सोमवार, 24 अक्टूबर 2011

बानू नादिर से धोखा

जून, सन ६२५
अरब के रेगिस्तानी क्षेत्र में इस्लाम नामक सम्प्रदाय पनप रहा था. इस्लाम का जन्मदाता मोहम्मद, मक्का से पलायन के पश्चात, अभी मदीना में रहता था और मक्का नगर में स्थित काबा मंदिर में अभी भी विभिन्न देवी देवताओं की मूर्तियों की अराधना की जाती थी. 
इन्हीं दिनों मोहम्मद ने अपने ४० साथियों को एक कबीले को इस्लाम अपनाने के लिए भेजा. इस काबिले के मुखिया ने इस्लाम ठुकराते हुए, सभी मुसलामानों की हत्या कर दी. आमीर बिन उमैया नामक एक मुसलमान जो अपने ऊंठों को चराने गया था, इस हमले से बच गया. वो जब मोहम्मद के पास लौट रहा था तो उसकी बानू आमिर  नामक कबीले के दो व्यक्तियों से भेंट हुई. तीनों ने छाया में कुछ समय विश्राम किया. जब दोनों व्यक्ति सो रहे थे तो आमीर बिन उमैया ने उन्हें काट दिया. उसने अपनी ओर से तो मुसलामानों की हत्या का प्रतिशोध लिया था किन्तु इससे मोहम्मद के लिए एक नया संकट उठ खड़ा हुआ. उन दोनों की मोहम्मद से मैत्री संधि थी इसलिए संधि का उल्लंघन करने की क्षतिपूर्ति के लिए मोहम्मद को दंड राशि देनी पड़ी.



मोहम्मद ने निर्णय किया कि निकटवर्ती यहूदी बस्ती बानू नदीर से भी दंड राशि का एक भाग लिया जाए क्योंकि उनकी भी बानू आमिर से मैत्रीसंधि थी. ये विचार कर वो अपने साथियों सहित, बानू नदीर के प्रमुख नागरिकों से मिला और उनके समक्ष अपना निर्णय रखा. यहूदियों ने आदर सहित मोहम्मद को सुना और उससे सहमती व्यक्त करते हुए सहायता का आश्वासन दिया. कुछ समय की प्रतीक्षा के उपरान्त मोहम्मद अचानक उठा और अपने साथियों को, जिनमें उमर, अली और अबू बकर भी सम्मिलित थे, को उसके लौटने की प्रतीक्षा के लिए कह कर वहाँ से चल पड़ा. जब एक लम्बी प्रतीक्षा के पश्चात भी मोहम्मद नहीं लौटा तो उसके साथी परेशान से हो कर उठे और मदीना की ओर चल पड़े. उन्होंने पाया कि मोहम्मद सीधा मदीना में बनी मस्जिद में लौटा था. उनके पूछने पर मोहम्मद ने बताया कि यहूदी मोहम्मद के ऊपर छत से भारी पत्थर फेंक कर उसे मारने की योजना बना रहे थे, इसलिए वो वहां से चला आया था. इस योजना की सूचना उसे अल्लाह से मिली थी.
कारण कुछ भी रहा हो, मोहम्मद ने निर्णय किया कि बानू नदीर को मदीना के निकट नहीं रहने दिया जाएगा. उसका ये सन्देश लेकर मोहम्मद बिन मसलमा (कवि काब का हत्यारा) यहूदी बस्ती में पहुंचा:
अल्लाह के नबी का ये आदेश है, तुम सब दस दिन के भीतर, इस धरती को छोड़ कर चले जाओगे. उसके पश्चात जो भी यहाँ हुआ, उसे मार दिया जाएगा.
इस घोषणा से आश्चर्यचकित हुए यहूदियों ने मोहम्मद से कहा,'ऐ मोहम्मद! हम तो ये कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि तुम अथवा ऑस कबीले का कोई भी व्यक्ति, जो कि हमारे मित्र हैं, इस प्रकार का सन्देश लाने के लिए दूत बनेगा'. मोहम्मद ने रूखा सा उत्तर दिया,'अब दिल बदल गए हैं'.
अब्दुल्लाह बिन उबे ने बानू नदीर को अपने एवं अपने मित्र कबीलों के सहयोग का आश्वासन दिया. इस आश्वासन से संतुष्ट, बानू नदीर ने मोहम्मद को सन्देश भेजा कि: 'हम अपनी मात्रभूमि छोड़ कर नहीं जायेंगे; तुम चाहे आक्रमण कर दो'. ये उत्तर सुनते ही मोहम्मद प्रसन्नता से चिल्ला उठा:
अल्लाहु अकबर! यहूदी लड़ना चाहते हैं ! अल्लाहु अकबर!
उसके साथियों ने भी तकबीर को दोहराया जिससे कि पूरी मस्जिद में ये शब्द गूंजने लगे. मुसलामानों ने अपना दल बल एकत्रित किया और 'विद्रोही' कबीले को सबक सिखाने के लिए चल पड़े. अली ने दल का नेतृत्त्व किया. बानू नदीर के निवासियों ने पत्थरों एवं बाणों की सहायता से आक्रान्ताओं को दूरी पर रोके रखा. अब्दुल्लाह बिन उबे, उनके लिए सहायता एकत्रित नहीं कर पाया और न ही किसी अन्य दल ने उनकी सहायता की. एक अन्य निकटवर्ती यहूदी बस्ती 'बानू कुरैज़ा' ने भी सहायता नहीं की (अपने इस निर्णय के लिए कुरैज़ा को, मोहम्मद की निर्दयता का, भारी मूल्य चुकाना पड़ा था). किसी ओर से सहायता न मिलने पर भी बानू नदीर वीरता से डटे रहे. मोहम्मद अपना धैर्य खो रहा था, इसलिए उसने एक ऐसा कृत्य किया जो अरब समाज में (इस्लाम से पहले) नीति विरुद्ध माना जाता था. उसने बनू नदीर के खजूर के वृक्षों को काट दिया और जो अधिक फल देने वाले थे, उनकी जड़ों को जला दिया. 
जैसा कि अपेक्षित था, यहूदी अपनी जीविका को नष्ट होते देख कर दुखी हो गए और मोहम्मद से कहने लगे:'ओ मोहम्मद! तुम तो कहा करते थे कि कभी अन्याय मत करो और जो करे उसकी निंदा करो. अब हमारे वृक्षों को क्यों नष्ट करते हो'.
निरीह यहूदियों के घेराव को दो तीन सप्ताह हो चुके थे. कहीं से सहायता न पाकर उन्होंने आत्मसमर्पण का निर्णय किया. मोहम्मद ने इसे स्वीकार कर लिया. मोहम्मद ने नियम रखा कि यहूदी अपने अस्त्र शस्त्र नहीं ले जायेंगे. मरता क्या न करता, यहूदी अपने सामान को ऊंठों पर लाद कर सीरिया की ओर जाने वाली सड़क पर वहाँ से चल पड़े. इस्लाम का विस्तार करने के लिए मोहम्मद ने कहा कि जो मुसलमान बन जाएगा, उसे अपनी संपत्ति छोड़नी नहीं पड़ेगी. उनमें से दो यहूदी, इस लोभ में मुसलमान बन गए. अन्य सभी अपने मुखियाओं के साथ सीरिया की ओर चल पड़े, जिन में से कुछ हुआए और किनाना के नेतृत्त्व में खैबर की ओर चले गए (जहां कुछ वर्ष उपरान्त, उन पर, मोहम्मद और मुसलामानों के आतंक की पुनरावृति होगी).
इस घटना से जो लूट का माल मुसलामानों के हाथ लगा, उसमें ३४० खड़ग (तलवारें) एवं बहुत से कवच सम्मिलित थे. परन्तु इन सबसे अधिक महत्वपूर्ण थी वो उपजाऊ भूमि जो मुसलामानों के हाथ लग गई थी. इसके लिए तुरंत, अल्लाह की ओर से, कुरान का एक नया अध्याय मोहम्मद में उतरा. ये है कुरआन का अध्याय ५९. इसका शीर्षक है 'अल हश्र'. इस अध्याय के अनुसार न केवल खजूर के वृक्षों का विनाश करना 'अल्लाह की इच्छा' थी अपितु मोहम्मद ने इस माल को अपनी इच्छानुसार बांटना था क्योंकि इसके लिए लड़ना नहीं पड़ा था. इस प्रकार की लूट को 'अन्फाल' नहीं कहा जाता, इसे 'फाए' कहा जाता है. अध्याय ५९, आयत ५-८:
तुमने जो खजूर के  वृक्ष काटे या उन्हें उनकी जड़ों पर खड़ा छोड़ दिया तो यह अल्लाह की मर्ज़ी थी, ताकि  (मुसलामानों को दिक्कत न हो) और इसलिए कि अल्लाह न मानने वालों को रुलाये  - (तो) जो माल अल्लाह ने अपने नबी को उन लोगों से लड़े बिना दिला दिया उसमें तुम्हारा हक़ नहीं क्योंकि तुमने उसके लिए कुछ दौड़ धूप तो की ही नहीं, न तो घोड़े दौड़ाये और न ही ऊंट, मगर अल्लाह अपने रुसूलों को जिस पर चाहता है कब्ज़ा फरमाता है और अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर है. - अल्लाह ने जो माल उस बस्ती से काबिज़ किया है, वो अल्लाह और उसके महान रसूल के लिए लिया है, और उसके सगेवालों, अनाथों और गरीबों के लिए है, ताकि ये (माल), तुम में जो मालदार हैं, उन्हीं के पास न रह जाए  - नबी जिस तरह इसे बांटे, उसे अपना लो और उसी से तसल्ली करो.और अल्लाह का डर रखो। निश्चय ही अल्लाह की यातना बहुत कठोर है।
इस लूट का एक भाग मोहम्मद और उसके परिवार के लिए रखा गया. शेष में से अधिकतर मुहाजिरों (जो मोहम्मद के साथ मक्का से पलायन कर के आये थे) को दिया गया.
इस जीत से मोहम्मद ने एक और यहूदी बस्ती को खदेड़ दिया था. यहूदी, मोहम्मद से असंतुष्ट मदीना वासियों से मिल कर मोहम्मद के लिए एक समस्या बन सकते थे.


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