गुरुवार, 13 अक्टूबर 2011

बानू कुनैका पर मोहम्मद का अत्याचार

बद्र की लड़ाई के उपरान्त, मोहम्मद मदीना में अधिक प्रभावशाली हो गया था. मोहम्मद ने इस लड़ाई को राजनैतिक विजय के स्थान पर एक साम्प्रदायिक विजय के रूप में प्रस्तुत करना आरम्भ कर दिया था. उसने इस 'फतह' को 'अल्लाह के फैसले' के रूप में स्थापित कर दिया था. जिसका अर्थ था की ये 'फतह' इस्लाम की फतह है और काफिरों को अल्लाह ने परास्त कर दिया था. इसका अर्थ था की आज नहीं तो कल मदीना के काफिरों पर भी अल्लाह का फैसला हो सकता था 'क्योंकि अल्लाह तो मोम्मिनों के साथ है'. इन छिपी हुई धमकियों को मदीनावासी, जो मोहम्मद से प्रभावित नहीं थे, भली भाँती समझ गए थे. इन सब का मुखिया 'अब्दुल्लाह बिन उबे' था जिसका मदीना में इतना प्रभाव था कि  जब मोहम्मद मक्का से पलायन कर के मदीनावासियों की शरण में आया था तो उसे अब्दुल्लाह बिन उबे से आदरपूर्वक व्यवहार करने के लिए कहा गया था. इस परामर्श पर मोहम्मद ने भली प्रकार अमल किया था. किन्तु अब स्थिति मोहम्मद के पक्ष में होती जा रही थी क्योंकि मोहम्मद के अनुयायी एक नए उत्साह से भरे थे जबकि उसके अनुयायी असमंजस की स्थिति में थे. अब्दुल्लाह ने उससे कोई वैर भाव नहीं रखा.



यहूदी 

ऐसा नहीं था कि केवल कुछ व्यक्ति ही मोहम्मद से प्रभावित नहीं थे. अभी भी बहुत से ऐसे कबीले थे जो मोहम्मद अथवा मुसलामानों से प्रभावित नहीं थे. मोहम्मद ने आरम्भ से ही अपने सम्प्रदाय को यहूदियों के मत एवं शैली के अनुरूप रखा था. उसे आशा थी कि इस से वो मोहम्मद के अनुयायी बन जायेंगे. इसी नीति के अंतर्गत, मोहम्मद यहूदी कबीलों को आदर देता आया था. मक्कावासियों की भाँती, जो अपनी परम्परागत शैली के अनुरूप काबा मंदिर में मूर्ती पूजा करते थे, यहूदी, जो मूर्ती पूजा नहीं करते थे, भी मोहम्मद के नए सम्प्रदाय के प्रति उदासीन थे. अब मोहम्मद को यहूदी कबीले अपनी राह का काँटा लगने लगे थे. मोहम्मद की उनको कुचलने की शक्ति एवं सोच से अनभिज्ञ, यहूदी दबे शब्दों में उसका उपहास किया करते थे. इन कटाक्षों का उपयोग, असंतुष्ट मदीनावासी भी करते थे. उन्हें क्या पता था कि मुसलामानों की कट्टरता न केवल उन्हें मोहम्मद के लिए एक आदर्श गुप्तचर बना देती थी बल्कि वो किसी भी सीमा तक क्रूर हो सकते थे. बद्र में सफल होने के पश्चात मोहम्मद के उत्साह ने उसे क्रूर एवं निर्लज्जतापूर्वक कृत्य करने में सक्षम बना दिया था.

अस्मा की हत्या

मदीना में, इस क्रूरता का प्रथम लक्ष्य बनी थी 'अस्मा बिन्त मरवान' नामक एक महिला. उस काल में कविता लिखना एवं बोलना, अपने भावों को व्यक्त करने के गिने चुने माध्यमों में से एक था और ये महिला एक कावय्त्री थी. उसके परिवार ने अपनी परम्परागत शैली एवं धर्म को नहीं त्यागा था इसलिए इस्लाम में उसकी अरुचि थी. उसने बद्र की लड़ाई के उपरान्त के ऐसे व्यक्ति पर कविता लिखी जो अपने ही प्रियजनों का विद्रोही था और युद्ध में उनके मुखिया का हत्यारा था. अन्यों ने ऐसे व्यक्ति पर विश्वास करके उसे अपना लिया था. शीघ्र ही ये कविता सभी में प्रसारित हो गयी. बद्र की लड़ाई को अभी कुछ ही दिन हुए थे. जब ये कविता मुसलामानों के कानों तक पहुंची तो वो भड़क उठे. उनमें से एक 'ओमीर' नामक नेत्रहीन मुसलमान ने, जो अस्मा के ही कबीले का निवासी था (कुछ सूत्रों के अनुसार, उसका पूर्व पति था), ने ये घोषणा की कि वो उस काव्यत्री का वध कर देगा. 
एक रात, जब अस्मा और उसके बच्चे सो रहे थे, वो चुपके से अस्मा के घर में घुस गया और टटोल टटोल कर अस्मा के दूध पीते बच्चे को उससे छीन कर अपनी खड़ग, पूरे वेग से, अस्मा के वक्षस्थल में उतार दी. प्रहार इतना शक्तिशाली था कि खड़ग उसे चीर कर खाट में जा धंसी थी. 
अगले दिन जब नमाज़ के लिए वो मस्जिद में पहुंचा तो मोहम्मद ने, उससे इस विषय में पूछा 
मोहम्मद - 'ओमीर; क्या तुमने मरवान की बेटी को मार दिया है?'. 
ओमीर - ' हाँ! पर मुझे ये बताओ कि ये कोई चिंता का विषय तो नहीं है?'
मोहम्मद - चिंता की कोई बात नहीं है. उसके लिए तो दो बकरियां भी आपस में नहीं भिड़ेंगी.
इसके उपरान्त, मोहम्मद ने मस्जिद में एकत्रित मुसलामानों को संबोधित करते हुए कहा
मोहम्मद - अगर तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखना चाहते हो जिसने अल्लाह और उसके नबी की मदद की है तो ओमीर को देखो.
उमर -  क्या! अंधे ओमीर को!
मोहम्मद - नहीं! इसे अँधा मत कहो; बल्कि ये तो ओमीर बशीर है. (बशीर अर्थात जो देख सकता है).

ओमीर हत्यारा जब ऊपरी मदीना में स्थित अपने निवास की ओर लौट रहा था तो अस्मा के बेटे अपनी माता के शव को दफना रहे थे. उसे देख कर उन्होंने हत्यारे पर आरोप लगाया कि उसीने उनकी माता का वध किया है. अस्मा ने पूरी निर्लज्जता से इसे न केवल स्वीकार कर लिया अपितु उन बालकों को धमकी देता हुआ बोला कि जिस प्रकार की बातें वो करती थी, यदि किसी ने ऐसा किया तो वो उसके परिवार की भी हत्या कर देगा. इस उग्र धमकी का परिणाम ये हुआ कि मोहम्मद के बढ़ते प्रभाव और उसके चेलों की हिंसक प्रवृति के चलते, अस्मा के परिवार ने ही नहीं, कुछ ही दिनों में सम्पूर्ण कबीला मुसलमान बन गया. इतिहासकारों के अनुसार, रक्त पात से बचने का एक ही उपाय बच जाता था, इस्लाम को अपनाना.

अबू अफाक

इस महिला के पश्चात, जिस कवि की निर्मम हत्या नए सम्प्रदाय इस्लाम के लिए की गयी, वो एक सौ वर्ष से भी अधिक आयु का वृद्ध यहूदी था. अपनी सृजनात्मक कविताओं के द्वारा, अबू अफाक नामक वृद्ध कवि ने कुछ ऐसी कवितायें लिखीं जो मुसलामानों को उचित नहीं लगीं. मोहम्मद ने अपने साथियों से कहा,'कौन मुझे इस कीड़े से मुक्त करवाएगा?' एक नए बने मुसलमान ने, जो अबू अफाक के ही कबीले का था, एक रात, अपने घर के बाहर सोये हुए वृद्ध को अपनी खड़ग से मार डाला. उसकी अंतिम चीख सुन कर निकटवर्ती लोग, जब तक वहां पहुँचते, हत्यारा वहां से भाग चुका था.  

यहूदियों में आतंक

जैसा कि अपेक्षित था, महिला और वृद्ध की निर्मम हत्याओं ने यहूदियों एवं सभी उन नागरिकों के मन में, जो मुसलामानों के प्रति अविश्वास अथवा अरुचि रखते थे, एक आतंक व्याप्त हो गया. 

बानू कुनैका को मोहम्मद की धमकी

मदीना के साथ ही एक यहूदी कबीला था, बानू कुनैका. बानू कुनैका का मुख्य व्यवसाय सोने की शिल्पकारी का था और मदीना से इस कबीले की मैत्री संधि थी. बद्र की हत्याओं के कुछ दिन पश्चात, मोहम्मद बानू कुनैका नामक यहूदी कबीले में गया और वहां के प्रमुख नागरिकों से एक बैठक में कहने लगा:
अल्लाह कसम! तुम सब जानते हो कि मैं अल्लाह का नबी हूँ इसलिए मुसलमान बन जाओ अन्यथा तुम्हारा भी वही हश्र होगा जो कुरैशियों का हुआ है.
यहूदियों ने मुसलमान बनना अस्वीकार कर दिया और मोहम्मद से कहा कि वो अपने पूर्वजों का मत नहीं त्यागेंगे, भले जो कर लो. 
तुरंत 'अल्लाह, की एक नयी आयत मोहम्मद में उतरी. 
अध्याय ३, आयत १३:
तुम्हें पहले ही इशारा मिल चूका है, जब दो गिरोह लड़ने के लिए भिड़े तो उनमें से एक अल्लाह की राह में लड़ रहा था और दूसरा काफिर था. ईमानदारों ने देखा कि काफिर उनसे दोगुणा हैं. अल्लाह उसे ही फतह देता है, जिसे वो चाहता है. समझदारों के लिए ये एक इशारा है.
इस प्रकार, एक भीषण परिणाम की धमकी दे कर मोहम्मद चला गया.
इसके कुछ ही समय उपरान्त मोहम्मद को हिंसा का अवसर मिल गया. एक मुसलमान महिला जब एक शिल्पकार के यहाँ किसी आभूषण लेने के लिए बैठी थी तो एक मूर्ख पडोसी ने उसके घाघरे को, उसकी चोली से सिल दिया. जब वो उठी तो घाघरा भी उठ गया. इस असुविधाजनक स्थिति में वो चिल्लाई तो उसे सुन कर एक मुसलमान वहां पहुंचा. उसे जब पता लगा तो उसने ऐसा करने वाले यहूदी को काट दिया. उस यहूदी के भाइयों ने मुसलमान को मार गिराया. उस मुसलमान के साथियों ने मदीना में जा कर, जो मुसलमान बने थे, उन्हें सहायता के लिए कहा. मैत्री संधि के चलते, मोहम्मद चाहता तो शांतिपूर्ण ढंग से, केवल दोषियों को दण्डित कर अथवा करवा सकता था किन्तु उसने मुसलामानों को एकत्रित किया और कुनैका की ओर चल पड़ा. वो श्वेत ध्वज जो उसने लगभग एक महीना पूर्व बद्र में लहराया था, हम्ज़ा को थमाते हुए आक्रमण करने पहुँच गया. कबीले का निर्माण किसी हमले से रक्षा के लिए ही किया गया था, इसलिए कबीले वाले भीतर सुरक्षित थे.

विश्वासघात की प्रशंसा

मुसलामानों ने कबीले को घेर लिया ताकि उन्हें कोई सहायता न मिल सके. कबीलेवासी आशा कर रहे थे कि अब्दुल्लाह बिन उबे एवं खजराज कबीला, जिन से उनके मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे, उनकी सहायता करेंगे. उनमें से कोई भी इतना साहस न कर पाया और लगभग १५ दिन तक उनका कबीला अकेला पड़ गया. मुसलमान उन्हें चारों ओर से घेरे रहे. अपने को असहाय स्थिति में पाकर, कुनैका कबीले ने आत्म समर्पण कर दिया. एक एक कर, जब वे बाहर निकले तो उनके हाथ पीछे बाँध कर उन्हें काटने के लिए एक ओर खड़ा कर दिया गया. 'अब्दुल्लाह बिन उबे' अपने पुराने साथियों को इस स्थिति में नहीं देख पाया और उसने मोहम्मद से उन्हें छोड़ने का आग्रह किया. मोहम्मद, जो कि कवच पहने हुए था, ने मुंह फेर लिया तो अब्दुल्लाह ने उसकी भुजा थाम कर अपनी बात दोहराई. मोहम्मद ने चिल्ला कर कहा,' मुझे छोड़!'; किन्तु अब्दुल्लाह ने मोहम्मद को नहीं छोड़ा तो मोहम्मद के हाव भाव से क्रोध झलकने लगा. उसने झल्ला कर कहा:'ऐ नीच! मुझे छोड़!' अब्दुल्लाह ने कहा,' नहीं! मैं तुम्हें तब तक नहीं छोडूंगा जब तक तुम मेरे मित्रों को नहीं छोड़ोगे. मोहम्मद, क्या तुम उन सब को एक ही दिन में काट दोगे जिन्होंने मुझे हदैक और बोआथ की लड़ाइयों में सभी शत्रुओं से सुरक्षा दी. उन लड़ाइयों में ३०० सशत्र कवचधारी और ४०० शास्त्रहीनों नें मेरी रक्षा की थी. मेरा मत है कि समय के साथ अनिष्ट किसी पर भी हो सकता है.'
मोहम्मद अभी इतना शक्तिशाली नहीं हुआ था कि अब्दुल्लाह के कहे को ठुकरा देता. अंततः उसने अपने साथियों से कहा 'इन्हें जाने दो! अल्लाह इन पर अपना कहर बरसायेगा, और इस (अब्दुल्लाह) पर भी!'. मोहम्मद ने उन्हें मारा तो नहीं किन्तु उन्हें अपना कबीला छोड़ कर जाने का आदेश दे दिया और उनकी चल अचल संपत्ति पर मुसलामानों ने अधिकार कर लिया. इस लूट के माल (अन्फाल) में, यहूदियों के स्वर्ण शिल्पकारी के उपकरण, उनके कवच एवं शास्त्र सम्मिलित थे. इनमें से २०%, मोहम्मद के लिए था. इसके अतिरिक्त मोहम्मद ने अपने लिए तीन धनुष, तीन खड़ग और दो कवच अपने कब्ज़े में ले लिए थे.
कुनिकावासी अपनी जान बचा कर एक निकटवर्ती यहूदी काबिले 'वादी अल कोरा' पहुंचे और वहां के यहूदियों की सहायता से उन्हें सीरिया की सीमा तक जाने के लिए सवारी का प्रबंध करने में सहायता मिली.
मोहम्मद की, इब्न इस्हाक़ कृत सर्वप्रथम जीवनी में इस घटना के वर्णन से स्पष्ट होता है कि जिस समय अब्दुल्लाह अपने पुराने सहयोगियों का जीवन बचाने के लिए मोहम्मद से विवाद कर रहा था, उस समय 'बानू ऑस' काबिले का 'उबैदा बिन अल समित', जो स्वयं को कुनैकावासियों का मित्र बताता था, ने कुनैकावासियों की मैत्री त्याग कर मोहम्मद से मैत्री कर ली थी. वो मोहम्मद के निकट आया और बोला,"ऐ अल्लाह के पैगम्बर!मैं अल्लाह को, उसके पैगम्बर को और मुसलामानों को अपना मित्र मानता हूँ और काफिरों से अपनी संधि का त्याग करता हूँ".
इस समय अब्दुल्लाह के संबंध में कुरान की नई पंक्तियाँ प्रकट हुई. अध्याय ५, आयत ५१:
ऐ मुसलामानों! यहूदियों और ईसाईयों को अपना औलिया (मित्र, संरक्षक, सहायक इत्यादि) मत बनाओ. वो तो केवल एक दुसरे के परस्पर औलिया हैं. और यदि तुम में से किसी ने उन्हें अपना मित्र बनाया तो वो भी उनके जैसा ही माना जाएगा. अल्लाह जालिमों (अन्य भगवान् की पूजा करने वालों और अन्याय करने वालों) का साथ नहीं देता.
जिस समय अब्दुल्लाह बिन उबे ने कहा कि 'अनिष्ट किसी पर भी हो सकता है' तो कुरान की आयत प्रकट हुई. अध्याय ५, आयत ५२-५३:
और तुम उन्हें देखो जिनके दिलों में (दोगलेपन की) बीमारी है, वो अपने मित्रों को बचाने के लिए कहते हैं: " हमें भय है कि अनिष्ट किसी पर भी हो सकता है." जब अल्लाह अपनी इच्छा से हमें फतह देगा उस समय वो अपने राज़ छिपाने के कारण शर्मिंदा होंगे...... और जो ईमानदार (मुसलमान) हैं, वो कहेंगे:"क्या ये वही हैं जो अल्लाह की कसम खा कर कहते थे कि हम मुसलामानों के साथ हैं?" उन्होंने जो किया व्यर्थ जाएगा और वो पराजित होंगे.
उबैदा, जिसने अपने पुराने मित्रों का इस गंभीर समय में विश्वासघात करते हुए, मोहम्मद से मित्रता कर ली थी, की प्रशंसा करते हुए कुरान में नई आयत आई.अध्याय ५, आयत ५६:
और जिस शख्स ने अल्लाह और उसके रसूल  और मुसलामानों को अपना औलिया बनाया तो (अल्लाह के गिरोह में आ गया और) इसमें शक नहीं कि अल्लाह का गिरोह (ग़ालिब) रहता है.
जब मोहम्मद, उबैदा के विश्वासघात की प्रशंसा कर रहा था, उस समय अब्दुल्लाह बिन उबे ने उबैदा की भर्त्सना करते हुए उसे कहा,'क्या तुम इन लोगों का साथ छोड़ दोगे जिन्होंने न जाने कितने युद्धों में तुम्हारा साथ दिया है और हमारी सहायता करते हुए अपना रक्त बहाया है?'. उबैदा ने कहा: 'इस्लाम ऐसी किसी संधि को नहीं मानता' और अपना पल्ला झाड़ लिया.
 इस घटनाक्रम से यहूदियों को मोहम्मद की मंशा समझ में आ गयी थी. वो जानते थे कि यदि मोहम्मद चाहता तो इस घटना को तुरंत समाप्त किया जा सकता था. दोनों और से एक एक व्यक्ति मारा गया था जिस से किसी एक पक्ष को अधिक हानि नहीं हुई थी. एक महिला से किये एक अभद्र व्यवहार से उठे विवाद को इतना विशाल रूप दे दिया गया था कि दोनों समुदायों में शत्रुता हो गयी थी.

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