मंगलवार, 27 सितंबर 2011

डकैती = गज़्वाह ?

सन ६२३ 

मक्का में राहत 

मोहम्मद के मक्का से पलायन करने पर मक्का वासियों ने राहत की सांस ली. मोहम्मद की गतिविधियों ने, जिनमें उसका परंपरा के विरुद्ध जाना एवं नए सम्प्रदाय की स्थापना करना सम्मिलित था, कई वर्षों तक मक्का वासियों को आहत एवं चिंतित किया था. अपने चेलों के साथ मोहम्मद के पलायन ने नगर वासियों को पुनः अपनी परम्परागत शैली से शांतिपूर्ण जीवन जीने का अवसर मिला. परिणामतः समाज में से द्वेष की भावना जाती रही.

मोहम्मद का क्रोध

इस के विपरीत, मोहम्मद के मन में जो विचार थे उन में शान्ति नहीं थी. उस के उदघोष में शत्रुओं से प्रतिशोध लेने की प्रबल इच्छा थी. ये इच्छा शीघ्रातिशीघ्र एक भयंकर प्रतिशोध लेना चाहती थी. कुरैशियों के विरुद्ध, उसके मन में दबे हुए ये प्रबल विचार अवसर की ताक में थे. यथ्रीब (मदीना का पुराना नाम) में प्राप्त हुए सुरक्षित आश्रय स्थल से वो अपने सम्प्रदाय को अपने शत्रुओं पर थोपने का उपाय खोज रहा था.
मदीना में आने के पश्चात छः माह तक मोहम्मद ने कोई आक्रामक तेवर नहीं दिखाए. इसके मुख्यतः तीन कारण थे. उसके साथ पलायन करके आये उसके चेले थोड़े से ही थे और उनके भरोसे मोहम्मद मक्कावासियों से नहीं जीत सकता था. दूसरा कारण था कि वो भी मदीना में अपने भरण पोषण एवं आवास की व्यवस्था में लगे थे. तीसरे, मदीना वासी मोहम्मद को शरण तो दे रहे थे किन्तु अभी वो उसके लिए युद्ध करने का संकट नहीं लेना चाहते थे. परिस्थिति के अनुरूप ढलते हुए मोहम्मद ने मदीना वासियों एवं यहूदियों से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए ताकि उसे अपने एवं अपने चेलों के लिए उपयुक्त वातावरण बना सके. इस में छः माह व्यतीत हो गए.

मक्का का व्यापार 

मक्का, जो कि मदीना के तुलना में, अत्यंत संपन्न था, अपने व्यापार के लिए उत्तर में स्थित सीरिया एवं फारस से लेन देन करता था. मक्का, तैफ एवं यमन का चमड़ा उत्कृष्ट माना जाता था. इस व्यापार के लिए बड़े कारवाँ जिनमें एक समय पर २,००० अथवा उस से भी अधिक ऊंठों पर सामग्री लाद कर ले जाई जाती थी. आते समय ये कारवां मलमल अथवा अन्य बहुमूल्य वस्तुएं ले कर आता था. मक्का का दुर्भाग्य कि ये मार्ग मदीना के पास से हो कर जाता था. ये समृद्ध कारवां एक ऐसा लालच था कि देर सवेर मोहम्मद ने इसका लाभ उठाना ही था.
मोहम्मद के पलायन के पश्चात के छः महीनों में ऐसे कई कारवां का उल्लेख मिलता है. इनमें एक की सम्पन्नता ५०,००० दिनार तक आंकी गयी है. इतिहासकार स्प्रेंगर के अनुसार मक्का का वार्षिक व्यापार २,५०,००० दिनार से अधिक का था. इसमें लाभ लगभग ५०% होता था. प्रत्येक मक्कावासी इस व्यापार में अपने सामर्थ्य के अनुसार इन कारवां में निवेश करता था. ये कारवां कुछ बड़े निवेशकों के संरक्षण में चलते थे किन्तु भागीदारी लगभग प्रत्येक कुरैशी (मक्कावासी) की होती थी.
इन व्यापारियों पर दस्यु दल हमले करते रहते थे क्योंकि ऊंठों की लम्बी श्रृंखला जब किसी संकरे दर्रे अथवा घाटी में से जा रही होती थी तो अचानक आक्रमण से ऊंट इधर उधर भाग जाते थे. इस अव्यवस्था में डाकू कुछ सामान लूट कर ले जाया करते थे. इन हमलों से सावधानी के लिए, कुछ प्रहरियों को संदिग्ध स्थितियों की टोह लेने के लिए आगे भेज दिया जाता था. सूचना मिलने पर कारवां स्थिति के अनुसार अपनी दिशा अथवा गति निर्धारित कर लेता था. इस से हम अनुमान लगा सकते हैं कि इस महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग पर मोहम्मद जैसे शत्रु की उपस्थिति से कुरैशी आतंकित हो गए होंगे. 

मोहम्मद के बिना किये गए गज़्वाह 

पहले छः माह उत्तर की ओर व्यापार के नहीं थे इसलिए मोहम्मद अपने एवं अपने चेलों के लिए व्यवस्था में व्यस्त रहा था. किन्तु अब उत्तर व्यापार की ऋतु आ गयी थी. पहला कारवां सीरिया की ओर रवाना किया गया.
मोहम्मद की ओर से पहला आक्रमण छोटा सा ही था, जिसमें उसने अपने चाचा हम्ज़ा को ३० मुहाजिरों (जिन्होंने मोहम्मद के साथ पलायन किया था, उन्हें मुहाजिर कहा जाता है) के साथ भेजा. इस दल का उद्देश्य था सीरिया से वापिस आ रहे कारवां को लूटना, जिसका नेत्रित्व अबू जहल कर रहा था. कारवां की सुरक्षा ३०० कुरैशी कर रहे थे. जिस समय दोनो गुट आमने सामने हुए तो 'बानू जोहिना' नामक एक कबीले के मुखिया, जो दोनों से मैत्रीपूर्ण संबंध रखे था, ने बीच बचाव कर के आक्रामकता को रोक दिया. दोनों दल अपने अपने मार्ग पर चले गए. इस घटना ने मोहम्मद के आक्रामक तेवर स्पष्ट कर दिए. ये घटना सन ६२२ के दिसंबर माह की है.
अगले माह, २०० कुरैशियों का एक कारवां 'अबू सुफियान' के नेतृत्त्व में जा रहा था, जिसपर ६० मुसलमान आक्रमण के लिए गए. जब मुसलमान, जिनका नेतृत्त्व  मोहम्मद का उबैदा नामक सम्बन्धी कर रहा था, कुरैशियों के दल के समीप पहुंचे तो कुरैशी असावधान थे. उनके ऊंट राबीघ की घाटी में विचरण कर रहे थे. मुसलामानों ने दूर से कुछ बाण चलाये किन्तु प्रतिद्वंद्वियों की अधिक संख्या देख कर मुसलमान वापिस लौट गए. इस आक्रमण का मोहम्मद को लाभ हुआ कि कारवां से दो कुरैशी निकल कर मुसलामानों से जा मिले और मुसलमान बन गए.
इस अवसर पर उबैदा ने बाण चलाया था, इसलिए इस्लाम की पुस्तकों में उसे इस्लाम का पहला बाण चलाने का श्रेय दिया जाता है.
इसके लगभग एक माह पश्चात, २० मुसलामानों का एक गिरोह, साद नामक एक युवा के नेतृत्त्व में एक कारवां पर आक्रमण करने के लिए गया. इस दस्यु दल की रण नीति यह होती थी कि वे दिन में विश्राम करते थे और रात्री में यात्रा करते थे. पांचवे दिन प्रातः जब ये गिरोह निर्धारित स्थान पर पहुंचा तो उन्होंने पाया कि कारवां वहाँ से जा चुका था. वे खाली हाथ वापिस आ गए.
ऊपर वर्णित सभी आक्रमणों के लिए मोहम्मद, गिरोह के सरदार को एक श्वेत वर्ण का झंडा किसी भाले पर अथवा डंडे पर लगा कर सौंपता था. इन सभी आक्रमणों को कोई विशेष घटना मान कर इस्लाम की परम्पराओं (जिन्हें हदीस अथवा हदीथ कहते हैं) में अंकित किया गया है और इनमें भाग लेने वालों के नाम भी लिखे गए हैं.

मोहम्मद के नेतृत्त्व में किये गए असफल गज़्वाह 

अगले कुछ महीनों में, मोहम्मद के नेतृत्त्व में तीन अपेक्षाकृत बड़े आक्रमणों के लिए कूच किया गया किन्तु वो सब भी इसी प्रकार असफल रहे. इनमें से पहला ग्रीष्म ऋतु में, जून के माह में किया गया. इस अभियान का लक्ष्य था, अल अबवा नामक स्थान पर (जहां मोहम्मद की माता को दफ़न किया गया था) एक कारवां को लूटना. कारवां तो नहीं मिला, किन्तु मोहम्मद को इसमें जो सफलता प्राप्त हुई वो थी उसका एक कबीले से मैत्री संधि करना. ये मोहम्मद द्वारा की गयी पहली लिखित संधि थी. ये कबीला पहले मक्का का मित्र था किन्तु अब उस से विलग हो चुका था. इस अभियान के लिए मोहम्मद १५ दिन के लिए मदीना से बाहर रहा था.
इसके लगभग एक माह उपरान्त, २०० जनों का गिरोह ले कर, जिनमें कई मदिनावासी भी सम्मिलित थे, मोहम्मद 'बोवात' नामक स्थान पर एक कारवां पर हमले के लिए निकला. ये कारवां उमैय्या बिन खालफ नामक मोहम्मद के एक मुख्य प्रतिद्वंद्वी के नेतृत्त्व में १०० सशस्त्र योद्धाओं की सुरक्षा में था. इस में बहुमूल्य सामान से लड़े हुए २,५०० ऊंट थे. मोहम्मद एवं उसके दल ने पीछा किया किन्तु ये कारवां सुरक्षित निकल गया. इस अभियान में मदीना वासियों का सम्मिलित होना, मोहम्मद के बढ़ते हुए प्रभाव दो दर्शाता है. लूट का माल पाने के लिए किये गए इस निर्णय से मदीना वासियों ने स्वयं को मक्का के कुरैशियों का शत्रु बना लिया था. इस अभियान से लौटने के कुछ समय उपरान्त ही, 'कुरज बिन ज़बीर' नामक एक लुटेरे के गिरोह ने मदीनावासियों के कुछ ऊंट एवं अन्य पशु हथिया लिए. मोहम्मद उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे बद्र तक गया किन्तु उसके हाथ कुछ न लगा. इस घटना के कुछ समय पश्चात हम पाते हैं कि यही दस्यु मुसलमान बन गया है एवं ऐसे ही एक अन्य दस्यु पर मुसलामानों के गिरोह के साथ आक्रमण करता है.
दो तीन माह पश्चात मोहम्मद अपने तीसरे 'गज़्वाह' के लिए निकला. इसका उद्देश्य था मक्का से चले एक कारवां, जिसका नेतृत्त्व 'अबू सुफियान' कर रहा था, को उशीरा नामक स्थान के निकट लूटना. इसके लिए लगभग २०० लोग तत्पर हुए. इस गिरोह के पास ३० ऊंट थे, इसलिए कुछ समय के लिए कुछ व्यक्ति सवारी करते और अन्य चलते. तत्पश्चात सवार उतर कर चलते और अन्य ऊंट की सवारी करते रहे. इस प्रकार, जब वे निश्चित आक्रमण स्थल पर पहुंचे तो कारवां कुछ दिन पहेल ही वहाँ से जा चुका था. 
ये वहीं कारवां है जिस के सीरिया से लौटते समय उसे मुसलामानों द्वारा लूट लिया जाएगा. इस घटना को बद्र की घटना के नाम से जाना जाता है. 
मोहम्मद के हाथ से कारवां तो बच गया किन्तु उशीरा के कई कबीलों से उसने अपने मैत्री संबंध स्थापित कर लिए. इस प्रकार, वो अपना प्रभाव व्यापार मार्ग पर बढ़ाता जा रहा था. इसका परिणाम था कि मक्कावासियों के लिए व्यापार मार्ग दुष्कर होता जा रहा था.

नमाज़ के लिए नियुक्तियां

मोहम्मद ने मदीना में नमाज़ की परंपरा स्थापित कर दी थी. जब वो मदीना में होता तो नमाज़ करवाता था और जब किसी 'गज़्वाह' पर जात था तो नमाज़ का दायित्व किसी अन्य व्यक्ति दो दे कर जाता था. इसके लिए पहले अवसर पर उसने बानू खाज्राज के मुखिया 'साद बिन ओबैदा' को नियुक्त किया था. दूसरे अवसर पर बानू ऑस के मुखिया 'साद बिन मोआध' को इस कार्य के लिए चुना. इस प्रकार उसने दोनों प्रतिद्वंद्वी कबीलों को अपनी चतुरता से अपने साथ मिलाये रखा. तीसरे अवसर पर 'नमाज़' के लिए उसने अपने मित्र 'ज़ायेद' को चुना.
आगामी दो महीने अर्थात सन ६२३ के नवम्बर एवं दिसंबर में मोहम्मद किसी गज्वाह के लिए नहीं गया; उसने अब्दुल्लाह बिन जैश को सात मुहाजिरों के साथ नखल घाटी की ओर रवाना किया. इस गज़्वाह में इस्लाम की पहली जीत अंकित हुई.