐ साद, तुमने अल्लाह की इच्छा के अनुरूप ही निर्णय दिया है".

बच्चों का चयन

नरसंहार से बचने वाले बच्चों में से एक के द्वारा हमें मुसलामानों द्वारा बच्चों के चयन की प्रक्रिया का पता लगता है. तफसीर अल तबरी, पुस्तक ३८, संख्या ४३९० के अनुसार, अतैय्या अल कुराज़ी बताता है:
मैं बानू क़ुरैज़ा के बंधकों में था. मोहम्मद के साथियों ने हमारा निरिक्षण किया. जिनके गुप्तांगों पर केश आने लग गए थे, उनकी हत्या कर दी गयी और अन्यों को नहीं मारा गया.
रेहाना

यह निर्णय शाम के समय दिया गया था.  इस निर्णय के पश्चात्, बंधकों को मोहम्मद की निगरानी में ले जाया गया तो उस ने उन में से रेहाना नाम की सुन्दर यहूदी महिला को अपने लिए चुन लिया. पुरुषों को एक विशाल गोदाम में रखा गया. रात्री में यथ्रीब के बाज़ार में एक विशाल खड्डा खोदा गया और अगले दिन प्रातः काल पुरुष बंधकों को ५-६ के झुण्ड में बारी बारी से लाया गया. मोहम्मद द्वारा उन्हें गड्ढे के किनारे पर बैठने का आदेश दिया जाता, जहां उन की गर्दनें काट दी जाती और शवों को गड्ढे में गिरा दिया जाता. यह प्रक्रिया पूरा दिन चली जिस के फलस्वरूप लगभग ८०० यहूदी पुरुषों की हत्या कर दी गयी.

महिला की हत्या 

जिस महिला ने पत्थर से एक मुसलमान की हत्या की थी, उसने मोहम्मद को अपने कृत्य से अवगत करवाया और आग्रह किया कि उसे भी उस के पति की भांति मार दिया जाए. उसे तत्काल मार दिया गया. मोहम्मद की बाल वधु आयेशा (जो इस नरसंहार को देख रही थी) ने उस महिला के विषय में कहा कि उस महिला का हँसता हुआ चेहरा उसे जीवन भर विचलित करता रहा.

ज़हीर की हत्या 

बानू ऑस के निवासी थाबित ने एक वृद्ध यहूदी ज़हीर तथा उस के कुटुंब के लिए मृत्यु दंड से मुक्ति अर्जित कर ली क्योंकि इस वृद्ध ने एक पुराने युद्ध में बानू ऑस के कई व्यक्तियों की जान बचाई थी. ज़हीर ने जब अन्य मुखियों के विषय में पूछा, जिस में हुवाये, काब, ओज्ज़ल के विषय में पूछा. प्रत्येक के विषय में उसे एक ही उत्तर मिला कि वे सब मार दिए गए हैं. तब ज़हीर ने कहा 
यदि वे सब मर गए हैं तो मैं भी एक ऐसे व्यक्ति के अधिकार में जीवित नहीं रहना चाहता जिस ने मेरे सभी प्रियजनों की हत्या कर दी है. ये मेरी तलवार लो, और मुझे भी मार दो ताकि मैं भी उन से जा मिलूँ. 
जब थाबित ने ऐसा करने से इनकार कर दिया तो अली के कहने पर एक अन्य व्यक्ति ने उसे मौत के घात उतार दिया. मोहम्मद को जब उस के अंतिम वाक्य सुनाये गए तो उसने कहा,
वो अपने साथियों से अवश्य मिलेगा, जहन्नुम की आग में 
तत्पश्चात मोहम्मद ने  शवों के ऊपर मिटटी डलवा कर भूमि को समतल करने का आदेश दे दिया. कहते हैं कि मदीना का वो बाज़ार आज भी वहीँ पर है.

रेहाना - मोहम्मद की उपस्री (रखैल)

इस प्रकार ८०० व्यक्तियों को मौत के घात उतारने के पश्चात् मोहम्मद रेहाना नामक उस महिला के पास पहुंचा, जिस के पति सहित अन्य पुरुष सम्बन्धी इसी मोहम्मद ने मार दिए थे और उस से इस्लाम अपनाने और मोहम्मद की पत्नी बनने को कहा. जब रेहाना ने ऐसा करने से इनकार कर दिया तो उसे मोहम्मद के हरम में रखा गया, जहां वो मोहम्मद के जीवन काल तक उस की वासना पूर्ती के लिए रखी गयी. इस निरीह महिला की मनः स्थिति का, जिसे अपने पति और अन्य सम्बन्धियों के हत्यारे की वासना पूर्ती पहली रात से ले कर कई वर्षों तक करनी पड़ी हो, हम संभवतः अनुमान ही लगा सकते हैं.

ग़नीमत का बंटवारा 
ग़नीमत अर्थात लूट के माल को चार श्रेणियों में रखा गया; भूमि, अन्य वस्तुएं, पशु एवं गुलाम (महिलाएं और बच्चे). इन सब में से पांचवां भाग मोहम्मद को प्राप्त हुआ. अर्थात लगभग १००० महिलायों और बच्चों में से २०० मोहम्मद के लिए थे. इन में से कुछ महिलायों और लड़कियों को उस ने अपने मित्रों को उपहार स्वरुप भेज दिया. जो बच गए, उन्हें नज्द इलाके के बदूं कबीलों को बेच कर उन के स्थान पर घोड़े तथा अस्त्र शस्त्र ले लिए क्योंकि वो एक सशक्त सेना का निर्माण करना चाहता था.
अन्य सभी सामान ३००० सैनिकों में विभक्त कर दिया गया. महिलाएं सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को बेच दी गयी. इब्न इस्हाक़ तथा विल्लियम मुइर द्वारा लिखी मोहम्मद की जीवन कथा के अनुसार, ३-४ पुरुषों ने घेराव से पहले ही इस्लाम अपना कर अपनी जान, माल और कुटुंब की रक्षा कर ली थी. 

कुरान में वर्णन 

इस नरसंहार और लूट पाट का स्पष्ट प्रमाण हमें कुरान में ही मिल जाता है. हदीसें तो इन प्रमाणों से भरी पड़ी हैं.
और किताबवालों में सो जिन लोगों ने उसकी सहायता की थी, उन्हें उनकी गढ़ियों से उतार लाया। और उनके दिलों में धाक बिठा दी कि तुम एक गिरोह को जान से मारने लगे और एक गिरोह को बन्दी बनाने लगे और उसने तुम्हें उनके भू-भाग और उनके घरों और उनके मालों का वारिस बना दिया और उस भू-भाग का भी जिसे तुमने पददलित नहीं किया। वास्तव में अल्लाह को हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है
  कुरान सुरा ३३:२६-२७
कुरान की शैली में यहूदियों और ईसाईयों को किताबवाले लोग कहा जाता है. यहाँ उल्लेखनीय है कि बानू क़ुरैज़ा पर कुछ लोग आरोप लगाते हैं कि वो मोहम्मद के विरुद्ध युद्ध कर रहे थे. यदि वे वास्तव में सक्रिय रूप से विरोध करते तो कोरिशों ने जब आक्रमण किया था, उस समय बानू क़ुरैज़ा मदीना पर पीछे से आक्रमण कर के मोहम्मद को पराजित करने में कोरिशों को विजय दिलवा सकते थे.

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

इस्लाम, कविता और लोकतंत्र

 अस्मा बिन्त मरवान - ६२४ 

जब मदीना वासियों ने मोहम्मद को अपने नगर में अतिथि की भांति आदर सत्कार से संरक्षण दिया हुआ था, कुछ निवासी मोहम्मद ओर इस्लाम से प्रसन्न नहीं थे. ऐसी ही एक निवासी थी अस्मा. अस्मा इस्लाम को नापसंद करती थी और इसीलिए उसने अपने पूर्वजों की मूर्तिपूजा के पद्दति (जिसे इस्लाम सबसे घोर अपराध कहता है) को नहीं त्यागा था. वो ऑस नामक कबीले के निवासी मरवान की बेटी थी जिसे कविता लिखने में रूचि थी. सन ६२४ में कविता अपने भाव व्यक्त करने के गिने चुने माध्यमों में से एक था.
अस्मा ने एक कविता रची, जिस में उस ने खेद व्यक्त किया कि उस के नगर वासी एक अनजाने व्यक्ति का स्वागत और विश्वास कर रहे थे, जिसने उन्हीके मुखिया की हत्या की थी. ये पंक्तियाँ धीरे धीरे अन्य मूर्तिपूजकों में भी प्रचलित हो गयी और मुसलामानों तक पहुँच गयीं. मुसलमान इस पर क्रोधित हो गए और उन में से एक ओमीर नामक नेत्रहीन मुसलमान (कुछ के अनुसार अस्मा का भूतपूर्व पति) अत्यंत उत्साहित हो गया और उस ने प्रण किया कि वो अस्मा की हत्या करेगा. वो भी ऑस कबीले का ही निवासी था. एक रात वो चुपके से अस्मा के घर में घुस गया. उसने टटोल कर अस्मा के दूध मुहें बच्चे को अलग किया और अपनी तलवार अस्मा के हृदय में इतनी शक्ति से घोंप दी कि वह चारपाई के साथ ही बिंध गयी.
अगली प्रातः जब वो मस्जिद में पहुंचा तो मोहम्मद ने उस से पूछा "क्या तुमने मरवान की बेटी की हत्या कर दी है?" ओमीर ने उत्तर दिया,"हां, परन्तु यह बताएं कि इस में कोई घबराने वाली बात तो नहीं है?" मोहम्मद ने उत्तर दिया,"नहीं, उस के लिए तो कोई दो बकरियां भी आपस में नहीं भिड़ेंगी." फिर वो मस्जिद में एकत्रित लोगों को संबोधित करते हुए कहा,"यदि तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखना चाहते हो जिस ने अल्लाह और उस के नबी की मदद की है तो इसे देखो".
ये सुन कर ओमर ने कहा,"क्या, ये तो अँधा ओमीर है". मोहम्मद ने उत्तर दिया,"इसे अँधा मत कहो, बल्कि कहो ओमीर बशीर (देखने वाला)".
जब वो हत्यारा वापिस अपने घर जा रहा था तो अस्मा के घर के पास से निकला जहां उसके बेटे अस्मा को दफना रहे थे. उन्होंने ओमीर से कहा कि उसी ने उन की माँ की हत्या की है. ओमीर, जो अब निडर हो चुका था ने प्रत्युतर में कहा कि उसीने हत्या की है और यदि उन में से किसी ने भी वैसा कोई कृत्या किया तो वो उन के पूरे वंश का नाश कर देगा.
इस धमकी का अपेक्षित परिणाम हुआ. धीरे धीरे पूरे कबीले ने इस्लाम संप्रदाय अपना लिया. मृत्यु से बचने का यही एक उपाय रह गया लगता था.
स्त्रोत - इब्न इस्हाक़ पृष्ठ  -६७५/९९५, The life of Mahomet - William Muir pp 232

अबू अफाक 

इस हत्या के कुछ ही सप्ताह पश्चात् ऐसा ही एक और वध इस्लाम के नाम पर और मोहम्मद के आदेश से किया गया.  अबू अफाक नामक एक यहूदी भी अस्मा की ही भांति अपने पूर्वजों के संप्रदाय और पद्दति को पसंद करता था, इसलिए इस्लाम का समर्थक नहीं था. उसने भी कुछ पंक्तियाँ लिखी जो मुसलामानों को पसंद नहीं आयी. वो एक वयोवृद्ध था (कुछ के अनुसार १०० वर्ष से अधिक आयु), और बनी अम्र नामक कबीले का मूल निवासी था.
एक दिन मोहम्मद ने अपने अनुयायिओं से कहा," कौन इस विनाशकारी व्यक्ति से मेरा पीछा छुड़ाएगा"? कुछ ही दिनों के उपरान्त एक मुसलमान सलीम बिन उमैर को अवसर मिल गया. अबू अफाक अपने बरामदे में सो रहा था. मुसलमान ने अवसर देख कर सोये हुए वृद्ध की तलवार से हत्या कर दी. वृद्ध की मृत्यु से पूर्व की चीख पुकार ने आस पास के लोगों को आकृष्ट किया, किन्तु जब तक वे पहुँचते, हत्यारा जा चुका था.
स्त्रोत: इब्न इस्हाक़ पृष्ठ ६७५/९९५,  The life of Mahomet - William Muir pp 233
 काब बिन अशरफ

 काब बिन अशरफ बनी नाधिर नामक कबीले की एक यहूदी महिला का बेटा था. वो कुछ समय के लिए इस्लाम संप्रदाय का समर्थक रहा, किन्तु जब मोहम्मद ने किबला (नमाज़ की दिशा) जेरुसलेम से उलट कर काबा की ओर कर दिया तो इस्लाम से पृथक हो गया.
वो कोरिशों की बद्र के झगडे में हुई पराजय से दुखी था. वो मक्का गया और कोरिशों में, अपनी कवितायों द्वारा, जोश भरने लगा कि वो बद्र में दफ़न अपने वीरों की मृत्यु का प्रतिशोध लें.
जब वो वापिस मदीना पहुंचा तो मुसलामानों ने उस पर आरोप लगाया कि वो उन की महिलायों के सन्दर्भ में अशोभनीय पंक्तियाँ लिखता है. मोहम्मद इस प्रभावशाली व्यक्ति द्वारा इस्लाम के विरोध से चिंतित था. एक दिन उस ने उच्च स्वर में नमाज़ अदा करते हुए कहा," अल्लाह मुझे अशरफ के बेटे और उसकी कवितायों और विद्रोह से किसी भी तरह निजात दिलायो". पहले कि भांति, अब भी उस ने अपने किसी अनुयायी को सीधे संबोधित करने की अपेक्षा सभी से कहा,"कौन मुझे अशरफ के बेटे से निजात दिलाएगा, जो मुझे परेशान करता है?" मोहम्मद बिन असलम आगे बढ़ा और बोला,"मैं उस की हत्या करूँगा".
मोहम्मद ने अपनी सहमती जताते हुए उसे कहा कि वो अपने कबीले (बनी ऑस) के मुखिया साद बिन मुआध से परामर्श कर ले. साद बिन मुआध के सुझाने पर उस ने अपने कबीले के चार और व्यक्तियों को अपने साथ ले लिया और मोहम्मद से अपनी योजना के लिए अनुमति लेने के लिए पहुंचा. विशेष अनुमति इस लिए लेनी थी क्योंकि योजना के अनुसार उन्होंने यह ढोंग करना था कि वो मोहम्मद को नापसंद करते हैं ताकि काब का विश्वास जीत सकें. इस गिरोह में अबू नैला भी था, जो कि काब का मुंह बोला भाई था और काब उस पर संदेह नहीं करता था.
योजना के अनुसार अबू नैला ने काब के पास जा कर दुःख जताया कि मोहम्मद के कारण कई लोगों को समस्या हो रही है. आस पास के अरबी कबीले मदीना के शत्रु बनाते जा रहे हैं, जिस से कि व्यापर के लिए जाना और जीविका अर्जित करना कठिन हो गया है. जैसी कि अपेक्षा थी, काब बातों में फंस गया. अबू नैला ने काब से कुछ खाद्य सामग्री (मक्की व खजूरें) उधार मांगी, जिस के लिए काब ने उस से कुछ बदले में रखने को कहा. योजना के अनुसार, अबू ने अपने और साथियों के शस्त्र देना स्वीकार कर लिया. अब वे काब की शंका जगाये बिना उस के पास शस्त्र ला सकते थे.
उन्होंने शाम के समय मोहम्मद के घर जा कर स्थिति से अवगत करवाया.  वो चांदनी रात थी. मोहम्मद उन के साथ मदीना के बाहर तक आया और बोला,"जाओ, अल्लाह की रहमत तुम पर हो और तुम्हे ऊपर से मदद मिले".

काब का घर मदीना से लगभग २-३ मील बाहर एक यहूदियों की बस्ती के पास था. जब वे पहुंचे तो वो सो रहा था. उन्होंने काब के घर के बाहर से उसे पुकारा. काब जब उठ कर जाने लगा तो उस की नवविवाहित पत्नी ने कहा,"शत्रुता के वातावरण में रात के समय बाहर जाना उचित नहीं है. मुझे इन के स्वर में बुराई (अथवा रक्त) सुनाई दे रहा है". काब ने चेतावनी को अनसुना करते हुए कहा कि ये तो मेरा भाई अबू नैला है, यदि एक योधा को पुकारा जाये तो भी उसे जाना ही चाहिए. इतना कह कर वो बाहर निकल आया और उन से बातचीत करने लगा. अबू ने कहा कि थोड़ा आगे चलते हैं और उस के सर में हाथ फिराते हुए उस के केशों में से आने वाली महक की प्रशंसा करने लगा. काब ने उत्तर दिया कि ये तो उस की पत्नी की महक है.
फिर अचानक ही उस के बालों को खींचते हुए चिल्लाया,"अल्लाह के शत्रु को काट दो". काब ने वीरता से संघर्ष किया और उन के पास होने से उन की तलवारें असफल सिद्ध हो रही थी. फिर एक को अपने छुरे का ध्यान आया. उसने छुरा उस के पेट में घोंप दिया और पेट को काटते हुए उस के गुप्तांगो तक ले गया. इस प्रकार काब वीर गति को प्राप्त हुआ.
उन्हें मोहम्मद के पास लौटने में अधिक समय लगा क्योंकि उन का एक साथी भी घायल हो गया था. मोहम्मद उस समय नमाज़ कर रहा था और उन्हें देख कर उन के पास आया. उन्होंने हत्या की सूचना मोहम्मद को दी. मोहम्मद ने घायल मुसलमान के घाव पर थूका (मुसलामानों के अनुसार मोहम्मद की थूक भी चमत्कारी थी) और उन्हें जाने को कहा. वे अपने अपने घर चले गए.
स्त्रोत - सही बुखारी; खंड ५, पुस्तक ५९, संख्या ३६९
स्त्रोत - इब्न इस्हाक़ पृष्ठ ३६४-३६९

 इस्लाम के सम्मानित इतिहासकार तबरी के अनुसार ये पाँचों व्यक्ति हत्या के पश्चात् काब का सर काट कर लाये थे जिसे मोहम्मद को भेंट स्वरुप दिया गया था.

इस की पुष्टि विल्लियम मुइर द्वारा लिखी मोहम्मद  की जीवन कथा से भी होती है. वे बताते हैं:
जब उस का पेट कटा तो काब ने एक हृदय विदारक चीख मारी जो रात के सन्नाटे में दूर तक सुनाई दी. कई घरों में प्रकाश हो उठा. हत्यारे पीछा किये जाने के डर से वहाँ से अपने घायल साथी को ले कर भाग खड़े हुए. जब वे कब्रिस्तान के पास सुरक्षित पहुँच गए तो उन्होंने तकबीर लगाई 'अल्लाह हू अकबर'. जिसे मस्जिद में मोहम्मद ने सुन लिया. वो मस्जिद के द्वार पर उन से मिला और बोला,"स्वागत है, तुम्हारे चेहरे फ़तेह से चमकते लग रहे हैं. उन्होंने उत्तर दिया,"आपका भी ऐ नबी" और कटा हुआ सर मोहम्मद के पाँव में गिरा दिया.
 The life of Mahomet - pp 239-240

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

मोहम्मद द्वारा पहली हत्या


बद्र के आक्रमण के पश्चात् जब मुसलमान अपने घायल ओर मृत साथियों के शवों को ले कर मदीना की ओर जा रहे थे तो राह में ओथील नामक घाटी में रात बिताई. प्रातःकाल जब मोहम्मद बंदियों का निरिक्षण कर रहा था तो उस की दृष्टि नाध्र पर पड़ी, जिसे मिकदाद ने बंदी बनाया था. बंधक ने भय से कांपते हुए अपने पास खड़े व्यक्ति से कहा, "उस दृष्टि में तो मृत्यु दिखाई दे रही थी". व्यक्ति ने उत्तर दिया "नहीं ये तुम्हारा भ्रम है". उस अभागे बंदी को विश्वास न आया.उस ने मुसाब को उस की रक्षा करने के लिए कहा. मुसाब ने उत्तर दिया कि वह (नाध्र) इस्लाम को इनकार करता था और मुसलामानों को परेशान करता था. नाध्र ने कहा,"यदि कोरिशों ने तुम्हें बंधक बनाया होता तो वे तुम्हारी हत्या कभी नहीं करते. उत्तर में मुसाबी ने कहा,"यदि ऐसा है भी तो मैं तुम जैसा नहीं हूँ. इस्लाम किसी बंधन को नहीं मानता. इस पर मिकदाद, जिस ने नाध्र को बंधक बनाया था, बोल उठा "वो मेरा बंदी है."  उसे भय था कि यदि नाध्र की हत्या कर दी गयी तो उस के सम्बन्धियों से जो फिरौती का धन प्राप्त हो सकता था, उस से वो वंचित रह जाएगा.
इस अवसर पर मोहम्मद ने आदेश दिया,"उस की गर्दन मारो". इस वाक्य का अर्थ है सर काट देना. हत्यारा गर्दन के पीछे से प्रहार कर के एक ही वार से गर्दन काट देता है. आज भी जहां इस्लामिक शरिया व्यवस्था प्रचलित है, वहां इसी प्रकार से गर्दन काटी जाती है. 
शरिया के अनुसार गर्दन काटने का दृश्य
इस के पश्चात् मोहम्मद ने कहा,"अल्लाह, मिकदाद को इस से भी अच्छा माल प्रदान करना." अली जो आगे चल कर मोहम्मद का दामाद बना था, आगे बढ़ा और उस ने नाध्र की गर्दन काट दी.
इस हत्या का कारण संभवतः नाध्र द्वारा मोहम्मद का उपहास उड़ाया जाना था. मोहम्मद जब मक्का में रहता था, वो मक्का निवासियों को ये विश्वास दिलाने की असफल चेष्ट करता रहा कि वो एक पैगम्बर है. उस की बातों से अधिकतर मक्का वासी तटस्थ ही रहते थे. इस्लाम को नकारने वालों में नाध्र भी था. जब मोहम्मद अपनी बात तथा बाईबल और तौरात की कहानियां सुनाता तो नाध्र भी कुछ कहानियाँ सुना देता और चुटकी लेते हुए कहता कि मोहम्मद मुझ से अच्छा कथाकार है.
मोहम्मद ने उस की हत्या से इसी अपमान का प्रतिशोध लिया था. ये हत्या नीति अथवा न्याय सांगत थी अथवा नहीं, ये निर्णय हम पाठकों के विवेक पर छोड़ते हैं.

इस के दो दिन उपरान्त , जब मदीना का रास्ता आधा रह गया था तो मोहम्मद ने एक और बंधक जिस का नाम ओक्बा  था, की हत्या का आदेश दिया. जब ओक्बा ने पूछा कि उसे अन्य बंधकों से अधिक दंड क्यों दिया जा रहा है तो मोहम्मद ने उत्तर दिया,"क्योंकि तुम अल्लाह और उस के रुसूल के शत्रु हो." यहाँ मोहम्मद ओक्बा द्वारा मोहम्मद के उपहास में लिखी कविता की और इंगित कर रहा था. ओक्बा ने खिन्न ह्रदय से पूछा कि,"मेरी बेटी का क्या होगा? उसकी देख भाल कौन करेगा?". मोहम्मद ने उत्तर दिया,"जहन्नुम की आग ". इस के पश्चात्, उसे काट कर धरती पर गिरा दिया गया और मोहम्मद बोला,"तुम अत्यंत बुरे और उत्पीड़क थे जो न तो अल्लाह पर, न उस के रुसूल पर और न ही उस की किताब पर विश्वास करते थे. मैं अल्लाह का आभारी हूँ जिस ने तुम्हारी हत्या की और मेरी आँखों को संतोष दिलाया".
जब बचे हुए बंदियों को लेकर मुसलमान मदीना पहुंचे तो मोहम्मद के निकटतम साथियों में से अबू बकर का विचार था कि बंदियों की हत्या न की जाए बल्कि उनके सम्बन्धियों से फिरौती ले कर उन्हें स्वतंत्र कर दिया जाए, जबकि ओमर का विचार था कि सब की हत्या कर दी जाए. ऐसा कहा जाता है कि उस समय कुरान की आयत प्रकट हुई. सुरा ८, आयत ६७
مَا كَانَ لِنَبِيٍّ أَن يَكُونَ لَهُ أَسْرَىٰ حَتَّىٰ يُثْخِنَ فِي الْأَرْضِ ۚ تُرِيدُونَ عَرَضَ الدُّنْيَا وَاللَّـهُ يُرِيدُ الْآخِرَةَ ۗ وَاللَّـهُ عَزِيزٌ حَكِيمٌ
(अनुवाद फारूक खान एवं नदवी):-
कोई नबी जब कि रूए ज़मीन पर (काफिरों का) खून न बहाए उसके यहाँ कैदियों का रहना मुनासिब नहीं तुम लोग तो दुनिया के साज़ो सामान के ख्वाहॉ (चाहने वाले) हो और ख़ुदा (तुम्हारे लिए) आख़िरत की (भलाई) का ख्वाहॉ है और ख़ुदा ज़बरदस्त हिकमत वाला है 
 इस आयत ने मोहम्मद की दुविधा का निवारण कर दिया. कुछ बंधक जो उसे नापसंद थे, उन की हत्या कर दी गयी और अन्य को फिरौती ले कर स्वतंत्र कर दिया गया.

स्त्रोत : इब्न इस्हाक़ कृत, The Life of Muhammad, अनुवादक A. Guillaume, (Oxford UP, 1955, 2004), pp. 136 (Arabic pages 191-92)
The life of Mahomet by William Muir

इस्लाम की पहली जीत

मोहम्मद ने अब्दुल्लाह बिन जैश को सात अन्य व्यक्तियों के साथ सन ६२३ में एक आक्रमण के लिए भेजा. अब तक उसे मक्का से निकले हुए लगभग एक वर्ष और छः महीने हो चुके थे. भेजते समय, उस ने अब्दुल्लाह के हाथ में एक पोटली देते हुए कहा कि जब तक वो मक्का के रास्ते में पड़ने वाली एक घाटी में नहीं पहुँच जाता, उसे न खोले. उस घाटी तक पहुँचने में उन्हें दो दिन का समय लगने वाला था. निर्धारित स्थान पर पहुँच कर अब्दुल्लाह ने पत्र खोला तो उस में लिखा था -
"अल्लाह के आशीर्वाद से नखल घाटी में जाओ और वहाँ से जाने वाले कोरिशों के कारवां की घात में रुको. तुम्हारे जो साथी स्वेच्छा से साथ जाना चाहें, उन्हें ले जाओ और किसी को चलने के लिए बाध्य न करना."



पत्र अपने साथियों को सुनाने के पश्चात अब्दुल्लाह ने उन से कहा कि जो कोई उस के साथ चलना चाहे, वो चल सकता है क्योंकि वो तो नबी की इच्छा पूर्ती के लिए अवश्य ही जाएगा. इस के पश्चात ऐसा वर्णन है कि सभी चल पड़े किन्तु उन में से दो (साद और ओतबा) अपने भटके हुए ऊंट को ढूंढते हुए पिछड़ गए और भटक गए.
पाठकों की जानकारी के लिए, कुरैशियों ने, जो कि मक्का में रहते थे, मोहम्मद को नबी अथवा उस की आयतों को मानने से इनकार कर दिया था. वे अपने पूर्वजों की भांति कई देवी देवतायों की अराधना करते थे जोकि मोहम्मद को नापसंद था. नखल घाटी में कुरैशियों को अपेक्षा नहीं थी कि मोहम्मद अथवा उस के चेले उन पर आक्रमण कर के उन्हें लूटने की चेष्टा करेंगे. कुरैशियों की इस सोच का कारण था कि नखल घाटी मदीना के रास्ते में नहीं पड़ती थी. ये मक्का से पूर्व की ओर, तैफ नामक कसबे के रास्ते में पड़ती थी.
 कुछ समय पश्चात ही कुरैशियों का कारवां वहाँ आ पहुंचा. कारवां में चार कुरैशी पुरुष सुरक्षा के लिए नियुक्त थे. संभवतः मोहम्मद को इस संपन्न कारवां के निकलने की जानकारी थी.वे लोग मेवे, शराब और चमड़े का सामन ले कर आ रहे थे. वो अब्दुल्लाह और अन्य अजनबियों को देख कर सचेत हो गए.
उन्हें भ्रम में डालने के लिए अब्दुल्लाह के एक साथी ने अपना सर मूंड लिया, जिस से कि ऐसा प्रतीत हो कि वो छोटे हज से लौट कर आने वाले तीर्थ यात्री हैं.कुरैशी पुरुष उन्हें तीर्थ यात्री समझ कर निश्चिन्त हो गए. उन्होंने अपने ऊंठों को चरने के लिए छोड़ दिया और भोजन पकाने में लग गए.
अब्दुल्लाह और उस के साथी दुविधा में थे कि आक्रमण करें अथवा नहीं. उन की इस दुविधा का कारण था कि उस दिन रजब महीने का अंतिम दिन था, जिसे अरबी सभ्यता में प्रतिष्ठित महीना माना जाता है और उस में आक्रमण करना वर्जित है. किन्तु यदि उस दिन आक्रमण  नहीं करते तो कारवां उन के हाथों से छूट  जाएगा. शीघ्र ही लूट के माल का लोभ उन पर हावी हो गया और उन्होंने दुविधा को त्याग दिया. उन में से एक ने बाण चला दिया जिस से कि अम्र नामक कुरैशी की मृत्यु हो गयी. अब्दुल्लाह के साथियों ने दो पुरुषों उथमान एवं हाकम को बंदी बना लिया और लूट का सामान ले कर मोहम्मद के पास पहुँच गए.
मोहम्मद इस घटनाक्रम से कुछ चिंतित प्रतीत हुआ और उस ने कहा " मैंने तुम्हें रजब के महीने में लड़ने का आदेश नहीं दिया था." संभवतः मोहम्मद को अनुमान था कि अब्दुल्लाह जब नखल पहुंचेगा तब तक रजब का महीना बीत चुका होगा. उसने लूट का माल एक ओर रखवा दिया और बंदियों को बंधक ही रहने दिया, जब तक कि नया आदेश नहीं आ जाता.
अब्दुल्लाह और उसके साथी हतोत्साहित हो गए तथा अन्य लोग उनकी निंदा करने लगे. मोहम्मद अपने साथियों का मनोबल गिराना नहीं चाहता था इसलिए शीघ्र अल्लाह मियां की ओर से कुरान की एक नयी आयत प्रकट हुई जिसने इस हत्या को वैध घोषित कर दिया.
सुरा २, आयत २१७ -
يَسْأَلُونَكَ عَنِ الشَّهْرِ‌ الْحَرَ‌امِ قِتَالٍ فِيهِ ۖ قُلْ قِتَالٌ فِيهِ كَبِيرٌ‌ ۖ وَصَدٌّ عَن سَبِيلِ اللَّـهِ وَكُفْرٌ‌ بِهِ وَالْمَسْجِدِ الْحَرَ‌امِ وَإِخْرَ‌اجُ أَهْلِهِ مِنْهُ أَكْبَرُ‌ عِندَ اللَّـهِ ۚ وَالْفِتْنَةُ أَكْبَرُ‌ مِنَ الْقَتْلِ ۗ وَلَا يَزَالُونَ يُقَاتِلُونَكُمْ حَتَّىٰ يَرُ‌دُّوكُمْ عَن دِينِكُمْ إِنِ اسْتَطَاعُوا ۚ وَمَن يَرْ‌تَدِدْ مِنكُمْ عَن دِينِهِ فَيَمُتْ وَهُوَ كَافِرٌ‌ فَأُولَـٰئِكَ حَبِطَتْ أَعْمَالُهُمْ فِي الدُّنْيَا وَالْآخِرَ‌ةِ ۖ وَأُولَـٰئِكَ أَصْحَابُ النَّارِ‌ ۖ هُمْ فِيهَا خَالِدُونَ ﴿٢١٧
सुरा २, आयत २१७ - फारूक खान एवं नदवी द्वारा अनुवाद :-
(ऐ रसूल) तुमसे लोग हुरमत वाले महीनों की निस्बत पूछते हैं कि (आया) जिहाद उनमें जायज़ है तो तुम उन्हें जवाब दो कि इन महीनों में जेहाद बड़ा गुनाह है और ये भी याद रहे कि ख़ुदा की राह से रोकना और ख़ुदा से इन्कार और मस्जिदुल हराम (काबा) से रोकना और जो उस के अहल है उनका मस्जिद से निकाल बाहर करना (ये सब) ख़ुदा के नज़दीक इस से भी बढ़कर गुनाह है और फ़ितना परदाज़ी कुश्ती ख़ून से भी बढ़ कर है और ये कुफ्फ़ार हमेशा तुम से लड़ते ही चले जाएँगें यहाँ तक कि अगर उन का बस चले तो तुम को तुम्हारे दीन से फिरा दे और तुम में जो शख्स अपने दीन से फिरा और कुफ़्र की हालत में मर गया तो ऐसों ही का किया कराया सब कुछ दुनिया और आखेरत (दोनों) में अकारत है और यही लोग जहन्नुमी हैं (और) वह उसी में हमेशा रहेंगें.
इसी आयत का अनुवाद (फारूक खान एवं अहमद द्वारा)
वे तुमसे आदरणीय महीने में युद्ध के विषय में पूछते है। कहो, "उसमें लड़ना बड़ी गम्भीर बात है, परन्तु अल्लाह के मार्ग से रोकना, उसके साथ अविश्वास करना, मस्जिदे हराम (काबा) से रोकना और उसके लोगों को उससे निकालना, अल्लाह की स्पष्ट में इससे भी अधिक गम्भीर है और फ़ितना (उत्पीड़न), रक्तपात से भी बुरा है।" और उसका बस चले तो वे तो तुमसे बराबर लड़ते रहे, ताकि तुम्हें तुम्हारे दीन (धर्म) से फेर दें। और तुममे से जो कोई अपने दीन से फिर जाए और अविश्वासी होकर मरे, तो ऐसे ही लोग है जिनके कर्म दुनिया और आख़िरत में नष्ट हो गए, और वही आग (जहन्नम) में पड़नेवाले है, वे उसी में सदैव रहेंगे
इसके पश्चात् लूट के माल को मुसलामानों में बाँट दिया गया और अल्लाह के आदेशानुसार लूट का पांचवां भाग मोहम्मद को दे दिया गया. लूट का माल मिलने के पश्चात् हत्यारों की निंदा करने वाले भी शांत हो गए.
कुरान में लूट के माल को 'ग़नीमत' और मोहम्मद को दिए जाने वाले पांचवें भाग को 'खम्स' कहते हैं.
जब कारवां के बचे हुए लोग मक्का पहुंचे तो वहाँ से बंदियों को छुडवाने के लिए वहाँ के नागरिक मोहम्मद के पास पहुंचे. अभी तक साद और ओतबा, जो आक्रमणकारियों से बिछड़ गए थे, लौटे नहीं थे. मोहम्मद ने कहा कि यदि तुम ने मेरे आदमियों को मार दिया है तो मैं भी इन बंदियों की हत्या कर दूंगा अन्यथा फिरौती ले कर इन्हें छोड़ दूंगा. कुछ ही समय पश्चात् मोहम्मद के दोनों साथी लौट आये तो मोहम्मद ने प्रति बंधक व्यक्ति ४० औंस चांदी फिरौती के रूप में ले कर उन्हें स्वतंत्र कर दिया.
मुसलमान इतिहासकार इसे एक महत्वपूर्ण घटना मानते हैं क्योंकि ये पहला अवसर था जब मुसलामानों ने सफलतापूर्वक ग़नीमत प्राप्त की थी, प्रथम हत्या की थी और फिरौती प्राप्त की थी. इस से पहले जो आक्रमण, मोहम्मद अथवा किसी अन्य के अधीन किये गए थे, असफल रहे थे. इस के पश्चात अब्दुल्लाह को 'आमिर उल मोम्मिन' अर्थात 'मुसलामानों का सेनापति' की उपाधि दी गयी.