सोमवार, 3 अक्टूबर 2011

बद्र की लड़ाई - २

 बद्र की लड़ाई -१ से आगे

भीषण लड़ाई

मुसलमान झरने की सुरक्षा कर रहे थे. कई कुरैशियों ने, जो प्यास से त्रस्त थे, ने  प्रण किया कि वो जल ग्रहण करने के उपरान्त जल स्त्रोत को नष्ट कर देंगे अथवा प्रयत्न में वीरगति को प्राप्त होंगे. उनमें से केवल 'अल अस्वाद' ही झरने तक पहुँच सका, अन्य सभी पहले ही मार दिए गए. 'अल अस्वाद' अभी जल तक पहुँच ही पाया था कि हम्ज़ा की खड़ग ने उसकी एक टांग को लगभग काट ही दिया. 'अल अस्वाद' ने अपनी शक्ति समेत कर जल पिया और दूसरी टांग से स्त्रोत को नष्ट कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी की ही थी कि हम्ज़ा ने खड़ग से उसकी हत्या कर दी.

तीन कुरैशियों की चुनौती

इस्लाम से पूर्व, अरब सभ्यता में वीरों को ललकार कर युद्ध किया जाता था. इसी परंपरा के अनुरूप, मक्कावासी शीबा, उत्बा और उत्बा के बेटे 'अल वालिद' ने, कोई भी तीन योद्धाओं को लड़ने की चुनौती दी. तीन मदीनावासी आगे बढे तो मोहम्मद, जो जीत का श्रेय मुसलामानों के सर रखना चाहता था, ने उन्हें लौटने का संकेत दिया और अपने साथियों से कहा: 'ऐ हाशिम की संतानों! आगे बढ़ो और लड़ो.' ये सुन कर मोहम्मद का चाचा हम्ज़ा, और मोहम्मद के चाचा के बेटे उबैदा और अली आगे बढ़े.


उत्बा ने अपने बेटे को लड़ने का आदेश दिया तो अली उस से लड़ने के लिए आगे बाधा. एक संक्षिप्त सी लड़ाई में 'अल वालिद' अली की खड़ग से मर गया. अपने बेटे की मौत का प्रतिशोध लेने जब उत्बा आगे बढ़ा तो उससे युद्ध के लिए हम्ज़ा आगे आया. हम्ज़ा ने उत्बा को मार दिया. इसके पश्चात, दो वृद्ध योद्धा,शीबा और उबैदा आमने सामने हुए. ये लड़ाई लम्बी चली किन्तु अंततः, उबैदा ने शीबा की जांघ को घायल कर दिया जिससे की वो भूमि पर गिर पड़ा. फिर हम्ज़ा और अली ने भी उस पर अपनी खड़ग से प्रहार कर दिए. इन घावों के चलते, शीबा, कुछ दिनों तक ही जीवित रहा पाया था.

दोनों दलों में घमासान

अपने तीन योद्धाओं की विजय से मुसलमान उत्साहित हो कर आगे बढ़े. कुरैशियों में निराशा की लहर थी और वो अनमने से लड़ने लगे. अब दोनों गुटों में साधारण लड़ाई आरम्भ हो गयी. मोहम्मद ने इस लड़ाई में क्या भागीदारी की, ये स्पष्ट नहीं है. कुछ मुसलमान लेखकों के अनुसार वो अपनी खड़ग लिए अपने दल के साथ था. जब कि कुछ अन्य परम्परागत स्रोतों के अनुसार, वो अपने साथियों को ये कहते हुए उत्साहित कर रहा था कि उनके साथ अल्लाह की शक्ति है. वो निरंतर ये कह कर प्रोत्साहन दे रहा था कि जो इस लड़ाई में मारे जायेंगे वो 'जन्नत' में जायेंगे. एक 'हदीस' के अनुसार, एक सोलह वर्षीय तरुण 'ओमीर' खजूरें खा रहा था. मोहम्मद की ये बातें सुन कर  उसने अपने हाथ में पकड़ी हुई खजूरों को फेंकते हुए कहा - 'क्या ये खजूरें मुझे 'जन्नत' में जाने से रोक रही हैं. मैं इन्हें अपने मुंह से नहीं लगाऊंगा जब तक कि मैं अपने अल्लाह को नहीं मिलता!'. ये कह कर वो भी लड़ने लगा और शीघ्र ही मारा गया.

कुरैशियों में हताशा

इस दिन तीव्र वायु प्रवाहित हो रही थी. जब एक तीव्र झोंका आया तो मोहम्मद बोला 'ये जिब्रील है जो हज़ार फरिश्तों के साथ दुश्मन  पर आक्रमण कर रहा है'. अगले झोंके पर उसने कहा कि अब माइकल  हज़ार फरिश्तों  के साथ मुसलामानों की मदद कर रहा है. एक और झोंके पर उसने कहा कि यह  सेरफिल  है जो हज़ार फरिश्तों  के साथ आया है.
(ये सभी नाम ईसाईयों की बाईबल की कहानियों में अंकित फरिश्तों के हैं)
मोहम्मद ने नीचे झुक कर कुछ धुल और कंकड़ उठाये और उन्हें शत्रुओं पर फेंकते हुए बोला 'वे अस्त व्यस्त हो जाएँ!' तीन सौ उत्साहित मुसलामानों ने उनका मनोबल तोड़ दिया. कुरैशियों की अधिक संख्या और उनके पैरों तले की दलदली भूमि ने उन्हें पीछे हटने पर विवश कर दिया. ये देख मुसलमान और उत्साहित हो गए और उन्होंने शत्रुओं को मारना तथा बंधक बनाना आरम्भ कर दिया. कुरैशी अपना सब कुछ छोड़ भाग खड़े हुए. उनचास मारे गए और इतने ही बंधक बना लिए गए. मुसलमानों की और केवल १४ ही मरे जिनमें से आठ मदीना वासी थे और छः मुहाजिर थे.

अबू जहल की हत्या

मक्का के कई प्रमुख व्यक्ति और मोहम्मद के विरोधी मारे गए थे. मोआध के एक वार से अबू जहल की टांग के दो भाग हो गए और वो गिर पड़ा. ये देख अबू जहल के बेटे इक्रिमा ने मोआध के कंधे पर वार किया, जिस से उसकी एक भुजा लगभग कट गयी और कंधे के साथ झूलने लगी. इस से मोआध को समस्या होने लगी तो उसने अपना पाँव अपनी भुजा पर रख कर उसे उखाड़ दिया. अबू जहल  अभी जीवित था जब अब्दुल्लाह ने उसे देख लिया. उसने अबू जहल का सर धड़ से काट दिया और कटे हुए सर को मोहम्मद के समक्ष प्रस्तुत किया. ये देख कर मोहम्मद ने कहा:
अल्लाह के दुश्मन का सर!
या इलाहा इल अल्लाह! (अल्लाह के अतिरिक्त कोई और भगवान् नहीं है)
इस पर अब्दुल्लाह ने कटे हुए सर को मोहम्मद के पैरों में रखते हुए कहा 'ला इलाहा इल अल्लाह!'
मोहम्मद ने चिल्लाते हुए कहा:
ये तोहफा मेरे लिए समस्त अरब के सर्वश्रेष्ठ ऊंट से भी बढ़कर है.
अबुल बख्तारी

जिन दिनों मोहम्मद, अबू तालिब के निवास पर रह रहा था, उन दिनों अबुल बख्तारी ने मोहम्मद की सहायता की थी. इसलिए मोहम्मद ने ये कहा था कि उसे हानि न पहुंचाई जाए. अबुल बख्तारी के ऊंट पर उसके पीछे एक अन्य मक्कावासी बैठा था. जब मुसलमान उनके निकट पहुंचे तो उन्होंने अबुल से कहा कि वो उसे कोई हानि नहीं करेंगे किन्तु उसके पीछे बैठे कुरैशी को नहीं छोड़ेंगे. अबुल ने कहा कि मैं अपने साथी को नहीं सौंप सकता. ऐसा करने पर मक्का की महिलायें मेरा उपहास करेंगी कि मैं अपनी जान के लिए अपने साथियों को छोड़ आया. उन दोनों को मार दिया गया.

बंधकों की निर्मम हत्या

उम्मैय्या इब्न खालफ और उसका बेटे ने जब देखा कि वो बच नहीं पायेंगे तो उन्होंने अब्दुर रहमान से कहा कि वो उन्हें बंधक बना ले. अब्दुर रहमान ने पुराने संबंधों को ध्यान में रखते हुए, लूट का सामान छोड़ दिया जिसे वो लेजा रहा था, और उन दोनों को बंधक बना लिया. जब वो उन्हें लेकर जा रहा था तो मोहम्मद के हब्शी साथी बिलाल ने उन्हें देख लिया. बिलाल उमैय्या से घृणा करता था क्योंकि जब वो मक्का में दास होता था तो उमैय्या उसके सम्प्रदाय को लेकर बातें बनाया करता था. बिलाल उन्हें देखते हुए चिल्लाया; ये तो काफिरों का मुखिया है, इसे मार दो. यदि ये जीवित रहा तो ये मेरे लिए हार होगी!' इतना सुनना था कि अन्य मुसलामानों ने उन्हें सभी और से घेर लिया और टूट पड़े. दोनों बंधकों के टुकड़े टुकड़े कर दिए गए. इस सम्प्रदाय में बर्बरता आरम्भ से ही थी.
मोहम्मद नौफाल नामक मक्कावासी की मौत के लिए अल्लाह से दुआ मांगने लगा. अली ने उसे दुआ मांगते हुए सुना और बंधकों में नौफाल को ढूंढ निकाला और उसकी हत्या कर दी. मोहम्मद को जब ये सूचना मिली तो उसने उसने हर्षित हो कर तकबीर बोली
अल्लाह हूँ अकबर
माबाद नामक मक्कावासी जब बंदी बना चल रहा था तो उमर ने उसका उपहास करते हुए कहा: अब तो तुम हार गए हो. बंधक ने उत्तर में उन देवियों की सौगंध खाते हुए कहा, जिन्हें स्थानीय मक्का वासी काबा मंदिर में पूजते थे, "अल-लात एवं अल-उज्जा की सौगंध हम हारे नहीं हैं". ये सुनते ही उमर क्रोध में आ गया और बोला 'क्या ये तरीका है बंधक काफिरों का मुसलामानों से बात करने का?' और अपनी खड़ग के एक ही प्रहार से उसका सर काट दिया. 

मृतकों का अपमान

मक्कावासियों के चले जाने के पश्चात, मुसलमान उनका सामान, जो पीछे छूट गया था, लूटने लगे. उनके शवों को एक गड्ढा खोद कर उनमें फेंक दिया गया. मोहम्मद और अबू बकर पास खड़े उन्हें देख रहे थे. मोहम्मद उन्हें देखते हुए, ऊंचे स्वर में उनके नाम लेने लगा:
'उत्बा! शीबा! उमैय्या! अबू जहल! अब तुम्हें पता लगा कि तुम्हारा भगवान् तुम्हें क्या दे सकता है? जो मेरे अल्लाह ने मुझ से कहा था वो तो सच हो गया है!तुम्हारा सर्वनाश हो! तुम ने मुझे, अपने पैगम्बर, को नकारा है! तुम ने मुझे नकारा और अन्यों ने मुझे शरण दी; तुमने मुझ से झगड़ा किया, अन्यों ने मेरा साथ दिया. 
ये सुनकर किसी ने उसे कहा;
ऐ पैगम्बर! क्या तुम मुर्दों से बात कर रहे हो?
मोहम्मद ने उत्तर दिया:
हाँ बेशक!मैं मुर्दों से बात कर रहा हूँ. अब उन्हें पता लग गया होगा कि उनका भगवान् उनके किसी काम नहीं आया.
जब उत्बा के शव को गड्ढे में फेंका तो उसका बेटा अबू हुदैफा ये देख कर दुखी हो गया. मोहम्मद ने इसे भांप कर उससे कहा 'संभवतः तुम अपने बाप की दुर्दशा से दुखी हो गए हो!' अबू ने कहा 'अल्लाह के पैगम्बर! ऐसा नहीं है. मैं अपने पिता से किये न्याय से असहमत नहीं हूँ; मैं उसकी दयावान प्रकृति को जानता था और मेरी इच्छा थी कि वो मुसलमान बन जाए. ऐसा नहीं है कि मुझे शोक है किन्तु आज उसका शव देख कर मेरी आशा समाप्त हो गयी है.
अन्य हदीस के अनुसार जब उत्बा ने मुसलामानों को लड़ने के लिए ललकारा था तो अबू हुदैफा अपने पिता से लड़ने के लिए उठा था किन्तु मोहम्मद ने उसे रोक दिया था.

लूट का माल अर्थात गनीमत अर्थात अन्फाल 

अगले दिन जब लूट का माल बांटा जाना था तो मुसलामानों में मतभेद उठ खड़ा हुआ. जिन्होंने भागते हुए कुरैशियों को मारा था, उनका मत था कि जिस मुसलमान ने जिस व्यक्ति को मारा था, मृतक के सामान पर उसका पूर्ण रूप से अथवा एक बड़े भाग पर, अधिकार होना चाहिए क्योंकि उन्होंने अपनी जान को दांव पर लगाया था.  दूसरी और जो मोहम्मद की सुरक्षा कर रहे थे अथवा किसी और दायित्व का निर्वाह कर रहे थे, उनका मत था कि सभी को सामान अधिकार होना चाहिए क्योंकि सभी ने अपने दायित्व का निर्वाह किया है. ये झगड़ा इतना उग्र हो गया कि मोहम्मद को, इसे रोकने के लिए, अल्लाह के नए सन्देश का आश्रय लेना पड़ा. अल्लाह का ये पैगाम कुरआन के अध्याय ८ के रूप में अंकित है. इस अध्याय का नाम ही 'अल अन्फाल' है. इसकी पहली आयत है:
ऐ रसूल! वो तुम्हें ग़नीमतों के अधिकार की बाबत पूछते है। उनेहं कहो कि ग़नीमतें अल्लाह और रुसूल की है। इसलिए  अल्लाह से डरो और आपस में मत झगड़ो. यदि ईमानदार हो तो अल्लाह और रुसूल का कहा मानों. 
इस अध्याय में ही उल्लेख है कि प्रत्येक लूट का २०% रुसूल के लिए होना है. 
और जान लो कि जो कुछ ग़नीमत के रूप में माल तुम्हें मिले, उसका पाँचवा हिस्सा अल्लाह, रुसूल, उसके रिश्तेदारों, ज़रूरतमंदों और मुसाफिरों का है। अगर तुम ईमानदार हो तो इसे मानों और उसे भी जो अल्लाह ने अपने रुसूल को उस दिन उतारी जिस दिन सच और झूठ का फैसला हुआ था और दोनों गुटों में लड़ाई हुई थी. अल्लाह कुछ भी कर सकता है.
इसी आयत के अनुसार, जब भारतवर्ष में मुसलामानों ने लगभग १००० वर्ष तक लूट मचाई तो इसमें से २०% मक्का भेजा जाता था, जिसमें हिन्दू महिलायें भी होती थीं. रुसूल के मरने के पश्चात इस २०% पर, जिसे खम्स कहा जाता है, अरब स्थित इस्लामी शासक का अधिकार मन जाता है.

लूट का बंटवारा

सारा माल एकत्रित कर के सभी बद्र से चल पड़े और राह में 'अस सफर' नामक स्थान पर पड़ाव डाल कर लूट का बंटवारा किया गया. मोहम्मद का २०% निकाल कर शेष में से सभी को समान रूप से सामान बांटा गया. प्रत्येक घुड़सवार को, उसके घोड़े के लिए दो अतिरिक्त भाग दिए गए. मोहम्मद को रुसूल होने के नाते, ये अधिकार दिया गया था कि वो बंटवारे से पूर्व, जो भी उसे भाये, उसे ले सकता था. अपने इस अधिकार का प्रयोग करते हुए उसने अबू जहल का ऊंट और उसकी खडग 'ज़ुल्फ़िकार' अपने लिए चुन ली.

मोहम्मद द्वारा बंधक की हत्या

बद्र के आक्रमण के पश्चात् जब मुसलमान अपने घायल ओर मृत साथियों के शवों को ले कर मदीना की ओर जा रहे थे तो राह में ओथील नामक घाटी में रात बिताई. प्रातःकाल जब मोहम्मद बंदियों का निरिक्षण कर रहा था तो उस की दृष्टि नाध्र पर पड़ी, जिसे मिकदाद ने बंदी बनाया था. बंधक ने भय से कांपते हुए अपने पास खड़े व्यक्ति से कहा, "मुझे अपनी मौत दिखाई दे रही है". मिकदाद ने उत्तर दिया "नहीं ये तुम्हारा भ्रम है". उस अभागे बंदी को विश्वास न आया.उस ने मुसाब को उस की रक्षा करने के लिए कहा. मुसाब ने उत्तर दिया कि वह (नाध्र) इस्लाम को इनकार करता था और मुसलामानों को परेशान करता था. नाध्र ने कहा,"यदि कुरैशियों ने तुम्हें बंधक बनाया होता तो वे तुम्हारी हत्या कभी नहीं करते". उत्तर में मुसाबी ने कहा,"यदि ऐसा है भी तो मैं तुम जैसा नहीं हूँ. इस्लाम किसी बंधन को नहीं मानता. इस पर मिकदाद, जिस ने नाध्र को बंधक बनाया था, बोल उठा "वो मेरा बंदी है."  उसे भय था कि यदि नाध्र की हत्या कर दी गयी तो उस के सम्बन्धियों से जो फिरौती का धन प्राप्त हो सकता था, उस से वो वंचित रह जाएगा.
मोहम्मद ने आदेश दिया,
"उस का सर काट दो".अल्लाह, मिकदाद को इस से भी अच्छा अन्फाल प्रदान करना." 
अली जो आगे चल कर मोहम्मद का दामाद बना था, आगे बढ़ा और उस ने नाध्र की गर्दन काट दी.

उक्बा की हत्या

नाध्र की हत्या के दो दिन पश्चात, जब मुसलामानों ने मदीना तक का आधा मार्ग तय कर लिया था, मोहम्मद ने एक और बंधक, जिसका नाम उक्बा था, की हत्या का आदेश दिया. उक्बा ने मोहम्मद से पूछा कि उसे अन्य बंधकों की भाँति जीवित क्यों नहीं रहने दिया जाता. मोहम्मद ने उत्तर दिया:
क्योंकि तुम अल्लाह और उसके रुसूल के दुश्मन हो.
उक्बा ने दुखी मन से कहा "मेरी छोटी सी बिटिया है! उसका ध्यान कौन रखेगा?"
मोहम्मद ने उत्तर दिया
"नरक की आग". 
इतने पर उसे काट कर फेंक दिया गया. मोहम्मद ने इसके पश्चात कहा -
"तू एक नीच पुरुष था जो न अल्लाह को मानता था, न उसके रुसूल को, और न ही उसकी किताब कुरआन को! मैं अल्लाह का शुक्रगुजार हूँ कि उसने तुम्हें मार गिराया है. इस से मेरी आँखों को सुकून मिला है.
कुछ हदीसों में ऐसा वर्णन मिलता है कि मोहम्मद का, और लगभग सभी मुसलामानों की इच्छा सभी बंधकों की हत्या करने की थी. अबू बकर उन्हें जीवित रखने का पक्षधर था जबकि उमर सभी की हत्या के पक्ष में था. इस समय जिब्रील ने मोहम्मद को कहा कि यदि मोहम्मद चाहे तो उनकी हत्या करदे अथवा उन्हें फिरौती ले कर बंधनमुक्त कर दे. मोहम्मद ने अपने साथियों से चर्चा की जिन्होंने कहा कि; हमारे जो साथी मर गए हैं उन्हें तो जन्नत नसीब होगी, हम इन बंधकों को जीवित रख कर उनसे फिरौती लेते हैं.
बंधकों की हत्या के सम्बन्ध में कुरआन के अध्याय ८ में, जो लूट के माल से सम्बद्ध अध्याय है, मोहम्मद ने बंधकों की हत्या को उचित ठहराते हुए एक आयत लिखी है. अध्याय ८, आयत ६७:
नबी के लिए उचित यही है कि यदि उसे बंधकों को रखना है तो उनका खून ज़रूर बहाए. तुम तो इस दुनिया का सामान चाहते हो जबकि अल्लाह तुम्हारे लिए दूसरी दुनिया का सुख चाहता है. अल्लाह बहुत ताकतवर है.
 इसी अध्याय की आयत ७०, इस प्रकार है:
ऐ नबी! जिन कैदियों पर तुम्हारा कब्ज़ा है, उनसे कहो,"अगर अल्लाह ने तुम्हारे दिलों में कोई अच्छाई देखि तो, तुम से जो छीना गया है, उससे अधिक दिया जाएगा और तुम्हें माफ़ कर देगा. अल्लाह माफ़ करने वाला है."
 इस आयत से स्पष्ट होता है कि इस में मोहम्मद की मंशा बंधकों को मुसलमान बनाने की थी. हम पायेंगे कि इसमें वो कई स्थानों पर सफल भी हुआ.
भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बंगलादेश इत्यादि स्थानों पर इसी प्रकार हिन्दुओं को मुसलमान बनाया गया था.

मदीना में जीत का समाचार

मोहम्मद ने 'अल उथील' से ही ज़ायेद और अब्दुल्लाह को जीत का सन्देश सुनाने भेज दिया था. अब्दुल्लाह ये समाचार देने के लिए कोबा एवं ऊपरी मदीना की और चला गया और ज़ायेद मोहम्मद की ऊंठ्नी 'अल कसावा' पर सवार नगर की और बढ़ा. जो मदीनावासी मोहम्मद से द्वेष रखते थे, उन्होंने जब ज़ायेद को अल कसावा पर सवार देखा तो ये सोच कर प्रसन्न हो गए कि संभवतः मोहम्मद मारा गया है, किन्तु समाचार सुनते ही मायूस हो गए. मोहम्मद का साथ देने वाले प्रसन्न हो उठे. छोटे बच्चे गलियों में चिल्लाते हुए घूमने लगे, पापी अबू जहल मारा गया!


मोहम्मद का मदीना पहुंचना

जब जायेद मदीना पहुंचा तो मोहम्मद की बेटी रुकैय्या की, रोग के चलते, मृत्यु हो चुकी थी और उसकी कब्र को समतल किया जा रहा था. अगले दिन मोहम्मद जब मदीना पहुंचा तो इस समाचार से मोहम्मद की प्रसन्नता कम हो गयी. रुकैय्या का पति उथमान जो रुकैय्या के उपचार के लिए, बद्र जाने के स्थान पर, उसके साथ रुक गया था, शोकाकुल था. मोहम्मद ने उसे सांत्वना देने के लिए अपनी बेटी 'उम् कुल्थुम' का निकाह उथमान से कर दिया. वो भी रुकैय्या की ही भांति, अबू लहब के एक बेटे की बीवी थी किन्तु कुछ समय से विलग हो कर रह रही थी. उसकी मृत्यु मोहम्मद से एक दो वर्ष पहले हुई थी. उसकी मृत्यु के पश्चात मोहम्मद कहा करता था कि उसे उथमान इतना प्रिय है कि यदि उसकी एक और बेटी होती तो उसे भी वो उथमान को दे देता.

बंधकों से करुणा

बंधकों में एक सुहैल नामक व्यक्ति था जो मक्का में भोजन करवाया करता था. जब कुरैशी मुसलामानों से अपनी जान बचा कर भाग रहे थे तो सुहैल भी उन्हीं में था और सड़क तक पहुँच गया था. मोहम्मद ने उसे भागते देखा तो उसका पीछा कर के उसकी हत्या करने का आदेश दिया. जब वो उस तक पहुँच गया तो मोहम्मद ने उसकी हत्या न करके उसे बंदी बना लिया. उके हाथ सर के पीछे बाँध कर अपने ऊंट से बाँध दिया. शाम के समय जब बंधकों को मदीना लाया गया तो मोहम्मद की बीवी सौदा एक मदीनावासी (जिन्हें अंसार अर्थात मोहम्मद के साथी कहा जाता है) के यहाँ शोक प्रकट करने गयी हुई थी क्योंकि उसके दो बेटे बद्र में मारे गए थे. वहाँ से लौटने पर उसने देखा की सुहैल बंधक स्थिति में उसके घर के निकट खड़ा था. आश्चर्य चकित सी वो उसे बंधन मुक्त कराने के लिए बढ़ी तो मोहम्मद के कर्कश स्वर ने उसे चौंका दिया. मोहम्मद जो घर के भीतर था, कहा, 'अल्लाह और उसके नबी के वास्ते! तुम ये क्या करने जा रही थी?' सौदा ने प्रत्युत्तर में कहा की वो तो स्वभावतः ही उसे खोलने के लगी थी. मोहम्मद ने बंधकों को मुसलमान बनाने के लिए उनसे नम्रतापूर्वक व्यवहार का मन बना लिया था. जहा से सौदा आ रही थी, वहीं एक 'उम् सलमा' नामक महिला भी शोक कर रही थी जब उसे सन्देश मिला कि कुछ बंधकों को उसके यहाँ रखा जाएगा. वो मोहम्मद के पास गयी जो अपनी दस वर्षीय पत्नी आयशा के साथ व्यस्त था. उसने पूछा - 'ओ नबी! मेरे चचेरे भाई चाहते हैं कि मैं कुछ बंधकों को अपने यहाँ रहने दूं, उनकी देख भाल करूँ; मैं ये तुम्हारी आज्ञा से ही करुँगी.' मोहम्मद ने उसे कहा कि उसे कोई आपत्ति नहीं होगी, वो जैसा चाहे उनके आव भगत कर सकती है.
इसके लगभग दो वर्ष पश्चात जब 'उम् सलमा' का पति मारा गया था तो मोहम्मद ने उसे अपने हरम में सम्मिलित कर लिया था.
इस विनम्र व्यवहार से प्रभावित हो कर कुछ बंधक मुसलमान बन गए. इस्लाम अपनाते ही उन्हें बंधन मुक्त कर दिया जाता था. जो अपने धर्म पर अडिग रहे, उन्हें फिरौती के लिए बंधक ही रखा गया. कुरैशी अपने अपमान के रहते, लम्बे समय तक फिरौती देने नहीं आये. परिणामतः जो बंदी थे, वो भी दुविधा में थे. अंततः जब कुरैशी फिरौती ले कर आये तो मुसलामानों को प्रचुर मात्र में धन मिला. जो कुछ नहीं दे सकते थे, उन्हें इस प्रण से मुक्त किया गया कि वो मदीना वासियों को पढ़ाया करेंगे. ऐसे प्रत्येक मक्कावासी को दायित्व दिया गया कि वो दस दस मदीनावासियों को शिक्षित करेगा. इससे पता लगता है कि मक्का के निवासी सभ्यता में मदीना से कहीं बढ़ कर थे.

बद्र को विशेष घटना की उपाधि

विश्व के इतिहास में सैकड़ों युद्ध हुए हैं जिन की तुलना में बद्र की घटना एक स्थानीय झगड़े के सामान है किन्तु मुसलमान इतिहासकार इसे एक विशिष्ट घटना मानते हैं. जिन तीन सौ मुसलामानों ने इस लड़ाई में भाग लिया था, उनके नाम एक विशेष पुस्तिका में अंकित किये गए हैं और उन्हें उच्च स्तरीय मुसलमान कहा जाता है. इसके पश्चात जब भी मुसलमान कहीं से अन्फाल अर्थात लूट का माल लाते थे, उसमें से इन्हें एक भाग दिया जाता था.

अल्लाह ने इस्लाम के लिए दिलाई सफलता

बद्र की घटना, मोहम्मद को पैगम्बर के रूप में स्थापित करने में एक मुख्या स्थान रखती है. यदि पराजय हो जाती तो मोहम्मद उसे किस प्रकार प्रस्तुत करता, ये तो नहीं पता, किन्तु उसने बड़ी चतुराई के साथ, प्रत्येक छोटी छोटी घटना को भी अल्लाह की मदद के रूप में प्रस्तुत कर दिया. इन बातों को विश्वसनीय बनाने में सर्वाधिक योगदान इस तथ्य का था कि मक्कावासियों की संख्या कहीं अधिक थी. इस विजय ने उसे कई नई आयतें बनाने में सहायता की.
अध्याय ८, आयत १२:
याद करो जब अल्लाह ने तुम्हारे हौसले के लिए अपने फ़रिश्ते भेजे और तुम से कहा, "मैं तुम्हारा साथ दूंगा. तुम ईमान वालों को स्थिर रखो. मैं काफिरों के दिलों में तुम्हारी दहशत डाल दूंगा. तुम उनकी गर्दने काटो और उनका अंग अंग काट दो.
अध्याय ८, आयत १७:
उनका क़त्ल तुमने नहीं किया बल्कि अल्लाह ने उनकी हत्या की है और जब तुमने (उनकी ओर धूल और कंकड़) फेंके थे, तो वो तुमने नहीं बल्कि अल्लाह ने फेंके थे (कि अल्लाह अपनी ताकत दिखाए) जिससे कि ईमानदारों की जांच कर सके. बेशक अल्लाह सब सुनता और जानता है - ये अल्लाह ही है जो काफिरों की चाल को बेकार कर देता है. - (ऐ काफ़िरो) तुम फैसला चाहते थे तो फैसला तुम्हारे सामने आ चुका है. कुफ्र से बाज़ आ जाओ, यही तुम्हारे लिए अच्छा है. अगर तुम नहीं सुधरे तो हम फिर पलट आयेंगे और तुम्हें नहीं छोड़ेंगे, तुम्हारा दल कितना ही बड़ा क्यों न हो, तुम्हारे किसी काम न आएगा क्योंकि अल्लाह मोम्मिनों के साथ है.

शैतान हतोत्साहित 

केवल इतना ही नहीं था कि अल्लाह ईमानदारों (ईमान अर्थात इस्लाम, इमानदार अर्थात मुसलमान) का साथ दे रहा है बल्कि मक्का की सहायता करने वाला शैतान भी हतोत्साहित हो गया था.
अध्याय ८, आयत ५२:
और याद रखो कि शैतान ने उनकी हरकतों को सही ठहराया और उनसे कहा: " आज मैं तुम्हारे साथ हूँ इसलिए तुम्हें कोई नहीं हरा सकता. इसके बाद जब दोनों दल आपस में भिड़े तो शैतान भाग खड़ा हुआ और बोला कि मैं तुम्हारा साथ नहीं दे रहा हूँ क्योंकि मुझे वो दिख रहा है जो तुम्हें दिखाई नहीं देता; मैं तो अल्लाह से डरता हूँ क्योंकि अल्लाह बड़ा सख्त बदला लेता है. 
उल्लेखनीय है कि सनातन धर्म के ग्रंथों में किसी 'शैतान' का उल्लेख नहीं है क्योंकि सनातन/आर्य/वैदिक धर्म के अनुसार मनुष्य अपने कर्मों से ही पाप/पुण्य भोगता है. कुरआन में शैतान, ईसाईयों की बाइबल से लिया गया 'satan'  है.
बद्र की लड़ाई में से कई घटनाएं ऐसी थीं जिन्हें मोहम्मद ने अल्लाह की सहायता के रूप में प्रस्तुत किया. न केवल अपने से बड़े दल पर विजय प्राप्त कर ली गयी थी बल्कि उसके मुख्या प्रतिद्वंद्वी भी मार दिए गए थे अथवा बंधक बना लिए गए थे. अबू लहब, जो लड़ाई में नहीं था, कुछ दिनों पश्चात किसी संक्रामक रोग से मर गया था. इसे भी 'अल्लाह के कहर' के रूप में कहा जाता है.
अब्बासी किंवदंती, जिसमें काफिरों के प्रति दुर्भाव की झलक मिलती है, के अनुसार, उसकी मृत्यु क्षय रोग (कैंसर) के चलते हुई थी; दो दिन तक कोई उसके शव के पास नहीं गया था और उसे स्नान नहीं करवाया गया था बल्कि दूर से ही जल छिड़क दिया गया था. उसके शव को एक खाली कूंएं में डाल कर पत्थरों से ढक दिया गया था. 

मक्का में अपमान एवं क्रोध

"हम में से कोई एक भी आंसू नहीं बहायेगा क्योंकि इस से मोहम्मद और उसके मुसलमानों के प्रति हमारा क्रोध कम हो जाएगा. और यदि हमारे विलाप की सूचना उन्हें मिल गयी तो वो हमारा उपहास करेंगे जो हमारे लिए असहनीय होगा." ये कहते हुए अबू सुफियान ने घोषणा की - " मैं जब तक मोहम्मद से युद्ध नहीं करूंगा, न तो अपने शरीर पर तेल लगाऊंगा और न ही अपनी पत्नी के पास जाऊंगा." अपने इस आत्म सम्मान के कारण, एक दीर्घ काल तक वो अपने सम्बन्धियों को फिरौती देकर छुड़ाने के लिए मदीना नहीं गए और न ही किसी प्रकार का रुदन विलाप किया.
अबू सुफियान का अपना बेटा भी बंधक था, जिसके सम्बन्ध में उसने घोषणा की कि भले ही मोहम्मद उसे एक वर्ष तक बंधक बनाए रखे लेकिन वो फिरौती नहीं देगा.
उसके बेटे को मुसलामानों ने तब छोड़ा जब एक मुसलमान, जो असावधानी से मक्का में पकड़ा गया था, को मक्कावासियों ने छोड़ा.

मक्का में शोक

मक्का में अस्वाद नामक एक नेत्रहीन वृद्ध था जिसके दो बेटे एवं एक पौत्र मुसलामानों के हाथों, बद्र में मारे गए थे. वो अपने शोक को दबाये हुए था कि एक रात उसे एक महिला का रुदन उसे सुनाई पड़ा. उसने अपने एक सेवक को पता लगाने को कहा 'देखो क्या मक्कावासियों ने शोक मनाने का निर्णय कर लिया है; मुझे भी अपने पुत्र का शोक करना है, मैं भीतर ही भीतर घुट रहा हूँ.' सेवक ने आकर बताया कि किसी महिला का ऊंट खो गया है इसलिए वो रो रही है. ये सुन कर वृद्ध ने एक सुन्दर कविता लिखी जिस के अनुसार  -  'क्या वो अपने ऊंट के लिए रो रही है, और इस कारण उसकी आँखों से नींद खो गयी है? नहीं, यदि रोना ही है तो हम बद्र के लिए रोयें, उकील के लिए रोयें, अल हरित के लिए रोयें जो शेरों का शेर था!______
लगभग एक माह तक मक्का वासियों ने अपने शोक को बलपूर्वक दबाये रखा किन्तु जब ये पीड़ा असहनीय हो गयी तो पूरा नगर एक साथ रुदन करने लगा. प्रत्येक घर में मृतकों एवं बंधकों की स्मृति में आंसू बह रहे थे. शोक इतना गहन था कि ये अश्रुधारा एक माह तक चलती रही. केवल एक घर में विलाप नहीं था. ये घर था अबू सुफियान का. जब नगरवासियों ने उसकी पत्नी हिंद से पूछा कि अपने पिता, चाचा एवं भाई की हत्या के लिए वो क्यों नहीं रो रही तो उसने उत्तर दिया,"हिंद का शोक आंसू बहाने से नहीं मिटेगा. यदि ऐसा होता तो मैं अवश्य रोटी. मैं तब तक आंसू नहीं बहाऊंगी जब तक कि तुम लोग मोहम्मद और उसके साथियों के विरुद्ध नहीं लड़ोगे". अपना रोष जताने के लिए उसने प्रतिज्ञा की कि जब तक मक्का की सेना मदीना पर आक्रमण नहीं करेगी, वो न तो अपने केशों में तेल लगाएगी और न ही अबू सुफियान के पास जायेगी.

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